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हे छठी मइया !

गंगा मइया को बचाने के लिए नायक दो माना जाता है कि तब पाताल लोक में पानी ही पानी ही था. पूरी तरह जलमग्न. लोग पानी के हाहाकार को देख डरे-सहमे रहते थे. उस समय के मुख्य देवता सूर्य थे. उनसे लोगों ने अपना कष्ट बताया. सूर्य ने पाताल लोक के पानी को सोख लिया. […]

गंगा मइया को बचाने के लिए नायक दो
माना जाता है कि तब पाताल लोक में पानी ही पानी ही था. पूरी तरह जलमग्न. लोग पानी के हाहाकार को देख डरे-सहमे रहते थे. उस समय के मुख्य देवता सूर्य थे. उनसे लोगों ने अपना कष्ट बताया. सूर्य ने पाताल लोक के पानी को सोख लिया. उससे उन्होंने पर्वत बनाये. बादल और पानी बनाया. आज की भाषा में पानी का ‘री-साइकल’ किया गया. यह कहानी जल और जीवन के साथ सूर्य का रिश्ता बताती है. साल में दो ऐसे खास दिन होते हैं जब सूर्य से पाराबैगनी किरणें निकलती हैं. मकर संक्रांति और छठ ये खास दिन हैं.

दीपावली में हम घरों की सफाई करते हैं. छठ में जलाशयों, ताल-तलैयों को साफ करने की परंपरा रही है, ताकि साफ-सुथरे पानी में खड़े होकर हम षष्ठी तिथि को सूर्य को अर्घ दे सकें. लेकिन दुख होता है कि नदियों का पानी साफ नहीं रहा. नदियां प्रदूषित हो चुकी हैं. तालाब हैं नहीं. तालाबाों को तो भर कर हमने घर बना लिये. छठ के लिए नदियों-तालाबों का होना अपरिहार्य है. हमारे जीवन से ये निकल जायें, तो क्या बचेगा? जरूरी है कि छठ और सूर्य के लिए नदियों को बचाया जाये. तालाब-पोखर बचाये जायें.

इतिहासकार रामशरण शर्मा ने बताया है कि किस तरह 1857 में इस्ट इंडिया कंपनी (प्रतिनिध विल्सन) ने टिहरी के इलाके को लीज पर हासिल कर लिया था. तभी से हिमालय के सफाये की परियोजना चल रही है. आजाद भारत में भी यह सिलसिला नहीं थमा. अब तो उससे भी बड़ी और खतरनाक परियोजनाओं पर काम चल रहा है. हिमालय क्षेत्र में दो सौ झील बनाने का प्रस्ताव है. इससे गंगा सहित दूसरी नदियों का हाल और खराब होगा. पर हम गंगा को बचाने की बात कर रहे हैं. पटना में गंगा का हाल क्या है, यह सबको पता है. बीमारी की जांच सही हो रही है. लेकिन उसका इलाज गलत हो रहा है.

मेरी समझ है कि नदियों का जो हमने हाल कर दिया है, वह छठ का घोर अपमान है. छठ की जो विरासत और परंपरा रही है, हम आज उसके विरुद्ध आचरण कर रहे हैं. किसी वक्त पानी को सूर्य देवता ले गये थे. उन्होंने उसे परिष्कृत कर हमारे बीच आने दिया था. आज बिजली कंपनियां उस पानी को ले जा रही हैं और उसे गंदा कर हमें दे रही हैं. कोई दूसरी कंपनी गंदे पानी को साफ करने का ठेका लेगी. यही सब हो रहा है. हम बड़े निर्माण की ओर बढ़ रहे हैं. पर यह नहीं बता रहे कि इसके लिए गिट्टी कहां से लायेंगे. रेत कहां से लायेंगे? निश्चय ही पहाड़ साफ होंगे. नदियां बरबाद करेंगे. मैंने देखा है कि कन्नौज से ठीक पहले जहां रामगंगा और काली नदी (कालिंदी) मिलती है, वहां गंगा की स्थिति भयावह हो गयी है. नाले का पानी उसमें गिर रहा है.

छठ नैतिकता और संयम का व्रत है. किसी भी विकासमान संस्कृति के तीन आधार होते हैं. परंपरा, आधुनिकता और उसकी भाषा. गौर से देखा जाये तो हर चीज को हम उत्सवधर्मिता में बदल रहे हैं. इससे उसकी मूल बातों पर चोट पहुंच रही है. परंपरा को आधुनिक भाषा-शैली में परोसा जा रहा है. यह बाजार का जीवन में प्रवेश है.

इसे मैं भयानक सांस्कृतिक हमले के तौर पर महसूस करता हूं. जिस बद्रिकाश्रम में शंख नहीं बजता था, ताकि उससे किसी का तप भंग न हो, वहां आज की तारीख में हेलीकॉप्टर उतारे जा रहे हैं.
पेरिस : एक साथ जुट कर मनाते हैं छठ
अभी अमेरिका से पेरिस लौट रहा हूं. छठ न होता तो अभी कुछ दिन और यहां ठहरता. पर छठ को लेकर यहा रुकना थोड़ा मुश्किल हो रहा है. इसलिए पेरिस लौट रहा हूं और रास्ते से ही आपको इसके बारे में लिख रहा हूं.

