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मांय माटी: खोरठा भाषा-साहित्य के अग्रणी योद्धा थे श्रीनिवास पानुरी

श्रीनिवास पानुरी जी ने खोरठा को स्थापित करने के लिए जो तड़प और प्रतिबद्धता दिखाई थी, वह अभूतपूर्व थी. 25 दिसंबर, 1920 को जनमे पानुरी जी ने देश की आजादी से पहले ही खोरठा में लिखना शुरू कर दिया था. इसके लिए उन्हें पहले उपहास ही झेलना पड़ रहा था. पर वे विचलित नहीं हुए थे.

दिनेश कुमार दिनमणि (सहायक प्राध्यापक, रांची विश्वविद्यालय) : झारखंड प्रदेश के सर्वाधिक विस्तृत व्यापक क्षेत्र की लोकभाषा खोरठा को साहित्यिक गौरव-गरिमा प्रदान करने में कई साहित्यकारों का अविस्मरणीय योगदान रहा है, जिनमें अग्रणी नाम श्रीनिवास पानुरी का आता है. श्रीनिवास पानुरी जी ने खोरठा को स्थापित करने के लिए जो तड़प और प्रतिबद्धता दिखाई थी, वह अभूतपूर्व थी. पानुरी जी से पहले खोरठा भाषी रचनाकार भी खोरठा को एक रुखड़ी खुरदरी, साहित्य रचना के गुणों से हीन, समान्यतः अनपढ़ गंवारों की बोली ही मानते थे. यद्यपि कई गीतकार खोरठा में अनेक भावप्रवण गीतों की रचना कर जनप्रिय बना चुके थे. पर खोरठा को साहित्य जगत में वास्तविक पहचान और प्रतिष्ठा श्रीनिवास पानुरी जी ही ने दिलाई.

25 दिसंबर, 1920 को जनमे पानुरी जी ने देश की आजादी से पहले ही खोरठा में लिखना शुरू कर दिया था. इसके लिए उन्हें पहले उपहास ही झेलना पड़ रहा था. पर वे विचलित नहीं हुए थे. अपनी मातृभाषा के प्रति उनका उत्कट अनुराग था. वही उनका संबल बना और दृढ़ आत्मविष्वास के साथ खोरठा को स्थापित करने के लिए बहुआयामी उपक्रम-उद्यम किए. साहित्य की लगभग सभी प्रमुख विधाओं में स्वयं अपनी कलम चलाकर खोरठा में उत्कृष्ट साहित्य का सृजन किया, अन्य भाषा की विश्वप्रसिद्ध कृतियों का खोरठा में अनुवाद किया, पत्रिकाएं निकालीं और नाटक लिखकर मंचन भी कराया, बल्कि भाषा के प्रति जनजागरूकता फैलाने के लिए व्यवस्थित अभियान भी चलाया. जिस प्रकार के कार्य हिंदी को स्थापित करने के लिए भारतेंदु ने किये थे. उसी प्रकार खोरठा भाषा साहित्य आंदोलन और विकास की मजबूत नींव पानुरी जी के द्वारा डाली गई थी, जिसपर आज खोरठा साहित्य की इमारत खड़ी है.

वस्तुतः भारतेंदु में हिंदी की मान्यता और विकास के लिए जो छटपटाहट थी, वैसी ही तड़प पानुरी में देखी गयी थी. भारतेंदु जी कहते हैं- ‘‘निज भाषा की उन्नति अहे सब उन्नति को मूल, निज भाषा की उन्नति बिना मिटे ना हिय की शूल.’’

पानुरी जी भी लिखते हैं – ‘‘आपन भासा सहज सुंदर बुझे गीदर बुझे बांदर’’

आगे और भी – ‘‘हाय खोरठा हाय खोरठा रटते रहली भाय, खोरठा भासिक किंतु हिंदें धेयान नाय’’

अपनी मातृभाषा ही नहीं, बल्कि मातृभूमि की दशा के लिए भी पानुरी जी ने भारतेंदु की तरह ही चिंता दिखाई थी. जहां भारतेंदु जी को भारत दुर्दशा देखी नहीं जा रही थी वहीं पानुरी जी भी खनिज संपदा से समृद्ध मानभूम, धनबाद क्षेत्र के मानुष की दशा पर अपने क्षोभ को इस प्रकार व्यक्त करते हैं – ‘‘मानभूमेक माटी तरें हीरा-मोती-मानिक झरे, पेटेक जालाञ ताओ काहे मानभूमेक लोक मोरे.’’

यद्यपि भारतेंदु जी एक धनाढ्य परिवार के वारिस थे और वे भाषा-सहित्य की सेवा के लिए साधन-संपन्न थे. उन्होंने अपने पूर्वजों की अर्जित संपत्ति को हिंदी सेवा में न्यौछावर कर दिया था. इस संदर्भ में श्रीनिवास पानुरी जी की स्थिति भिन्न थी. पानुरी जी काफी कमजोर आर्थिक पृष्ठभूमि के थे. विरासत से इन्हें कुछ भी नहीं मिला था. एक साधारण पानगुमटी उनके आजाविका का आधार थी. तथापि इन्होंने खोरठा की सेवा में अपना सबकुछ समर्पित कर दिया. अपने परिवार से अधिक भाषा सेवा को अधिक महत्त्व दिया. एके झा ने इस बात को अपनी एक कविता में पानुरी की संतानों की तरफ से ठीक ही कहा है – ‘‘खोरठा के खियाइ-खियाइ तोञ हामनिक खियाइ देलें.’’ इस मामले में पानुरी जी का त्याग और समर्पण कहीं बीस ठहरता है.

