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उत्तर प्रदेश : भाजपा बढ़ी, तो बिखर गये मुस्लिम वोटर, जानें इस चुनाव में किसका देंगे साथ कौन रहेगा इस बार खाली हाथ
अखिलेश वाजपेयी 2014 में एक भी मुस्लिम उम्मीदवार नहीं बन सका था सांसद यूपी में आबादी 19.26%, 10 संसदीय सीटों पर 5-5 लाख से ज्यादा मतदाता उत्तर प्रदेश में 19.26 फीसदी मुस्लिम आबादी है. 17 ऐसे जिले हैं, जहां इनकी आबादी पांच लाख है. इन जिलों के अंतर्गत राज्य की 80 में से 10 लोकसभा […]
अखिलेश वाजपेयी
2014 में एक भी मुस्लिम उम्मीदवार नहीं बन सका था सांसद
यूपी में आबादी 19.26%, 10 संसदीय सीटों पर 5-5 लाख से ज्यादा मतदाता
उत्तर प्रदेश में 19.26 फीसदी मुस्लिम आबादी है. 17 ऐसे जिले हैं, जहां इनकी आबादी पांच लाख है. इन जिलों के अंतर्गत राज्य की 80 में से 10 लोकसभा सीटें आती हैं. दिलचस्प यह है कि इसके बावजूद 2014 के लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश से एक भी मुस्लिम उम्मीदवार जीत संसद नहीं पहुंच सका. 1980 और उसके बाद हुए 10 लोकसभा चुनावों में ऐसा पहली बार हुआ था. इसी मूल वजह मुस्लिम वोटों का बिखराव थी. इस बार भी सपा, बसपा और रालोद गठबंधन के अलावा कांग्रेस और दूसरी पार्टियां भी मैदान में हैं. लिहाजा, इस बार के लोकसभा चुनाव यहां के मुस्लिम मतदाता किसका साथ देंगे, इस पर सब की नजर है.
बसपा सुप्रीमो मायावती देवबंद की रैली में जब मुस्लिम मतदाताओं से गठबंधन के पक्ष में एकतरफा वोट देने का आह्वान करती हैं, तो उप्र में इन मतों के मायने समझे जा सकते हैं. इस लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश के नतीजे न सिर्फ दिल्ली की सत्ता का भविष्य तय करेंगे, साथ ही गठबंधन और कांग्रेस की आगे की राह भी तय कर देंगे.
मुसलमानों के बिना भाजपा जीत गयी लोकसभा की सभी सीटें
2014 के लोकसभा और 2017 में उप्र विधानसभा चुनाव ने लगभग 20% मुस्लिम मतदाताओं की ताकत का मिथक तोड़ दिया है. अब तक माना जा रहा था कि मुस्लिम मतदाताओं का रुख नतीजों को तय करने में अहम भूमिका निभाता है.
भाजपा ने लोस व विस चुनाव में किसी मुसलमान को मैदान में नहीं उतारा. बावजूद इसके उसे जबर्दस्त जीत मिली. भाजपा नेता हिंदुत्व को ही धार देते रहे. साथ ही विरोधियो के मुस्लिम प्रेम पर प्रहार करते रहे. भाजपा को मिले प्रचंड बहुमत से यह भ्रम भी टूट गया कि मुसलमानों के साथ के बिना उप्र के मैदान में जीत का झंडा बुलंद नहीं किया जा सकता है. अब 2019 के लोकसभा चुनाव के पहले चरण के मतदान से पहले भाजपा उसी राह पर है.
बेचैनी स्वाभाविक…
ऐसा क्या हुआ कि भाजपा को हराने के लिए मतदान करने वाला मुसलमान दो-दो चुनाव में प्रदेश में भाजपा की राह रोकने के लिए एकजुट नहीं हो पाया. इसे लेकर मुस्लिमों के मन में बेेचैनी होना स्वाभाविक है. लोकसभा चुनाव के नतीजों से पता चलेगा कि मुसलमानों के भीतर भाजपा को लेकर पहले जैसा ही विरोध है या कुछ बदलाव हुआ है.
बिखरने से रोकने के लिए गठबंधन
सपा-बसपा-रालोद गठबंधन के पीछे बड़ी वजह मुस्लिम मतदाताओं का बिखराव रोकना भी माना जा रहा है. इन्हें लगता है कि पिछले चुनावों में उन्होंने जिस तरह मुस्लिम प्रत्याशियों को टिकट देने की होड़ की और एक दूसरे से ज्यादा टिकट देने का ढिंढोरा पीटा, उससे मुसलमान बंट गया. इससे भाजपा को फायदा हो गया. इसलिए इन दलों ने गठबंधन कर लिया.
1989 के बाद कांग्रेस से टूटती चली गयी मुस्लिमों की लामबंदी
आंकड़ों पर नजर डालें, तो 80 के पहले प्रदेश से ज्यादातर मुस्लिम सांसद कांग्रेस के ही होते थे. आपातकाल के बाद हुए जिस चुनाव से इंदिरा गांधी ने सत्ता में फिर वापसी की. उसमें प्रदेश से 18 मुस्लिम सांसद चुने गये.