पेरिस में कई लोग बिहार के हैं और हिंदुस्तान के दूसरे राज्यों से भी. हम सब एक-दूसरे को जानते हैं. उनके पर्व-त्योहार में शामिल होते हैं. हम पोंगल में शामिल होते हैं तो दक्षिण भारतीय हमारे मित्र छठ पर ठकुआ का प्रसाद लेना नहीं भूलते. हमारी पत्नी सविता बिहार की अन्य परिवारों की महिलाओं के साथ छठ करती हैं. पर यह भी सच है कि जिस तरह बिहार में हमलोग छठ कर पाते हैं, वैसा यहां नहीं हो पाता. पर हम इसे करना नहीं छोड़ेंगे. यह हमारी परंपरा और सामाजिक रूप से जड़ों को मजबूत करने वाला पर्व है. फ्रांस सहित दूसरे मुल्कों के कई दोस्त भारतीय संस्कृति के बारे में जानने को उतावले रहते हैं. हमें खुशी होती है कि वे हमारी परंपराओं को हमारे जरिये काफी करीब से देख पा रहे हैं. वे हिंदुस्तान के बारे में बहुत कुछ नहीं जानते हैं. जितना जानते हैं, उसमें तरह-तरह की धारणाओं का हिस्सा ज्यादा होता है.

छठ में कोसी भरने के लिए ईख जरूरी है. पेरिस में छठ में इस्तेमाल होनेवाले लगभग सारे सामान मिल जाते हैं. पर दूसरे शहरों में यह सब मिलना मुश्किल है. दूसरे शहरों में रहने वाले बिहार के लोग पेरिस आकर ईख खरीदते हैं. हम पेरिस में हैं, तो सभी सामान मिल जाते हैं. हमारे यहां, बिहार में स्कूलों में छुट्टी होगी. सरकारी-निजी दफ्तरों में भी. पर पेरिस में कोई छुट्टी नहीं है. इसलिए हमें काम और पर्व के बीच समय को लेकर प्रबंधन करना पड़ा है. इस तरह की कठिनाइयों के बावजूद छठ से हमारा अटूट जुड़ाव बना हुआ है. फ्रांस में रह रहे तमाम बिहारियों के लिए यह नहीं छूटनेवाला पर्व है.


हम यहां यू-ट्यूब से छठ गीत सुनते हैं. लेकिन छठ घाट पर महिलाएं जिस तरह गाती हैं, वह बात इसमें नहीं बन पाती है. इसकी कसक तो हमेशा रहती है.
(बक्सर के निवासी. पेरिस में रोबोटिक साइंस पर काम कर रहे हैं.)
वाशिंगटन : पोटोेमैक नदी के किनारे अर्घ्य
भगवान सूर्य की उपासना का यह महापर्व देश के बाहर भी मनाया जाता है. मॉरीशस, सूरीनाम के अलावा ब्रिटेन और अमेरिका सहित अन्य देशों में भी जाकर बसे लोग वहां इस त्योहार को उल्लास के साथ मना रहे हैं.
अपने देश के इस महापर्व को सात समंदर पार अमेरिका की राजधानी वॉशिंगटन लेकर आनेवाले कृपाशंकर सिंह, पेशे से सॉफ्टवेयर इंजीनियर हैं. मूल रूप से पटना के रहनेवाले कृपाशंकर, अमेरिकी राजधानी के उपनगर में ऐतिहासिक पोटोमैक नदी के किनारे छठ मनाते हैं. कृपाशंकर सिंह भारतीय मूल के अन्य लोगों के साथ पिछले आठ वर्षों से पोटोमैक नदी के किनारे छठ मनाते आ रहे हैं. कृपाशंकर बताते हैं, प्रशासन से अनुमति लेने के बाद जब हमने यहां पूजा शुरू की थी, तब हमारे साथ इक्का-दुक्का लोग होते थे. लेकिन, बीते दो-तीन वर्षों से हमारे साथ छठ पूजा में शामिल होने के लिए कई लोग तो मीलों दूर से आ रहे हैं.