रचना कर्म और साहित्यिक कृतियों की दृष्टि से देखा जाये तो दोनों ही विलक्षण सृजन प्रतिभा के धनी थे. जहां भारतेंदु जी ने अपने 35-36 वर्ष की अल्पायु में हिंदी को कुल मिलाकर 37 पुस्तकें दी हैं, वहीं पानुरी जी ने 66 वर्ष के जीवनकाल और लगभग 40 वर्ष के साहित्यिक जीवन में छोटे-बड़े 40 साहित्य ग्रंथ दिये हैं. भारतेंदु जी के पास ब्रज भाषा की सुदीर्घ साहित्यिक परंपरा की सुदृढ़ पृष्ठभूमि थी, जबकि पानुरी जी की खोरठा में कोई साहित्यिक परंपरा थी न आसपास कोई साहित्यिक माहौल. और, इन्होंने उस भाषा में साहित्य रचना की थी, जिसे तब अनपढ़-गंवारों की भाषा मानी जाती थी. खोरठा भाषी हाते हुए भी सामान्य शिक्षित समुदाय अपनी मातृभाषा के प्रति बहुत तिरष्कारपूर्ण भावना रखता था. अनपढ़-गंवारों की भाषा में साहित्य रचना की लोग तब कल्पना तक नहीं करते थे.

भारतेंदु जी ने अपने रचनाकर्म और रचनात्मक आंदोलन आधुनिक हिंदी की नींव डाली थी तो पानुरी जी ने धूल-धुसरित, कादो-मिट्टी से लिपटे खोरठा के हीरे को साफ करने और तराशने के साथ खोरठा को भाषा की प्रतिष्ठा दिलाने के लिए एक जीवट योद्धा की तरह जीवनपर्यंत लगे रहे.

पानुरी जी व्यापक और दूरदृष्टि वाले खोरठा सेवी थे. उन्हें खोरठा सेवा की शुरुआत करने पर स्थानीय शिक्षित समुदाय द्वारा काफी उपहास उड़ाया गया था. लोगों ने इस प्रयास को पानुरी जी का पागलपन बताया था. लेकिन वे अपनी भाषा के अनन्य भक्त-से दीवने थे. उपेक्षित-तिरस्कृत अपनी मातृभाषा को बोली की हीनबोधक संज्ञा से भाषा का सम्मान दिलाने का दृढ़ संकल्प कर लिया था, और उसे कर दिखाया था. खोरठा भाषा में साहित्यिक सौष्ठव युक्त उत्कृष्ट रचनाएं रचकर न सिर्फ अपने आलोचकों-उपहासकों का मुंह बंद कराया, बल्कि खोरठा को साहित्य जगत् में एक पहचान दिलायी.

श्रीनिवास पानुरी जी का रचना संसार विस्तृत-व्यापक है. यद्यपि वे कवि गुणी रचनाकार थे तथापि उन्होंने गद्य-पद्य दोनों की विभिन्न विधाओं में उत्कृष्ट साहित्य की रचना की है. कुछ उल्लेखनीय कृतियां हैं – बालकिरिण, दिव्यजोति, आंखीक गीत, समाधान, पारिजात, मधुक देसें, अगिन परीखा, जुगेक गीता (सभी कविता ग्रंथ), रामकथामृत(प्रबंध काव्य), मेघदूत(अनूदित काव्य), उद्भासल कर्ण, चाभी-काठी (एकांकी), रकतें भींजल पांखा(कहानी संग्रह), अजनास (निबंध संग्रह) आदि. इसके अतिरिक्त मातृभाषा, खोरठा पत्र-पत्रिकाओं संपादन-प्रकाशन किया तथा तितकी नामक पत्र का प्रकाशन करवाया था.

वस्तुतः किसी ‘बोली’ को भाषा के उच्च आसन में प्रतिष्ठित कराने में उस बोली के प्रतिभा संपन्न साहित्यकारों का अमूल्य योगदान होता है. ऐसे साहित्यकार उस भाषा को परिमार्जित करते हैं, अलंकृत करते हैं. उसकी अभिव्यंजना क्षमता की खोज कर साहित्यिक संस्कारों से युक्त करते हैं. ब्रज क्षेत्र की बोली को सूरदास तथा अष्टछाप के अन्य कवियों ने ब्रजभाषा की प्रतिष्ठा दिलाई थी और सीमित क्षेत्र की जनभाषा को व्यापक क्षेत्र की साहित्यिक भाषा बना डाला था.

गोस्वामी तुलसीदास ने अवधी की मिट्टी को सोना बना दिया. वैसे ही विद्यापति ने अपनी काव्य-कृतियों से मिथिला क्षेत्र की बोली को भाषाई लालित्य का विलक्षण प्रतिमान सथापित कर दिया. सीमित क्षेत्र की ये बोलियां यदि पारदेषिक-पारकालिक विस्तार पा रही हैं तो इसका एकमात्र कारण है इनमें रची गयीं उत्कृष्ट कोटि की साहित्यिक कृतियां.

जिस प्रकार सूर ने ब्रजभाषा, तुलसी ने अवधी और विद्यापति ने मैथिली के लिए किया था और हिंदी के लिए भारतेंदु ने किया था, वही कार्य खोरठा के लिए श्रीनिवास पानुरी ने किया है. खोरठा आज भाषा की जो प्रतिष्ठा पा रही है, उसमें पानुरी का अद्वितीय और बहुआयामी योगदान है. उन्होंने खोरठा की सूखी मरुस्थली पर साहित्य का ऐसा मनोरम उपवन लगाया कि उसकी हरीतिमा की चमक-महक कभी धूमिल-मलिन नहीं हो सकती. यही वजह है कि खोरठा के इस महान साधक के जन्मदिन को सुधी खोरठा भाषी समाज खोरठा दिवस के रूप में मनाकर उनके प्रति कृतज्ञता प्रकट करता है.

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