दीपावली में हम घरों की सफाई करते हैं. छठ में जलाशयों, ताल-तलैयों को साफ करने की परंपरा रही है, ताकि साफ-सुथरे पानी में खड़े होकर हम षष्ठी तिथि को सूर्य को अर्घ दे सकें. लेकिन दुख होता है कि नदियों का पानी साफ नहीं रहा. नदियां प्रदूषित हो चुकी हैं. तालाब हैं नहीं. तालाबाों को तो भर कर हमने घर बना लिये. छठ के लिए नदियों-तालाबों का होना अपरिहार्य है. हमारे जीवन से ये निकल जायें, तो क्या बचेगा? जरूरी है कि छठ और सूर्य के लिए नदियों को बचाया जाये. तालाब-पोखर बचाये जायें.
इतिहासकार रामशरण शर्मा ने बताया है कि किस तरह 1857 में इस्ट इंडिया कंपनी (प्रतिनिध विल्सन) ने टिहरी के इलाके को लीज पर हासिल कर लिया था. तभी से हिमालय के सफाये की परियोजना चल रही है. आजाद भारत में भी यह सिलसिला नहीं थमा. अब तो उससे भी बड़ी और खतरनाक परियोजनाओं पर काम चल रहा है. हिमालय क्षेत्र में दो सौ झील बनाने का प्रस्ताव है. इससे गंगा सहित दूसरी नदियों का हाल और खराब होगा. पर हम गंगा को बचाने की बात कर रहे हैं. पटना में गंगा का हाल क्या है, यह सबको पता है. बीमारी की जांच सही हो रही है. लेकिन उसका इलाज गलत हो रहा है.
मेरी समझ है कि नदियों का जो हमने हाल कर दिया है, वह छठ का घोर अपमान है. छठ की जो विरासत और परंपरा रही है, हम आज उसके विरुद्ध आचरण कर रहे हैं. किसी वक्त पानी को सूर्य देवता ले गये थे. उन्होंने उसे परिष्कृत कर हमारे बीच आने दिया था. आज बिजली कंपनियां उस पानी को ले जा रही हैं और उसे गंदा कर हमें दे रही हैं. कोई दूसरी कंपनी गंदे पानी को साफ करने का ठेका लेगी. यही सब हो रहा है. हम बड़े निर्माण की ओर बढ़ रहे हैं. पर यह नहीं बता रहे कि इसके लिए गिट्टी कहां से लायेंगे. रेत कहां से लायेंगे? निश्चय ही पहाड़ साफ होंगे. नदियां बरबाद करेंगे. मैंने देखा है कि कन्नौज से ठीक पहले जहां रामगंगा और काली नदी (कालिंदी) मिलती है, वहां गंगा की स्थिति भयावह हो गयी है. नाले का पानी उसमें गिर रहा है.
छठ नैतिकता और संयम का व्रत है. किसी भी विकासमान संस्कृति के तीन आधार होते हैं. परंपरा, आधुनिकता और उसकी भाषा. गौर से देखा जाये तो हर चीज को हम उत्सवधर्मिता में बदल रहे हैं. इससे उसकी मूल बातों पर चोट पहुंच रही है. परंपरा को आधुनिक भाषा-शैली में परोसा जा रहा है. यह बाजार का जीवन में प्रवेश है.
इसे मैं भयानक सांस्कृतिक हमले के तौर पर महसूस करता हूं. जिस बद्रिकाश्रम में शंख नहीं बजता था, ताकि उससे किसी का तप भंग न हो, वहां आज की तारीख में हेलीकॉप्टर उतारे जा रहे हैं.