वह आगे बताते हैं, पोटोमैक नदी के घाट पर पिछले साल छठ महापर्व मनाने के लिए जुटे लगभग 300 लोगों में फ्लोरिडा, वर्जीनिया, मेरीलैंड, न्यूयॉर्क और न्यूजर्सी के लोग शामिल थे. वह कहते हैं, कुछ महिलाएं तो भारत से भी आयीं थीं. श्रद्धा के अलावा उनके मन में यह कौतूहल था कि अमेरिका में छठ पर्व मनाया कैसे जाता है! पिछले वर्ष के छठ पर्व आयोजन की तसवीर दिखाते हुए कृपाशंकर बताते हैं कि पारंपरिक साड़ी पहने उनकी पत्नी अनिता सिंह के साथ नौ अन्य महिलाएं अर्घ्य देने के लिए पोटोमैक नदी के सर्द पानी में कैसे उतरीं थीं.
कृपाशंकर सिंह अपने दल-बल के साथ इस बार भी छठ पूजा के लिए तैयार हैं. वह बताते हैं, साल दर साल पूजा में अपने लोगों की भागीदारी बढ़ती जा रही है. छठ के लिए कई परिवार सैकड़ों मील दूर से आकर होटल में ठहरते और यहां पूजा में शामिल होते हैं. यू-ट्यूब के जरिये शारदा सिन्हा के गाये छठ पूजा के सदाबहार गीत हमारे यहां भी बजते हैं, जिनसे मंत्रमुग्ध होकर पटना और पोटोमैक के बीच के अंतर का पता ही नहीं चलता़ सब कुछ उसी तरह होता है, जैसे बिहार के गांवों में हमलोग छठ मनाते रहे हैं. ग्रेटर वॉशिंगटन मेट्रोपॉलिटन एरिया में भारतीय अमेरिकी समुदाय के प्रतिनिधि सिंह बताते हैं कि यह हमारे धार्मिक त्योहारों को परदेस में जिंदा रखने की हमारी कोशिश है. यह बताता है कि हमारी विरासत और परंपराएं कितनी मजबूत हैं. यह लगातार विस्तार पा रहा है.
बदलता दौर
अब तो न जांत है, न गीत
वैसे तो छठ का प्रभाव देश के दूसरे हिस्सों में भी दिखता है, पर इसका मूल बिहार से जुड़ा माना जाता है. छठ से जुड़ी कई लोककथाएं त्रेतायुगीन घटनाओं पर आधारित हैं. इससे स्पष्ट होता है कि बिहारी समाज में छठ की परंपरा अत्यंत पुरानी है. लेकिन, आज छठ व्रत का जो स्वरूप सामने है, वह काफी बदला हुआ है.

तीन-चार दशक पहले छठ का जो माहौल होता था, वह आज के माहौल से बिल्कुल मेल नहीं खाता. कह सकते हैं कि तब और अब में वैसा फासला दिख रहा है, जैसे धरती और आसमान के बीच की दूरी. उस दौर की कई चीजें हमसे काफी दूर हो गयी हैं. अब तो छठ के लिए जांत की कोई बात ही नहीं होती. छठ के गीतों के साथ हमारी महिलाओं के सुरीले कंठ अब कहां गूंजते हैं?
1940, 50 व 60 के दशक में छठ व्रत के आयोजनों के गवाह बने लोग आज की चीजें देख विचलित हो जाते हैं. तब छठ की तैयारी करीब 15-20 दिन या कहें कि महीनेभर पहले ही शुरू हो जाती थी. कई दिन पहले गेहूं धोने-सुखाने का काम शुरू होता था. इस क्रम में कोई अवांछित व्यक्ति उसे न छू दे, इसका खास ध्यान रखा जाता था. पक्षियों से भी बचाने के लिए धूप में सूखते गेहूं की निरंतर पहरेदारी होती थी.
छठ की तैयारी के तहत ऊपरोक्त तमाम प्रक्रियाओं में एक चीज काफी कॉमन थी. वह यह कि चाहे घर लीपा-पोता जा रहा हो, या गेहूं सुखाने अथवा पिसने का काम हो रहा हो, महिलाएं छठ के बेहद कर्णप्रिय गीत गाकर अद्भुत माहौल बना देती थीं.

अब तो छठ का आटा छठ के दिन ही प्लास्टिक पैक में खरीदा जाता है. गीतों के भी कैसेट्स, सीडी, चिप्स और न जाने क्या-क्या बाजार में उपलब्ध हैं. गीतों के लिए महिलाओं की जगह यू-ट्यूब ने ले ली है. आज किसी भी चीज के लिए लोग खुद से प्रयास करते नहीं दिखते. कहीं कोई उत्सुकता नहीं. क्योंकि, बाजार ने सबका विकल्प अपने घेरे में ले रखा है और हम बाजार के भरोसे रह गये हैं.
यादों में छठ
परदेसियों के लौटने से गांव हो जाता था गुलजार
छठ हमारे लिए पर्व ही नहीं, बल्कि हमारे जीवन का ऊर्जा स्त्रोत है. विश्वास का आधार है. मेरी बहन काफी बीमार रहा करती थी. बहुत इलाज कराया. मां ने मनौती मांग ली. वह भी चैती छठ की. कई सालों तक मेरी मां श्रीमती बुटना देवी चैती छठ करती रहीं.

