कोलकाता.
राज्य में आगामी विधानसभा चुनाव की तिथि नजदीक आने के साथ मंदिर-मस्जिद से जुड़ी सिलसिलेवार घोषणा, धार्मिक ग्रंथों के प्रदर्शन और तारीखों से जुड़े प्रतीकों का इस्तेमाल राज्य की राजनीति को जैसे एक ऐसे अपरिचित रास्ते पर ले जा रहा है, जिससे सांप्रदायिक ध्रुवीकरण और तेज हो रहा है. विभाजन की स्मृतियों, जनसांख्यिकीय आशंकाओं और राजनीतिक गोलबंदी से समय-समय पर परखी जाने वाली सहअस्तित्व की परंपरा से आकार पाये इस सीमावर्ती राज्य में हालात और संवेदनशील होते दिख रहे हैं.मुर्शिदाबाद से सटे जिलों से लेकर कोलकाता के पूर्वी छोर पर बसे नियोजित टाउनशिप साॅल्टलेक तक, राजनीतिक गोलबंदी की सबसे मुखर भाषा के रूप में आस्था उभर आयी है. इसके चलते प्रवासन, रोजगार, महंगाई और शासन जैसे मुद्दों पर होने वाली चर्चाएं अक्सर पीछे छूट जाती हैं, क्योंकि विधानसभा चुनाव से पहले प्रतिद्वंद्वी राजनीतिक खिलाड़ी यह परख रहे हैं कि धार्मिक दावेदारी बंगाल की चुनावी व्याकरण को कितनी दूर तक खींच सकती है.तृणमूल कांग्रेस के प्रवक्ता कुणाल घोष ने कहा : बंगाल की संस्कृति ने कभी भी प्रतिस्पर्धी धार्मिक राजनीति का समर्थन नहीं किया है.
भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष शमिक भट्टाचार्य ने कहा कि जब एक पक्ष अपने वोट बैंक को मजबूत करने के लिए धार्मिक प्रतीकों का इस्तेमाल करता है, तो दूसरे से यह उम्मीद नहीं की जा सकती कि वह चुप रहेगा. 1990 के दशक में बाबरी विध्वंस के बाद देशभर में हुई हिंसा को याद करते हुए प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष शुभंकर सरकार ने कहा : हमें पता है कि प्रतिस्पर्धी सांप्रदायिकता आखिर किस ओर ले जाती है.राजनीतिक विश्लेषक शुभमय मोइत्रा ने कहा : जब रोजमर्रा की जिंदगी में आर्थिक संकट हावी हो, तब अचानक ‘मंदिर-मस्जिद’ की राजनीति जान-बूझकर विमर्श के बदलाव का संकेत देती है.
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