पेरिस में कई लोग बिहार के हैं और हिंदुस्तान के दूसरे राज्यों से भी. हम सब एक-दूसरे को जानते हैं. उनके पर्व-त्योहार में शामिल होते हैं. हम पोंगल में शामिल होते हैं तो दक्षिण भारतीय हमारे मित्र छठ पर ठकुआ का प्रसाद लेना नहीं भूलते. हमारी पत्नी सविता बिहार की अन्य परिवारों की महिलाओं के साथ छठ करती हैं. पर यह भी सच है कि जिस तरह बिहार में हमलोग छठ कर पाते हैं, वैसा यहां नहीं हो पाता. पर हम इसे करना नहीं छोड़ेंगे. यह हमारी परंपरा और सामाजिक रूप से जड़ों को मजबूत करने वाला पर्व है. फ्रांस सहित दूसरे मुल्कों के कई दोस्त भारतीय संस्कृति के बारे में जानने को उतावले रहते हैं. हमें खुशी होती है कि वे हमारी परंपराओं को हमारे जरिये काफी करीब से देख पा रहे हैं. वे हिंदुस्तान के बारे में बहुत कुछ नहीं जानते हैं. जितना जानते हैं, उसमें तरह-तरह की धारणाओं का हिस्सा ज्यादा होता है.
हम यहां यू-ट्यूब से छठ गीत सुनते हैं. लेकिन छठ घाट पर महिलाएं जिस तरह गाती हैं, वह बात इसमें नहीं बन पाती है. इसकी कसक तो हमेशा रहती है.
वह आगे बताते हैं, पोटोमैक नदी के घाट पर पिछले साल छठ महापर्व मनाने के लिए जुटे लगभग 300 लोगों में फ्लोरिडा, वर्जीनिया, मेरीलैंड, न्यूयॉर्क और न्यूजर्सी के लोग शामिल थे. वह कहते हैं, कुछ महिलाएं तो भारत से भी आयीं थीं. श्रद्धा के अलावा उनके मन में यह कौतूहल था कि अमेरिका में छठ पर्व मनाया कैसे जाता है! पिछले वर्ष के छठ पर्व आयोजन की तसवीर दिखाते हुए कृपाशंकर बताते हैं कि पारंपरिक साड़ी पहने उनकी पत्नी अनिता सिंह के साथ नौ अन्य महिलाएं अर्घ्य देने के लिए पोटोमैक नदी के सर्द पानी में कैसे उतरीं थीं.
तीन-चार दशक पहले छठ का जो माहौल होता था, वह आज के माहौल से बिल्कुल मेल नहीं खाता. कह सकते हैं कि तब और अब में वैसा फासला दिख रहा है, जैसे धरती और आसमान के बीच की दूरी. उस दौर की कई चीजें हमसे काफी दूर हो गयी हैं. अब तो छठ के लिए जांत की कोई बात ही नहीं होती. छठ के गीतों के साथ हमारी महिलाओं के सुरीले कंठ अब कहां गूंजते हैं?
अब तो छठ का आटा छठ के दिन ही प्लास्टिक पैक में खरीदा जाता है. गीतों के भी कैसेट्स, सीडी, चिप्स और न जाने क्या-क्या बाजार में उपलब्ध हैं. गीतों के लिए महिलाओं की जगह यू-ट्यूब ने ले ली है. आज किसी भी चीज के लिए लोग खुद से प्रयास करते नहीं दिखते. कहीं कोई उत्सुकता नहीं. क्योंकि, बाजार ने सबका विकल्प अपने घेरे में ले रखा है और हम बाजार के भरोसे रह गये हैं.
छठ में दूसरी बड़ी बात जो उभर कर सामने आती है, वह है उल्लास का. इस पर्व के दौरान गांव में खास तरह का उछाह रहता है. यह आम जीवन से कहीं खो रहा है. पर छठ में वह उल्लास दिखता है. रोजगार के लिए बाहर गये लोग छठ और होली जैसे पर्वों पर आना नहीं भूलते. बचपन में सबसे अधिक खुशी हमें भी हमारे बाबूजी (श्री हरेश्वर गोप) का इस अवसर पर गांव आने से ही होता था. वे पश्चिम बंगाल के रानीगंज कोयलांचल में कार्यरत थे. उनके घर आने से जो खुशी मिलती थी, वह अनमोल थी. हमारे मोहल्ले के कई परिवारों के लोग जो बाहर कमाने गये थे, उनके आने से गांव गुलजार हो जाता था. फिर शाम को गवनई-बजनई होता, तो सुबह घाट जाने के समय ही बंद होता. पर परिवर्तन के इस दौर में अब बहुत कम लोग ही परदेस से गांव आते हैं, जो जहां हैं, वहीं मनाते हैं. गवनई-बजनई की संस्कृति को टीवी व रिकार्डिंग डांस ने छीन लिया. फिर भी खुशी होती है कि हमारे बच्चों व ग्रामीणों के पर्व को मनाने के उत्साह में कोई कमी नहीं आयी.