छठ में दूसरी बड़ी बात जो उभर कर सामने आती है, वह है उल्लास का. इस पर्व के दौरान गांव में खास तरह का उछाह रहता है. यह आम जीवन से कहीं खो रहा है. पर छठ में वह उल्लास दिखता है. रोजगार के लिए बाहर गये लोग छठ और होली जैसे पर्वों पर आना नहीं भूलते. बचपन में सबसे अधिक खुशी हमें भी हमारे बाबूजी (श्री हरेश्वर गोप) का इस अवसर पर गांव आने से ही होता था. वे पश्चिम बंगाल के रानीगंज कोयलांचल में कार्यरत थे. उनके घर आने से जो खुशी मिलती थी, वह अनमोल थी. हमारे मोहल्ले के कई परिवारों के लोग जो बाहर कमाने गये थे, उनके आने से गांव गुलजार हो जाता था. फिर शाम को गवनई-बजनई होता, तो सुबह घाट जाने के समय ही बंद होता. पर परिवर्तन के इस दौर में अब बहुत कम लोग ही परदेस से गांव आते हैं, जो जहां हैं, वहीं मनाते हैं. गवनई-बजनई की संस्कृति को टीवी व रिकार्डिंग डांस ने छीन लिया. फिर भी खुशी होती है कि हमारे बच्चों व ग्रामीणों के पर्व को मनाने के उत्साह में कोई कमी नहीं आयी.

हमारी कोशिश रहती है कि अपने पूरे परिवार के साथ इस पर्व का सेलिब्रेट करें. अभी तक एक बार दिल्ली और दूसरी बार विदेश दौरे के कारण इस पर्व को हम परिवार के साथ नहीं मना सके.
रामेश्वर गोप
गायक
सांस्कृतिक कार्यक्रम की 83 साल पुरानी परंपरा कायम
मिथिला की एक परंपरा थी. दीवाली से लेकर छठ तक हर रात सांस्कृतिक कार्यक्रम हर बड़े गांव में करवाया जाता था. अब यह परंपरा खत्म होने के कगार पर है. हालांकि कुछ जगहों पर अब भी इस परंपरा को बचा कर रखा गया है.

ऐसा ही गांव है- सहरसा जिले के सोनवर्षा का सहसौल. सहसौल में पिछले 83 सालों से लगातार दीवाली से लेकर छठ तक सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित किया जाता है. सांस्कृतिक कार्यक्रम आपसी सहयोग से होता है.
ऐसे हुई थी शुरुआत : 83 साल पहले 1934 में स्वर्गीय केदार नारायण सिंह ने इस परंपरा की शुरुआत की. वे एक शिल्पकार व रंगकर्मी थे. शालीन स्वभाव के धनी केदार नारायण सिंह ने काली मूर्ति की स्थापना की. काली जी की मूर्ति जब तक मंदिर में रहती, तब तक उसके ठीक सामने कार्यक्रम का आयोजन होता. कार्यक्रम में नाटक को प्राथमिकता दी जाती थी.

नाटक के अलावा लोकनृत्य और लोक गायन का कार्यक्रम पूरी रात होता था. सांस्कृतिक कार्यक्रम का आयोजन बेहतर रूप से हो, इसलिए उन्होंने लोक नाट्य परिषद की नींव भी डाली. उनके इस काम में उनके बड़े भाई शारदा प्रसाद सिंह काफी मदद करते थे. आज तक इस परंपरा को उनके वंशज पूरा करते आ रहे हैं.
मोइन आजाद
चाइना वार के वक्त सोल्जर्स के लिए भेजी सहायता राशि
लोक कला परिषद सामाजिक सेवा में भी तत्पर तैयार रहती है. 1962 में हुए चाइना वार के वक्त भारतीय फौजियों की सहायता के लिए सभी सदस्यों ने आपसी सहयोग के जरिये प्रधानमंत्री कोष में अच्छी खासी रकम भेजी थी. इसके अलावा आज तक लोक नाट्य परिषद के सदस्य आपसी सहयोग के जरिये लोगों की मदद करते आ रहे हैं. यह सामूहिकता की मिसाल है.

बनते हैं मेंबर, उठाते हैं खर्च
लोक नाट्य परिषद से जुड़ने वालों को 100 या 150 रुपये सहायता राशि देनी होती है. हर साल कार्यक्रम के वक्त मेंबर्स जुड़ते हैं. कार्यक्रम का आयोजन आपसी सहयोग से होता है. राकेश कुमार सिंह बताते हैं कि इस परिषद का मंच तत्कालीन एमएलए किशोर कुमार ‘मुन्ना’ ने बनवाया है. कार्यक्रमों के लिए सरकार से कोई ग्रांट नहीं लेते हैं. इस आयोजन में मेला भी लगता है.
ऐसा होता है आयोजन
स्वर्गीय केदार नारायण के पोते मुकेश कुमार सिंह ने जानकारी दी कि गांव के बड़े-बुजुर्ग बताते हैं, जब यहां आयोजन होता था, तो दूर-दराज से लोग बैलगाड़ी पर बकरलिया का नृत्य देखने आते थे. वह अपने कपड़ों और चोटी बांधने के लिए लोगों में प्रसिद्ध था. लोक नाट्य परिषद के संरक्षक राघवेन्द्र नारायण सिंह व अध्यक्ष डॉ सत्येन्द्र नारायण सिंह ने बताया कि इस आयोजन में लगभग 500 लोग एक साथ बैठ कर आयोजन देखते हैं. हैरानी की बात यह है कि यहां रात भर महिलाएं भी कार्यक्रम का लुत्फ उठाती हैं. पुरुष और महिलाओं के बैठने की जगह अलग होती है. साथ बैठे होने के कारण कोई भी अभद्र व्यवहार नहीं करता. यह इस जगह की खासियत है.
हे छठी मइया !
गंगा मइया को बचाने के लिए नायक दो
माना जाता है कि तब पाताल लोक में पानी ही पानी ही था. पूरी तरह जलमग्न. लोग पानी के हाहाकार को देख डरे-सहमे रहते थे. उस समय के मुख्य देवता सूर्य थे. उनसे लोगों ने अपना कष्ट बताया. सूर्य ने पाताल लोक के पानी को सोख लिया. उससे उन्होंने पर्वत बनाये. बादल और पानी बनाया. आज की भाषा में पानी का ‘री-साइकल’ किया गया. यह कहानी जल और जीवन के साथ सूर्य का रिश्ता बताती है. साल में दो ऐसे खास दिन होते हैं जब सूर्य से पाराबैगनी किरणें निकलती हैं. मकर संक्रांति और छठ ये खास दिन हैं.

