सरकारी उदासीनता और लकड़ी की किल्लत बनी मुख्य वजह फोटो: 12 एसआईएम: 21- कच्ची दीया, 22- पका हुआ दीया, 23- मिट्टी का घड़ा बनाते कुम्हार, शंकर महतो, एतवा महतो, अजीत महतो रविकांत साहू सिमडेगा: कभी मिट्टी के बर्तनों के निर्माण के लिए प्रसिद्ध सिमडेगा जिले के कुम्हार आज अपने परंपरागत व्यवसाय से धीरे-धीरे दूर होते जा रहे हैं. सदर प्रखंड के टांगरटोली, सुंदरपुर, सलडेगा और आसपास के गांवों में पहले बड़ी संख्या में कुम्हार जाति के लोग मिट्टी के बर्तन, दीया, कुल्हड़, चाय कप और पूजन सामग्री तैयार किया करते थे. लेकिन अब यह परंपरा लगभग खत्म होती जा रही है. मिट्टी के बर्तन बनाने में सबसे बड़ी समस्या अब लकड़ी की हो गयी है. टांगरटोली में पहले जहां करीब 40 परिवार इस व्यवसाय में सक्रिय थे, वहीं अब केवल 10 परिवार ही इसे किसी तरह जीवित रखे हुए हैं. स्थानीय लोगों का कहना है कि पहले लकड़ी आसानी से मिल जाती थी. लेकिन अब जंगलों से लकड़ी लाना बहुत मुश्किल हो गया है. उन्हें करीब 30 किलोमीटर दूर जाकर लकड़ी लानी पड़ती है. जिससे लागत और मेहनत दोनों बढ़ गई हैं. पिछले दिनों प्रशासन द्वारा कुम्हार जाति के बीच इलेक्ट्रॉनिक चाक वितरण की घोषणा की गयी थी, ताकि उन्हें आधुनिक साधन उपलब्ध कराए जा सकें. लेकिन लाभार्थियों का कहना है कि यह योजना भी प्रभावित लोगों तक नहीं पहुंच सकी. कुछ प्रभावशाली लोगों ने मनमर्जी से चाक का वितरण कर दिया. जिससे वास्तविक जरूरतमंदों को इसका फायदा नहीं मिला. कुमार जाति के लोगों का कहना है कि अगर सरकार फिर से इस पारंपरिक व्यवसाय को बढ़ावा देने के लिए प्रशिक्षण, लकड़ी की सुविधा और विपणन सहयोग दे तो वे इसे नई ऊंचाई तक ले जा सकते हैं. इससे न केवल उनकी आजीविका सुधरेगी बल्कि मिट्टी के उत्पादों के माध्यम से पर्यावरण संरक्षण में भी मदद मिलेगी. अजीत महतो सुंदरपुर निवासी : पहले लकड़ी आसानी से मिल जाती थी. लेकिन अब जंगल से लकड़ी लाने में भारी परेशानी होती है. लकड़ी खरीदकर दीये या बर्तन पकाना बहुत महंगा पड़ता है. जंगल बचाओ समिति के लोग भी लकड़ी लाने से रोकते हैं. सरकार अगर कोई ठोस व्यवस्था करे तो हम फिर से यह काम शुरू कर सकते हैं. एतवा महतो टांगरटोली निवासी : हमारे गांव में पहले हर घर में चाक घूमता था. अब सिर्फ कुछ ही लोग यह काम कर रहे हैं. प्रशासन ने कई बार मदद का आश्वासन दिया. लेकिन कुछ नहीं हुआ. अगर सरकार प्रशिक्षण और संसाधन दे तो हम अपने बच्चों को इस पारंपरिक काम से जोड़ सकते हैं. शंकर महतो टांगरटोली निवासी : मिट्टी के बर्तन पकाने के लिए पुराने पुआल की जरूरत होती है. लेकिन अब वह भी आसानी से नहीं मिलते. सरकार यदि सहायता करे और लकड़ी की व्यवस्था करे, तो हम न केवल इस परंपरा को जीवित रख सकते हैं बल्कि गांव के युवाओं को भी इसमें जोड़ सकते हैं.
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