हमारी कोशिश रहती है कि अपने पूरे परिवार के साथ इस पर्व का सेलिब्रेट करें. अभी तक एक बार दिल्ली और दूसरी बार विदेश दौरे के कारण इस पर्व को हम परिवार के साथ नहीं मना सके.
ऐसा ही गांव है- सहरसा जिले के सोनवर्षा का सहसौल. सहसौल में पिछले 83 सालों से लगातार दीवाली से लेकर छठ तक सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित किया जाता है. सांस्कृतिक कार्यक्रम आपसी सहयोग से होता है.
नाटक के अलावा लोकनृत्य और लोक गायन का कार्यक्रम पूरी रात होता था. सांस्कृतिक कार्यक्रम का आयोजन बेहतर रूप से हो, इसलिए उन्होंने लोक नाट्य परिषद की नींव भी डाली. उनके इस काम में उनके बड़े भाई शारदा प्रसाद सिंह काफी मदद करते थे. आज तक इस परंपरा को उनके वंशज पूरा करते आ रहे हैं.
दीपावली में हम घरों की सफाई करते हैं. छठ में जलाशयों, ताल-तलैयों को साफ करने की परंपरा रही है, ताकि साफ-सुथरे पानी में खड़े होकर हम षष्ठी तिथि को सूर्य को अर्घ दे सकें. लेकिन दुख होता है कि नदियों का पानी साफ नहीं रहा. नदियां प्रदूषित हो चुकी हैं. तालाब हैं नहीं. तालाबाों को तो भर कर हमने घर बना लिये. छठ के लिए नदियों-तालाबों का होना अपरिहार्य है. हमारे जीवन से ये निकल जायें, तो क्या बचेगा? जरूरी है कि छठ और सूर्य के लिए नदियों को बचाया जाये. तालाब-पोखर बचाये जायें.
इतिहासकार रामशरण शर्मा ने बताया है कि किस तरह 1857 में इस्ट इंडिया कंपनी (प्रतिनिध विल्सन) ने टिहरी के इलाके को लीज पर हासिल कर लिया था. तभी से हिमालय के सफाये की परियोजना चल रही है. आजाद भारत में भी यह सिलसिला नहीं थमा. अब तो उससे भी बड़ी और खतरनाक परियोजनाओं पर काम चल रहा है. हिमालय क्षेत्र में दो सौ झील बनाने का प्रस्ताव है. इससे गंगा सहित दूसरी नदियों का हाल और खराब होगा. पर हम गंगा को बचाने की बात कर रहे हैं. पटना में गंगा का हाल क्या है, यह सबको पता है. बीमारी की जांच सही हो रही है. लेकिन उसका इलाज गलत हो रहा है.
मेरी समझ है कि नदियों का जो हमने हाल कर दिया है, वह छठ का घोर अपमान है. छठ की जो विरासत और परंपरा रही है, हम आज उसके विरुद्ध आचरण कर रहे हैं. किसी वक्त पानी को सूर्य देवता ले गये थे. उन्होंने उसे परिष्कृत कर हमारे बीच आने दिया था. आज बिजली कंपनियां उस पानी को ले जा रही हैं और उसे गंदा कर हमें दे रही हैं. कोई दूसरी कंपनी गंदे पानी को साफ करने का ठेका लेगी. यही सब हो रहा है. हम बड़े निर्माण की ओर बढ़ रहे हैं. पर यह नहीं बता रहे कि इसके लिए गिट्टी कहां से लायेंगे. रेत कहां से लायेंगे? निश्चय ही पहाड़ साफ होंगे. नदियां बरबाद करेंगे. मैंने देखा है कि कन्नौज से ठीक पहले जहां रामगंगा और काली नदी (कालिंदी) मिलती है, वहां गंगा की स्थिति भयावह हो गयी है. नाले का पानी उसमें गिर रहा है.