इनमें अधिकतर कांग्रेस के थे. 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या से उपजी सहानुभूति की लहर में प्रदेश से 12 मुस्लिम सांसद चुने गए. इनमें भी ज्यादातर कांग्रेस के थे. बोफोर्स घोटाले के चलते उपजी कांग्रेस विरोधी लहर में 1989 में हुए चुनाव में प्रदेश से 8 मुस्लिम सांसद ही जा सके. इसमें जनता दल के भी सांसद थे. मतलब 1989 के बाद मुस्लिमों की कांग्रेस के साथ लामबंदी टूटती चली गयी. स्थानीय स्तर पर जो उसे ज्यादा नजदीक दिखा वह उसके साथ गया.
वजूद बचेगा, तब तो करेंगे प्रतिनिधित्व की बात
मुस्लिम प्रतिनिधित्व की बात तो तब होगी जब उनका वजूद बचेगा. भाजपा ने उग्र हिंदुत्व और ध्रुवीकरण की राजनीति से मुसलमानों की सियासी अहमियत कम करने की कोशिश की है. वर्ष 2014 के आम चुनाव के बाद ऐसा माहौल बना कि खुद को सेक्यूलर कहने वाले दलों ने भी मुसलमानों के मुद्दे पर बोलना बंद कर दिया. अल्पसंख्यकों की यह स्थिति भारत ही नहीं, समूची सभी दक्षिण एशियाई देशों में है.
प्रो. मो. सज्जाद,
आधुनिक इतिहास विभाग, अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी
चुनाव का धार्मिक आधार पर ध्रुवीकरण रुका
पश्चिमी उप्र में मुसलमानों का रुझान आमतौर पर सपा-बसपा-रालोद गठबंधन के पक्ष में है. इसका सामाजिक समीकरण दूसरे दलों पर भारी है. गठबंधन की मजबूती से सांप्रदायिक ताकतों को रोका जा सकता है. जिन सीटों पर कांग्रेस मजबूती से लड़ेगी, मुसलमान वहां उनका समर्थन कर सकते हैं. गठबंधन से किसानों, अनुसूचित जातियों व मुस्लिमों की एकजुटता दिखी है. चुनाव का धार्मिक आधार पर ध्रुवीकरण रुका है.
खालिद मसूद,
पूर्व छात्रसंघ अध्यक्ष,
अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी
पिछले चुुनाव में सभी सीटों पर भाजपा
राज्य की 17 सीटों पर 5 लाख से ज्यादा मुस्लिम मतदाता हैं. इनमें मुरादाबाद, रामपुर, संभल, सहारनपुर, मुजफ्फरनगर, बिजनौर, नगीना, मेरठ, श्रावस्ती, कैराना, गाजियाबाद, बरेली, अमरोहा, बहराइच, डुमरियागंज, पीलीभीत और बागपत शामिल हैं. 2014 में सभी जगह भाजपा जीती. अलबत्ता, हुकुम सिंह के निधन के बाद कैराना में उपचुनाव में संयुक्त विपक्ष की तबस्सुम हसन जीती थीं.
पूरे राज्य में 19.26%
पश्चिमी उप्र में 24.44%
12 जिलों में एक तिहाई
13 जिलों में 20 से 33%
12 जिलों में 15 से 20%
21 जिलों में 10.15%
17 जिलों में 10% से कम
कब कितने मुस्लिम सांसद बने
1980 18
198412
198908
199103
199605
199806
199908
200410
200907
201400
भाजपा बढ़ी, तो बिखर गये मुस्लिम वोटर
पिछले तीन दशकों में जब-जब भाजपा का माहौल बना, तब-तब प्रदेश में मुस्लिम सांसदों की संख्या घटी. मंदिर मुद्दे पर उपजी राम लहर में 1991 के चुनाव में यह आंकड़ा सिर्फ तीन रह गया. 1999 तक, जब तक भाजपा का माहौल रहा, मुस्लिम सांसदों का आंकड़ा दहाई तक नहीं पहुंचा. 2004 में भाजपा सिकुड़ी और उसके सिर्फ 10% सांसद जीते, तब मुस्लिम सांसदों की संख्या दहाई के अंक 10 तक पहुंची. 2009 में 7 मुस्लिम सांसद जीते. 2014 में एक भी मुस्लिम उम्मीदवार नहीं जीत सका.
गठबंधन के साथ मुस्लिम वोटरों की गोलबंदी!
सपा, बसपा और रालोद की एकजुटता मुस्लिम बहुल सीटों पर भाजपा की राह में बड़ी चुनौती खड़ी कर सकती है. सपा-बसपा की एकजुटता से पिछड़ी जातियों और अनुसूचित जातियों का बड़ा हिस्सा, खासतौर से बड़ी जातियां यादव, जाट व जाटव का रुझान गठबंधन को 2014 के मुकाबले मजबूती दे सकता है. इसके चलते मुस्लिमों को विकल्प मिल गया है. देखने वाली बात यह होगी कि भाजपा अब गठबंधन के परंपरागत मतदाताओं का कितना हिस्सा अपने पक्ष में हासिल करती है.
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