विक्रमादित्य
बसंत का मौसम तो हर साल आता है, पर चुनाव का मौसम तो सभी मौसम का बाप होता है. इसकी गुनगुनी हवा के सामने फगुनाहट पानी भरे और इसकी लू से लजा कर चैत बैसाख की धूप हरिद्वार जाकर गंगा में डुबकी लगाये.
मतलब अगर कोई एक जबरदस्त मौसम है, तो वह है चुनाव का मौसम. पुराने चुनावी मौसम को याद कर अब भी दिल तड़प उठता है. चुनाव की घोषणा हुई नहीं कि पार्टियों के उम्मीदवारों के भंडारे खुल जाते थे. हम बैसाख नंदन वोटरों के हेल्थ इसी मौसम में बनते थे. यहां सुबह की जलेबी-कचौड़ी, तो वहां शाम का नाश्ता पानी. अब इससे अच्छे दिन क्या हो सकते थे.
हमारे मुहल्ले के सभी परिवारों के मुखिया का गणित और वाणिज्य इसी मौसम में मजबूत होता था. बड़े मोल-तोल के बाद प्रति वोटर 20 रुपये में मामले तय होते थे. घर-घर में लक्ष्मी की आकस्मिक कृपा टपक पड़ती थी और वोटर को यह एहसास होता था कि 10-20 रुपये ही सही लेकिन हमारी भी कुछ कीमत जनतंत्र में है. वैसे बूथ कैप्चर करने वाले दस्तों का मुंहमांगा दाम होता था. पियक्कड़ों को नोट और अपने अपनी औकात के हिसाब से पौआ, अद्धा से लेकर रम वगैरह भी मिलते थे.
क्या मौज-मस्ती रहती थी. कई लोग बोगस वोटिंग करने की अघोषित प्रतियोगिता में शामिल होकर अपनी शेखी बघारते मिलते थे. घर-घर से मोटर गाड़ी, रिक्शा पर वोटरों को ससम्मान बैठा कर बूथों तक ले जाया जाता था. वापस पहुंचाने की कोई जिम्मेदारी नहीं होती थी. मतदाता अपने सम्मान से अघा जाते थे. गांव से लेकर शहर तक चुनावी नारों से गुंजायमान रहते थे. नेता ताल ठोक कर कहते थे कि बैलेट बॉक्स से जिन्न निकलेगा और सचमुच जिन्न निकलते थे. शहर भर की दीवारें पोस्टरों से ढंकी रहती थीं. उसी तरह अपने लोकतंत्र की आबरू भी.
अब न जाने शेषण साहब की नजर उन अच्छे दिनों पर कैसे लग गयी. दीवारों से पोस्टर हट गये और हमारे लोकतंत्र की बदसूरती दिखने लगी. भंडारे बंद, जलेबी- पूरी बंद, दारू-शराब बंद ,भोंपू मोटर बंद. राजनैतिक पार्टियों और उम्मीदवारों का सारा इतिहास-भूगोल ही उल्टा-पुल्टा होने लगा. मत पेटियों से निकलने वाले जिन्न-जिन्नात, पार्टियों के कोल्ड स्टोरेज में जा बैठे और इवीएम आ टपका.
इधर, जब कुछ पार्टियों ने इवीएम हटा कर बैलेट बॉक्स की मांग की, तो लगा कि अच्छे दिन बहुरेंगे. पर लगता है कि चुनाव आयोग पर अभी भी शेषण का भूत सवार है. बिना भोंपू-टोंपू के इस महा मौसम के आने का पता नहीं चलता. पोस्टर विहीन जनतंत्र की दीवारें अच्छी नहीं लगती. चुनावी चक्कलस रहा ही नहीं. सोशल मीडिया से भला मन कहां भरेगा. उस चीर हरण का तो मजा ही कुछ और था.
लेखक झारखंड उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश हैं