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Friday, March 29, 2024

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सिदो-कान्हू की बहन फूलो-झानो ने 21 अंग्रेजों को काट डाला था, कार्ल मार्क्स ने कही थी ये बात…

संताली भाषा के गीत की पंक्तियां हैं ‘फूलो झानो आम दो तीर रे तलरार रेम साअकिदा’ अर्थात फूलो झानो तुमने हाथों में तलवार उठा लिया. ‘खूब लड़ी मर्दानी वो तो झांसी वाली रानी थी’ से पहले तलवार उठानेवाली इन दोनों आदिवासी बहनों के बारे में इतिहास चुप्पी साधे रहा

संताली भाषा के गीत की पंक्तियां हैं ‘फूलो झानो आम दो तीर रे तलरार रेम साअकिदा’ अर्थात फूलो झानो तुमने हाथों में तलवार उठा लिया. ‘खूब लड़ी मर्दानी वो तो झांसी वाली रानी थी’ से पहले तलवार उठानेवाली इन दोनों आदिवासी बहनों के बारे में इतिहास चुप्पी साधे रहा. पाकुड़ के निकट संग्रामपुर में अंधेरे का फायदा उठाकर फूलो और झानो अंग्रेजों के शिविर में ही दाखिल हो गयीं.

अपनी कुल्हाड़ी से 21 अंग्रेज सैनिकों को मार गिराया. उसी संघर्ष में लड़ते-लड़ते शहीद हो गयीं, पर हूल के जज्बे को मिटने नहीं दिया. फूलो और झानो को याद करना आदिवासी समाज ही नहीं, बल्कि गैर-आदिवासी समाज के लिए भी उतना ही जरूरी है. इतिहास का अधूरा ज्ञान या इतिहास की उपेक्षा अंतत: विघटनकारी होती है.

इतिहास में उपेक्षित रहा फूलो-झानो का नाम: फूलो-झानो और संताल हूल के इतिहास को ठीक तरीके से जानना और उसके महत्व को समझना वर्तमान समाज को विघटित होने से बचा सकता है. झांसी की रानी लक्ष्मीबाई पर कविता और कहानियों की भरमार हो गयी. वहीं 1857 की क्रांति की पृष्ठभूमि रचनेवाले संताल हूल को अंजाम देनेवाली फूलो और झानो का नाम इतिहास के पन्नों में सदा उपेक्षित ही रहा.

संताल हूल का नेतृत्व करनेवाले अपने भाइयों वीर सिदो, कान्हू, चांद, भैरव के साथ फूलो और झानो भी कदम से कदम मिला कर अंग्रेजों के खिलाफ लड़ीं.

नगाड़े की धुन पर डटे रहते थे संताल हूल के सिपाही : सिर्फ फूलो और झानो ही नहीं, संताल हूल तक की चर्चा महज दो पंक्तियों में करके इतिहास आगे बढ़ जाता रहा है. झारखंड राज्य निर्माण के बाद विद्वानों की दिलचस्पी इस ओर बढ़ी है, लेकिन वह पर्याप्त नहीं है. आज भी सिदो को सिद्धू लिखनेवाले विद्वानों की कमी नहीं है. ऐसा नहीं है कि इतिहास में हूल के महत्व को रेखांकित नहीं किया गया है. प्रसिद्ध दार्शनिक कार्ल मार्क्स की किताब ‘नोट्स ऑन इंडियन हिस्ट्री’ में 1855 के संताल हूल को आम लोगों के नेतृत्व में लड़ा गया औपनिवेशिक भारत का पहला संगठित जनयुद्ध कहा गया है.

संताल हूल का अंग्रेजों ने बर्बरता से दमन किया. इसमें लगभग 25 हजार आदिवासियों के मारे जाने की बात कही जाती है. इसके बावजूद हूल के जज्बे का दमन नहीं हो सका. स्कॉटिश इतिहासकार विलियम विल्सन हंटर ने अपनी किताब ‘अनल्ज ऑफ रूरल बंगाल’ में उस समय कार्यरत एक ब्रिटिश ऑफिसर मेजर जेर्विस के हवाले से संताल हूल के दौरान संतालों के कत्लेआम और उनके जज्बे के बारे में लिखा कि ‘यह कोई युद्ध नहीं था.

वह समर्पण करना जानते ही नहीं थे. जब तक नगाड़े बजते थे, उनका पूरा समूह डटा रहता और मारे जाने के लिए तैयार रहता. उनके तीर ने प्राय: हमारे लोगों को मारा, इसलिए हमें तब तक फायर करना पड़ता था, जब तक कि वे डटे रहते. इस युद्ध में शामिल ऐसा एक भी सिपाही नहीं था, जो खुद पर शर्मिंदा नहीं था.’1856 ई में ही कोलकाता से प्रकाशित कलकत्ता रिव्यू में संताल हूल के महत्व को व्यापकता से स्वीकारा गया.

  • हूल विद्रोह को कार्ल मार्क्स ने कहा था : औपनिवेशिक भारत का पहला संगठित जनयुद्ध

  • सिदो ने फूलो-झानो को कहा ‘आम दो लट्टु बोध्या खोअलहारे बहादुरी उदुकेदा’

संताल हूल की सांगठनिक मजबूती में दोनों बहनों का था ऐतिहासिक महत्व

देसी दस्ता और औपनिवेशिक गुलामी के खिलाफ लड़ी गयी लड़ाई में फूलो और झानो की केंद्रीय भूमिका थी. भाइयों ने नेतृत्व और हौसला दिया, तो इन दोनों बहनों ने हूल के मूल उद्देश्य को अपने क्षेत्र के जन-जन तक पहुंचाया. हूल के संदेश रूप में सखुआ की डाल लेकर जंगल-पहाड़ों में नदी-नाला पार कर, हूल की चेतना और जरूरत से आम जनों को वाकिफ कराया.

उस तय दिन की सूचना दी, जिस 30 जून 1855 को हूल का आगाज एक साथ करना था. इस तरह से संताल हूल को सांगठनिक मजबूती प्रदान करने में फूलो और झानो का ऐतिहासिक महत्व है. इतना ही नहीं, जब महाजनी व्यवस्था के असली केंद्र यानी इस्ट इंडिया कंपनी के मुख्यालय कलकत्ता पर ही कब्जा करने का उद्देश्य निर्धारित हुआ, तब जरूरत पड़ने पर हथियार भी उठाया.

लोकगीतों व कथाओं में मिला सम्मान : मुख्य धारा का इतिहास भले ही चुप रहा, पर संताली लोकगीतों और कथाओं में फूलो व झानो को सम्मान से याद किया जाता रहा. यहां तक कि बहनों को उनके समाज ने भाइयों से भी बढ़ कर माना- ‘आम दो लट्टु बोध्या खोअलहारे बहादुरी उदुकेदा’ अर्थात तुमने बड़े भाइयों से भी बढ़ कर बहादुरी दिखायी. चुन्नी मांझी की दोनों बहादुर बेटियों ने हूल की आग को भोगनाडीह गांव से समूचे राजमहल की पहाड़ियों में फैला दिया, जिसकी आंच इस्ट इंडिया कंपनी के मुख्यालय कलकत्ता तक पहुंच गयी थी.

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