दीपावली में हम घरों की सफाई करते हैं. छठ में जलाशयों, ताल-तलैयों को साफ करने की परंपरा रही है, ताकि साफ-सुथरे पानी में खड़े होकर हम षष्ठी तिथि को सूर्य को अर्घ दे सकें. लेकिन दुख होता है कि नदियों का पानी साफ नहीं रहा. नदियां प्रदूषित हो चुकी हैं. तालाब हैं नहीं. तालाबाों को तो भर कर हमने घर बना लिये. छठ के लिए नदियों-तालाबों का होना अपरिहार्य है. हमारे जीवन से ये निकल जायें, तो क्या बचेगा? जरूरी है कि छठ और सूर्य के लिए नदियों को बचाया जाये. तालाब-पोखर बचाये जायें.

इतिहासकार रामशरण शर्मा ने बताया है कि किस तरह 1857 में इस्ट इंडिया कंपनी (प्रतिनिध विल्सन) ने टिहरी के इलाके को लीज पर हासिल कर लिया था. तभी से हिमालय के सफाये की परियोजना चल रही है. आजाद भारत में भी यह सिलसिला नहीं थमा. अब तो उससे भी बड़ी और खतरनाक परियोजनाओं पर काम चल रहा है. हिमालय क्षेत्र में दो सौ झील बनाने का प्रस्ताव है. इससे गंगा सहित दूसरी नदियों का हाल और खराब होगा. पर हम गंगा को बचाने की बात कर रहे हैं. पटना में गंगा का हाल क्या है, यह सबको पता है. बीमारी की जांच सही हो रही है. लेकिन उसका इलाज गलत हो रहा है.

मेरी समझ है कि नदियों का जो हमने हाल कर दिया है, वह छठ का घोर अपमान है. छठ की जो विरासत और परंपरा रही है, हम आज उसके विरुद्ध आचरण कर रहे हैं. किसी वक्त पानी को सूर्य देवता ले गये थे. उन्होंने उसे परिष्कृत कर हमारे बीच आने दिया था. आज बिजली कंपनियां उस पानी को ले जा रही हैं और उसे गंदा कर हमें दे रही हैं. कोई दूसरी कंपनी गंदे पानी को साफ करने का ठेका लेगी. यही सब हो रहा है. हम बड़े निर्माण की ओर बढ़ रहे हैं. पर यह नहीं बता रहे कि इसके लिए गिट्टी कहां से लायेंगे. रेत कहां से लायेंगे? निश्चय ही पहाड़ साफ होंगे. नदियां बरबाद करेंगे. मैंने देखा है कि कन्नौज से ठीक पहले जहां रामगंगा और काली नदी (कालिंदी) मिलती है, वहां गंगा की स्थिति भयावह हो गयी है. नाले का पानी उसमें गिर रहा है.

छठ नैतिकता और संयम का व्रत है. किसी भी विकासमान संस्कृति के तीन आधार होते हैं. परंपरा, आधुनिकता और उसकी भाषा. गौर से देखा जाये तो हर चीज को हम उत्सवधर्मिता में बदल रहे हैं. इससे उसकी मूल बातों पर चोट पहुंच रही है. परंपरा को आधुनिक भाषा-शैली में परोसा जा रहा है. यह बाजार का जीवन में प्रवेश है.

इसे मैं भयानक सांस्कृतिक हमले के तौर पर महसूस करता हूं. जिस बद्रिकाश्रम में शंख नहीं बजता था, ताकि उससे किसी का तप भंग न हो, वहां आज की तारीख में हेलीकॉप्टर उतारे जा रहे हैं.
पेरिस : एक साथ जुट कर मनाते हैं छठ
अभी अमेरिका से पेरिस लौट रहा हूं. छठ न होता तो अभी कुछ दिन और यहां ठहरता. पर छठ को लेकर यहा रुकना थोड़ा मुश्किल हो रहा है. इसलिए पेरिस लौट रहा हूं और रास्ते से ही आपको इसके बारे में लिख रहा हूं.

