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हूल दिवस : युगांतरकारी रहे हैं संताल विद्रोह के नतीजे!
उमेश कुमार किसी भी जनविद्रोह की सार्थकता उसके नतीजों से परखी जाती है. इस लिहाज से ‘संताल-विद्रोह’ के नतीजे युगांतरकारी कहे जा सकते हैं. हालांकि, अंग्रेजी शासकों के हितचिंतकों ने बाद में जिस लेखन-सामग्री का निर्माण किया, उसमें संतालों की राष्ट्रीय भावनाओं को दरकिनार कर उन्हें हिंसात्मक कार्यों का अगुआ तथा महाजनी शोषण के विरुद्ध […]
उमेश कुमार
किसी भी जनविद्रोह की सार्थकता उसके नतीजों से परखी जाती है. इस लिहाज से ‘संताल-विद्रोह’ के नतीजे युगांतरकारी कहे जा सकते हैं.
हालांकि, अंग्रेजी शासकों के हितचिंतकों ने बाद में जिस लेखन-सामग्री का निर्माण किया, उसमें संतालों की राष्ट्रीय भावनाओं को दरकिनार कर उन्हें हिंसात्मक कार्यों का अगुआ तथा महाजनी शोषण के विरुद्ध उठे एक सीमित वर्ग वाले विद्रोही के रूप में चिह्नित करने पर ही अधिक ध्यान दिया.
पर, सच तो यह है कि महाजनी शोषण तथा अंग्रेजी शासन की अमानवीय नीतियों ने एक साथ ही संतालों को बगावत करने पर विवश कर दिया था. एक साल बाद के गदर (1857) की तरह ही यह एक राजनीतिक क्रांति थी, जिसमें बगावत के शोले संतालों के अंतर्मन से निकले थे.
यह विद्रोह स्थानीय इस लिहाज से नहीं था, क्योंकि छह माह से ज्यादा समय तक इसने अंग्रेजी हुकूमत को प्रत्यक्ष चुनौती दी. इस विशाल जनविद्रोह को दबाने में कलकत्ता, बरहमपुर, सिउड़ी, रानीगंज, पूर्णियां, मुंगेर, पटना और पश्चिम बंगाल का उत्तरी क्षेत्र जो ‘राढ़’ कहलाता है, के अधिकारियों और सैनिकों को रात-दिन चौकस रहना पड़ा. संताल परगना के तेली, कुम्हार, ग्वाला, लोहार, कुर्मी, मोमिन, डोम, चमार जैसी जातियों ने संताल-क्रांतिकारियों को शुरू से आखिर तक अपना हरसंभव सहयोग दिया. ‘संताल हूल’ की एक बड़ी विशेषता उसका वह साझापन था, जिसमें सामाजिक समानता पूरी तरह बनी रही. सरना, मुसलमानों एवं हिन्दुओं ने मिलकर अपराजेय शक्ति बनायी.
आदिवासी समाज की यह चेतना एक सेकुलर मिजाज की पूर्व पीठिका थी, जिसके नतीजे आगे चलकर ‘बिरसा उलगुलान’ में पूरे सैद्धांतिक तत्व के साथ प्रकट हुए. दरअसल, ‘हूल’ के नतीजों ने भारतीय स्वतंत्रता-संग्राम की पृष्ठभूमि तैयार की. डाॅ रामविलास शर्मा ने अपनी पुस्तक ‘1857 की क्रांति और मार्क्सवाद’ में इसकी विस्तार से विवेचना की है.
यह ‘हूल’ का असर ही था कि इसके नतीजों को एक दिशा मिली. एक्ट 34/1855 द्वारा ‘संताल परगना’ नामक एक ‘नन रेगुलेटेड ‘ जिले का निर्माण हुआ. संतालों को विशेष सुविधाएं मुहैया कराने के नाम पर इसे एक ‘बहिर्गत क्षेत्र’ घोषित कर दिया गया. संताल बहुल क्षेत्र को भागलपुर और वीरभूम से अलग कर ‘संताल परगना’ नामक एक भिन्न जिला बनाया गया. इसमें देवघर, दुमका, गोड्डा और राजमहल नामक चार अनुमंडल कायम किये गये. यहां एक उपायुक्त एवं चार सहायक उपायुक्तों को दीवानी तथा फौजदारी अधिकार के साथ नियुक्त किया गया.
अधिनियम 37 निर्मित कर इस क्षेत्र को साधारण नियमों तथा विनियमों से पृथक कर दिया गया. जिले के प्रथम उपायुक्त आस्ले इडेन ने पुलिस नियमों को तैयार किया और ये नियम भागलपुर के आयुक्त जार्ज यूल के नाम पर ‘यूल के नियम’ से जाने गये. इनका उद्देश्य संताली ग्राम के मुखिया ‘मांझी’ को पुलिस शक्तियां प्रदान करना था, जिसका प्रयोग वे अपने गांव में वहां के चौकीदार की सहायता से कर सकते थे.
संताल परगना में ईसाई मिशनरियों का धुआंधार प्रवेश और प्रचार-कार्य ‘हूल’ का एक अहम नतीजा माना जाता है. नये धर्म में दीक्षित लोग सरकार के विश्वासपात्र माने जाने लगे.
इस दौरान बड़े सुनियोजित तरीके से सिदो-कान्हू जैसे जननायकों की निंदा की गयी. पर, इतने षड्यंत्रों के बाद भी ‘हूल’ के संदेश निरर्थक साबित नहीं हुए. ये संदेश अग्रसर होकर संताल परगना में ‘साफा होड़’ अर्थात सुधारवादी संतालों के अहिंसक आंदोलन के रूप में भारतीय स्वतंत्रता-संग्राम की मुख्यधारा में मुखरित हुए.
सचिव, झारखंड शोध संस्थान, देवघर
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