छठ नैतिकता और संयम का व्रत है. किसी भी विकासमान संस्कृति के तीन आधार होते हैं. परंपरा, आधुनिकता और उसकी भाषा. गौर से देखा जाये तो हर चीज को हम उत्सवधर्मिता में बदल रहे हैं. इससे उसकी मूल बातों पर चोट पहुंच रही है. परंपरा को आधुनिक भाषा-शैली में परोसा जा रहा है. यह बाजार का जीवन में प्रवेश है.
इसे मैं भयानक सांस्कृतिक हमले के तौर पर महसूस करता हूं. जिस बद्रिकाश्रम में शंख नहीं बजता था, ताकि उससे किसी का तप भंग न हो, वहां आज की तारीख में हेलीकॉप्टर उतारे जा रहे हैं.
पेरिस में कई लोग बिहार के हैं और हिंदुस्तान के दूसरे राज्यों से भी. हम सब एक-दूसरे को जानते हैं. उनके पर्व-त्योहार में शामिल होते हैं. हम पोंगल में शामिल होते हैं तो दक्षिण भारतीय हमारे मित्र छठ पर ठकुआ का प्रसाद लेना नहीं भूलते. हमारी पत्नी सविता बिहार की अन्य परिवारों की महिलाओं के साथ छठ करती हैं. पर यह भी सच है कि जिस तरह बिहार में हमलोग छठ कर पाते हैं, वैसा यहां नहीं हो पाता. पर हम इसे करना नहीं छोड़ेंगे. यह हमारी परंपरा और सामाजिक रूप से जड़ों को मजबूत करने वाला पर्व है. फ्रांस सहित दूसरे मुल्कों के कई दोस्त भारतीय संस्कृति के बारे में जानने को उतावले रहते हैं. हमें खुशी होती है कि वे हमारी परंपराओं को हमारे जरिये काफी करीब से देख पा रहे हैं. वे हिंदुस्तान के बारे में बहुत कुछ नहीं जानते हैं. जितना जानते हैं, उसमें तरह-तरह की धारणाओं का हिस्सा ज्यादा होता है. छठ में कोसी भरने के लिए ईख जरूरी है. पेरिस में छठ में इस्तेमाल होनेवाले लगभग सारे सामान मिल जाते हैं. पर दूसरे शहरों में यह सब मिलना मुश्किल है. दूसरे शहरों में रहने वाले बिहार के लोग पेरिस आकर ईख खरीदते हैं. हम पेरिस में हैं, तो सभी सामान मिल जाते हैं. हमारे यहां, बिहार में स्कूलों में छुट्टी होगी. सरकारी-निजी दफ्तरों में भी. पर पेरिस में कोई छुट्टी नहीं है. इसलिए हमें काम और पर्व के बीच समय को लेकर प्रबंधन करना पड़ा है. इस तरह की कठिनाइयों के बावजूद छठ से हमारा अटूट जुड़ाव बना हुआ है. फ्रांस में रह रहे तमाम बिहारियों के लिए यह नहीं छूटनेवाला पर्व है.
हम यहां यू-ट्यूब से छठ गीत सुनते हैं. लेकिन छठ घाट पर महिलाएं जिस तरह गाती हैं, वह बात इसमें नहीं बन पाती है. इसकी कसक तो हमेशा रहती है.
वह आगे बताते हैं, पोटोमैक नदी के घाट पर पिछले साल छठ महापर्व मनाने के लिए जुटे लगभग 300 लोगों में फ्लोरिडा, वर्जीनिया, मेरीलैंड, न्यूयॉर्क और न्यूजर्सी के लोग शामिल थे. वह कहते हैं, कुछ महिलाएं तो भारत से भी आयीं थीं. श्रद्धा के अलावा उनके मन में यह कौतूहल था कि अमेरिका में छठ पर्व मनाया कैसे जाता है! पिछले वर्ष के छठ पर्व आयोजन की तसवीर दिखाते हुए कृपाशंकर बताते हैं कि पारंपरिक साड़ी पहने उनकी पत्नी अनिता सिंह के साथ नौ अन्य महिलाएं अर्घ्य देने के लिए पोटोमैक नदी के सर्द पानी में कैसे उतरीं थीं.