पेरिस में कई लोग बिहार के हैं और हिंदुस्तान के दूसरे राज्यों से भी. हम सब एक-दूसरे को जानते हैं. उनके पर्व-त्योहार में शामिल होते हैं. हम पोंगल में शामिल होते हैं तो दक्षिण भारतीय हमारे मित्र छठ पर ठकुआ का प्रसाद लेना नहीं भूलते. हमारी पत्नी सविता बिहार की अन्य परिवारों की महिलाओं के साथ छठ करती हैं. पर यह भी सच है कि जिस तरह बिहार में हमलोग छठ कर पाते हैं, वैसा यहां नहीं हो पाता. पर हम इसे करना नहीं छोड़ेंगे. यह हमारी परंपरा और सामाजिक रूप से जड़ों को मजबूत करने वाला पर्व है. फ्रांस सहित दूसरे मुल्कों के कई दोस्त भारतीय संस्कृति के बारे में जानने को उतावले रहते हैं. हमें खुशी होती है कि वे हमारी परंपराओं को हमारे जरिये काफी करीब से देख पा रहे हैं. वे हिंदुस्तान के बारे में बहुत कुछ नहीं जानते हैं. जितना जानते हैं, उसमें तरह-तरह की धारणाओं का हिस्सा ज्यादा होता है. छठ में कोसी भरने के लिए ईख जरूरी है. पेरिस में छठ में इस्तेमाल होनेवाले लगभग सारे सामान मिल जाते हैं. पर दूसरे शहरों में यह सब मिलना मुश्किल है. दूसरे शहरों में रहने वाले बिहार के लोग पेरिस आकर ईख खरीदते हैं. हम पेरिस में हैं, तो सभी सामान मिल जाते हैं. हमारे यहां, बिहार में स्कूलों में छुट्टी होगी. सरकारी-निजी दफ्तरों में भी. पर पेरिस में कोई छुट्टी नहीं है. इसलिए हमें काम और पर्व के बीच समय को लेकर प्रबंधन करना पड़ा है. इस तरह की कठिनाइयों के बावजूद छठ से हमारा अटूट जुड़ाव बना हुआ है. फ्रांस में रह रहे तमाम बिहारियों के लिए यह नहीं छूटनेवाला पर्व है.

हम यहां यू-ट्यूब से छठ गीत सुनते हैं. लेकिन छठ घाट पर महिलाएं जिस तरह गाती हैं, वह बात इसमें नहीं बन पाती है. इसकी कसक तो हमेशा रहती है.
(बक्सर के निवासी. पेरिस में रोबोटिक साइंस पर काम कर रहे हैं.)
वाशिंगटन : पोटोेमैक नदी के किनारे अर्घ्य
भगवान सूर्य की उपासना का यह महापर्व देश के बाहर भी मनाया जाता है. मॉरीशस, सूरीनाम के अलावा ब्रिटेन और अमेरिका सहित अन्य देशों में भी जाकर बसे लोग वहां इस त्योहार को उल्लास के साथ मना रहे हैं.
अपने देश के इस महापर्व को सात समंदर पार अमेरिका की राजधानी वॉशिंगटन लेकर आनेवाले कृपाशंकर सिंह, पेशे से सॉफ्टवेयर इंजीनियर हैं. मूल रूप से पटना के रहनेवाले कृपाशंकर, अमेरिकी राजधानी के उपनगर में ऐतिहासिक पोटोमैक नदी के किनारे छठ मनाते हैं. कृपाशंकर सिंह भारतीय मूल के अन्य लोगों के साथ पिछले आठ वर्षों से पोटोमैक नदी के किनारे छठ मनाते आ रहे हैं. कृपाशंकर बताते हैं, प्रशासन से अनुमति लेने के बाद जब हमने यहां पूजा शुरू की थी, तब हमारे साथ इक्का-दुक्का लोग होते थे. लेकिन, बीते दो-तीन वर्षों से हमारे साथ छठ पूजा में शामिल होने के लिए कई लोग तो मीलों दूर से आ रहे हैं.