तीन-चार दशक पहले छठ का जो माहौल होता था, वह आज के माहौल से बिल्कुल मेल नहीं खाता. कह सकते हैं कि तब और अब में वैसा फासला दिख रहा है, जैसे धरती और आसमान के बीच की दूरी. उस दौर की कई चीजें हमसे काफी दूर हो गयी हैं. अब तो छठ के लिए जांत की कोई बात ही नहीं होती. छठ के गीतों के साथ हमारी महिलाओं के सुरीले कंठ अब कहां गूंजते हैं?
अब तो छठ का आटा छठ के दिन ही प्लास्टिक पैक में खरीदा जाता है. गीतों के भी कैसेट्स, सीडी, चिप्स और न जाने क्या-क्या बाजार में उपलब्ध हैं. गीतों के लिए महिलाओं की जगह यू-ट्यूब ने ले ली है. आज किसी भी चीज के लिए लोग खुद से प्रयास करते नहीं दिखते. कहीं कोई उत्सुकता नहीं. क्योंकि, बाजार ने सबका विकल्प अपने घेरे में ले रखा है और हम बाजार के भरोसे रह गये हैं.
छठ में दूसरी बड़ी बात जो उभर कर सामने आती है, वह है उल्लास का. इस पर्व के दौरान गांव में खास तरह का उछाह रहता है. यह आम जीवन से कहीं खो रहा है. पर छठ में वह उल्लास दिखता है. रोजगार के लिए बाहर गये लोग छठ और होली जैसे पर्वों पर आना नहीं भूलते. बचपन में सबसे अधिक खुशी हमें भी हमारे बाबूजी (श्री हरेश्वर गोप) का इस अवसर पर गांव आने से ही होता था. वे पश्चिम बंगाल के रानीगंज कोयलांचल में कार्यरत थे. उनके घर आने से जो खुशी मिलती थी, वह अनमोल थी. हमारे मोहल्ले के कई परिवारों के लोग जो बाहर कमाने गये थे, उनके आने से गांव गुलजार हो जाता था. फिर शाम को गवनई-बजनई होता, तो सुबह घाट जाने के समय ही बंद होता. पर परिवर्तन के इस दौर में अब बहुत कम लोग ही परदेस से गांव आते हैं, जो जहां हैं, वहीं मनाते हैं. गवनई-बजनई की संस्कृति को टीवी व रिकार्डिंग डांस ने छीन लिया. फिर भी खुशी होती है कि हमारे बच्चों व ग्रामीणों के पर्व को मनाने के उत्साह में कोई कमी नहीं आयी.
हमारी कोशिश रहती है कि अपने पूरे परिवार के साथ इस पर्व का सेलिब्रेट करें. अभी तक एक बार दिल्ली और दूसरी बार विदेश दौरे के कारण इस पर्व को हम परिवार के साथ नहीं मना सके.
ऐसा ही गांव है- सहरसा जिले के सोनवर्षा का सहसौल. सहसौल में पिछले 83 सालों से लगातार दीवाली से लेकर छठ तक सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित किया जाता है. सांस्कृतिक कार्यक्रम आपसी सहयोग से होता है.
नाटक के अलावा लोकनृत्य और लोक गायन का कार्यक्रम पूरी रात होता था. सांस्कृतिक कार्यक्रम का आयोजन बेहतर रूप से हो, इसलिए उन्होंने लोक नाट्य परिषद की नींव भी डाली. उनके इस काम में उनके बड़े भाई शारदा प्रसाद सिंह काफी मदद करते थे. आज तक इस परंपरा को उनके वंशज पूरा करते आ रहे हैं.