वह आगे बताते हैं, पोटोमैक नदी के घाट पर पिछले साल छठ महापर्व मनाने के लिए जुटे लगभग 300 लोगों में फ्लोरिडा, वर्जीनिया, मेरीलैंड, न्यूयॉर्क और न्यूजर्सी के लोग शामिल थे. वह कहते हैं, कुछ महिलाएं तो भारत से भी आयीं थीं. श्रद्धा के अलावा उनके मन में यह कौतूहल था कि अमेरिका में छठ पर्व मनाया कैसे जाता है! पिछले वर्ष के छठ पर्व आयोजन की तसवीर दिखाते हुए कृपाशंकर बताते हैं कि पारंपरिक साड़ी पहने उनकी पत्नी अनिता सिंह के साथ नौ अन्य महिलाएं अर्घ्य देने के लिए पोटोमैक नदी के सर्द पानी में कैसे उतरीं थीं.
कृपाशंकर सिंह अपने दल-बल के साथ इस बार भी छठ पूजा के लिए तैयार हैं. वह बताते हैं, साल दर साल पूजा में अपने लोगों की भागीदारी बढ़ती जा रही है. छठ के लिए कई परिवार सैकड़ों मील दूर से आकर होटल में ठहरते और यहां पूजा में शामिल होते हैं. यू-ट्यूब के जरिये शारदा सिन्हा के गाये छठ पूजा के सदाबहार गीत हमारे यहां भी बजते हैं, जिनसे मंत्रमुग्ध होकर पटना और पोटोमैक के बीच के अंतर का पता ही नहीं चलता़ सब कुछ उसी तरह होता है, जैसे बिहार के गांवों में हमलोग छठ मनाते रहे हैं. ग्रेटर वॉशिंगटन मेट्रोपॉलिटन एरिया में भारतीय अमेरिकी समुदाय के प्रतिनिधि सिंह बताते हैं कि यह हमारे धार्मिक त्योहारों को परदेस में जिंदा रखने की हमारी कोशिश है. यह बताता है कि हमारी विरासत और परंपराएं कितनी मजबूत हैं. यह लगातार विस्तार पा रहा है.
बदलता दौर
अब तो न जांत है, न गीत
वैसे तो छठ का प्रभाव देश के दूसरे हिस्सों में भी दिखता है, पर इसका मूल बिहार से जुड़ा माना जाता है. छठ से जुड़ी कई लोककथाएं त्रेतायुगीन घटनाओं पर आधारित हैं. इससे स्पष्ट होता है कि बिहारी समाज में छठ की परंपरा अत्यंत पुरानी है. लेकिन, आज छठ व्रत का जो स्वरूप सामने है, वह काफी बदला हुआ है.

तीन-चार दशक पहले छठ का जो माहौल होता था, वह आज के माहौल से बिल्कुल मेल नहीं खाता. कह सकते हैं कि तब और अब में वैसा फासला दिख रहा है, जैसे धरती और आसमान के बीच की दूरी. उस दौर की कई चीजें हमसे काफी दूर हो गयी हैं. अब तो छठ के लिए जांत की कोई बात ही नहीं होती. छठ के गीतों के साथ हमारी महिलाओं के सुरीले कंठ अब कहां गूंजते हैं?
1940, 50 व 60 के दशक में छठ व्रत के आयोजनों के गवाह बने लोग आज की चीजें देख विचलित हो जाते हैं. तब छठ की तैयारी करीब 15-20 दिन या कहें कि महीनेभर पहले ही शुरू हो जाती थी. कई दिन पहले गेहूं धोने-सुखाने का काम शुरू होता था. इस क्रम में कोई अवांछित व्यक्ति उसे न छू दे, इसका खास ध्यान रखा जाता था. पक्षियों से भी बचाने के लिए धूप में सूखते गेहूं की निरंतर पहरेदारी होती थी.
छठ की तैयारी के तहत ऊपरोक्त तमाम प्रक्रियाओं में एक चीज काफी कॉमन थी. वह यह कि चाहे घर लीपा-पोता जा रहा हो, या गेहूं सुखाने अथवा पिसने का काम हो रहा हो, महिलाएं छठ के बेहद कर्णप्रिय गीत गाकर अद्भुत माहौल बना देती थीं.

अब तो छठ का आटा छठ के दिन ही प्लास्टिक पैक में खरीदा जाता है. गीतों के भी कैसेट्स, सीडी, चिप्स और न जाने क्या-क्या बाजार में उपलब्ध हैं. गीतों के लिए महिलाओं की जगह यू-ट्यूब ने ले ली है. आज किसी भी चीज के लिए लोग खुद से प्रयास करते नहीं दिखते. कहीं कोई उत्सुकता नहीं. क्योंकि, बाजार ने सबका विकल्प अपने घेरे में ले रखा है और हम बाजार के भरोसे रह गये हैं.
यादों में छठ
परदेसियों के लौटने से गांव हो जाता था गुलजार
छठ हमारे लिए पर्व ही नहीं, बल्कि हमारे जीवन का ऊर्जा स्त्रोत है. विश्वास का आधार है. मेरी बहन काफी बीमार रहा करती थी. बहुत इलाज कराया. मां ने मनौती मांग ली. वह भी चैती छठ की. कई सालों तक मेरी मां श्रीमती बुटना देवी चैती छठ करती रहीं.

छठ में दूसरी बड़ी बात जो उभर कर सामने आती है, वह है उल्लास का. इस पर्व के दौरान गांव में खास तरह का उछाह रहता है. यह आम जीवन से कहीं खो रहा है. पर छठ में वह उल्लास दिखता है. रोजगार के लिए बाहर गये लोग छठ और होली जैसे पर्वों पर आना नहीं भूलते. बचपन में सबसे अधिक खुशी हमें भी हमारे बाबूजी (श्री हरेश्वर गोप) का इस अवसर पर गांव आने से ही होता था. वे पश्चिम बंगाल के रानीगंज कोयलांचल में कार्यरत थे. उनके घर आने से जो खुशी मिलती थी, वह अनमोल थी. हमारे मोहल्ले के कई परिवारों के लोग जो बाहर कमाने गये थे, उनके आने से गांव गुलजार हो जाता था. फिर शाम को गवनई-बजनई होता, तो सुबह घाट जाने के समय ही बंद होता. पर परिवर्तन के इस दौर में अब बहुत कम लोग ही परदेस से गांव आते हैं, जो जहां हैं, वहीं मनाते हैं. गवनई-बजनई की संस्कृति को टीवी व रिकार्डिंग डांस ने छीन लिया. फिर भी खुशी होती है कि हमारे बच्चों व ग्रामीणों के पर्व को मनाने के उत्साह में कोई कमी नहीं आयी.

हमारी कोशिश रहती है कि अपने पूरे परिवार के साथ इस पर्व का सेलिब्रेट करें. अभी तक एक बार दिल्ली और दूसरी बार विदेश दौरे के कारण इस पर्व को हम परिवार के साथ नहीं मना सके.
रामेश्वर गोप
गायक
सांस्कृतिक कार्यक्रम की 83 साल पुरानी परंपरा कायम
मिथिला की एक परंपरा थी. दीवाली से लेकर छठ तक हर रात सांस्कृतिक कार्यक्रम हर बड़े गांव में करवाया जाता था. अब यह परंपरा खत्म होने के कगार पर है. हालांकि कुछ जगहों पर अब भी इस परंपरा को बचा कर रखा गया है.

ऐसा ही गांव है- सहरसा जिले के सोनवर्षा का सहसौल. सहसौल में पिछले 83 सालों से लगातार दीवाली से लेकर छठ तक सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित किया जाता है. सांस्कृतिक कार्यक्रम आपसी सहयोग से होता है.
ऐसे हुई थी शुरुआत : 83 साल पहले 1934 में स्वर्गीय केदार नारायण सिंह ने इस परंपरा की शुरुआत की. वे एक शिल्पकार व रंगकर्मी थे. शालीन स्वभाव के धनी केदार नारायण सिंह ने काली मूर्ति की स्थापना की. काली जी की मूर्ति जब तक मंदिर में रहती, तब तक उसके ठीक सामने कार्यक्रम का आयोजन होता. कार्यक्रम में नाटक को प्राथमिकता दी जाती थी.

नाटक के अलावा लोकनृत्य और लोक गायन का कार्यक्रम पूरी रात होता था. सांस्कृतिक कार्यक्रम का आयोजन बेहतर रूप से हो, इसलिए उन्होंने लोक नाट्य परिषद की नींव भी डाली. उनके इस काम में उनके बड़े भाई शारदा प्रसाद सिंह काफी मदद करते थे. आज तक इस परंपरा को उनके वंशज पूरा करते आ रहे हैं.
मोइन आजाद
चाइना वार के वक्त सोल्जर्स के लिए भेजी सहायता राशि
लोक कला परिषद सामाजिक सेवा में भी तत्पर तैयार रहती है. 1962 में हुए चाइना वार के वक्त भारतीय फौजियों की सहायता के लिए सभी सदस्यों ने आपसी सहयोग के जरिये प्रधानमंत्री कोष में अच्छी खासी रकम भेजी थी. इसके अलावा आज तक लोक नाट्य परिषद के सदस्य आपसी सहयोग के जरिये लोगों की मदद करते आ रहे हैं. यह सामूहिकता की मिसाल है.

बनते हैं मेंबर, उठाते हैं खर्च
लोक नाट्य परिषद से जुड़ने वालों को 100 या 150 रुपये सहायता राशि देनी होती है. हर साल कार्यक्रम के वक्त मेंबर्स जुड़ते हैं. कार्यक्रम का आयोजन आपसी सहयोग से होता है. राकेश कुमार सिंह बताते हैं कि इस परिषद का मंच तत्कालीन एमएलए किशोर कुमार ‘मुन्ना’ ने बनवाया है. कार्यक्रमों के लिए सरकार से कोई ग्रांट नहीं लेते हैं. इस आयोजन में मेला भी लगता है.
ऐसा होता है आयोजन
स्वर्गीय केदार नारायण के पोते मुकेश कुमार सिंह ने जानकारी दी कि गांव के बड़े-बुजुर्ग बताते हैं, जब यहां आयोजन होता था, तो दूर-दराज से लोग बैलगाड़ी पर बकरलिया का नृत्य देखने आते थे. वह अपने कपड़ों और चोटी बांधने के लिए लोगों में प्रसिद्ध था. लोक नाट्य परिषद के संरक्षक राघवेन्द्र नारायण सिंह व अध्यक्ष डॉ सत्येन्द्र नारायण सिंह ने बताया कि इस आयोजन में लगभग 500 लोग एक साथ बैठ कर आयोजन देखते हैं. हैरानी की बात यह है कि यहां रात भर महिलाएं भी कार्यक्रम का लुत्फ उठाती हैं. पुरुष और महिलाओं के बैठने की जगह अलग होती है. साथ बैठे होने के कारण कोई भी अभद्र व्यवहार नहीं करता. यह इस जगह की खासियत है.

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