बहादुर उरांव ने रास्ता दिखाया वीर भारत तलवार आजकल देश में बढ़ती असहिष्णुता और साम्प्रदायिकता के खिलाफ केन्द्र सरकार की निष्क्रियता और प्रधानमंत्री की चुप्पी के खिलाफ लेखकों, कलाकारों, वैज्ञानिकों और बुद्धिजीवियों द्वारा पुरस्कार और सम्मान लौटाने की लहर चली है़ रविवार को झारखंड में एक एेसी घटना घटी जो इससे मिलती जुलती लेकिन अलग है़ यह घटना है 75 साल के बुजुर्ग झारखंडी नेता बहादुर उरांव द्वारा सम्मान वापसी की़ 22 नवम्बर को रांची में विधानसभा के स्थापना दिवस पर झारखंड के पूर्व आन्दोलनकारियों के सम्मान समारोह में झारखंड मुक्ति मोर्चा के पूर्व विधायक बहादुर उरांव ने मंच पर ही सम्मान लेने से इनकार कर दिया़ उन्होंने न सिर्फ प्रशस्तिपत्र बल्कि हजारों रुपए का चेक लेने से भी इनकार किया़ राज्य सरकार के प्रति अपने विरोध को प्रकट करते हुए वहीं पर उन्होंने एक पत्र विधानसभा के स्पीकर, मुख्यमंत्री, राज्यपाल और अन्य उपस्थित गणमान्य नेताओं को दिया़ इसमें उन्होंने झारखंड राज्य की मांग करनेवाले आन्दोलनकारियों के उन सपनों का उल्लेख किया जिन्हें झारखंड की किसी भी सरकार ने पूरा करने की कभी गंभीर कोशिश नहीं की़ बहादुर उरांव ने पत्र में लिखा है कि झारखंड राज्य की मांग जिन उद्देश्यों के लिए की गयी थी, उन उद्देश्याें से यह राज्य बहुत पहले ही भटक गया़ सरकारें आती और जाती रहीं, लेकिन उन आदर्शों की किसी भी सरकार ने परवाह नहीं की़ झारखंड में जो भी सत्ता में आया वह लूटने और खाने–कमाने में ही लगा रहा़ झारखंड की खनिज सम्पदा और संसाधनों को लुटाता रहा़ झारखंड बनने के बाद से झारखंड के राजनीतिक इतिहास की यह एक अभूतपूर्व घटना है़ जो लोग बहादुर उरांव को जानते हैं, उन्हें मालूम है कि वह कितनी गरीबी के बीच से उठे जनप्रतिनिधि हैं जो अपनी ईमानदारी, निष्ठा और संघर्षशील जुझारू व्यक्तित्व के लिए जाने जाते हैं. वह 1990 से 1995 तक चकरधरपुर क्षेत्र से बिहार विधानसभा के सदस्य रहे़ इसके पहले वह चकरधरपुर में एक वामपंथी कार्यकर्ता के रूप मेें रेल मजदूरों के आन्दोलन से जुड़े रहे़ वह झारखंड अलग राज्य आन्दोलन में सबसे अगली कतार के नेताओं में शामिल थे़ गुआ गोलीकांड के दौरान अपनी जान पर खेलकर उन्होंनें अपनी भूमिका निभायी और अपने दो छोटे बेटों को खो दिया़ इस सम्मान वापसी द्वारा बहादुर उरांव ने झारखंड की राजनीति में एक नया रास्ता दिखाया है़ आज हम पतन के ऐसे गर्त में गिर गये हैं कि राजनीति का मतलब राज्य के संसाधनों को लुटाकर सिर्फ खाना–कमाना हो गया है़ एमएलए, एमपी और मंत्री बनने का यही एकमात्र उद्देश्य रह गया है़ समाज में राजनीतिक वर्ग का इतना पतन पहले कभी नहीं हुआ था़ ऐसे समय में बहादुर उरांव ने राजनीति को एक नया अर्थ देने का प्रयास किया है़ सम्मान वापसी के जरिये उन्होंने जो सवाल उठाया है, वह बहुत महत्वपूर्ण है़ झारखंड की स्थापना हुई थी आदिवासियों के हितों और अधिकारों की रक्षा के लिए़ बिरसा मुंडा और सिदो कान्हू के क्रांतिकारी संघर्षों के फलस्वरूप आदिवासियों की जमीन की रक्षा के लिए अंग्रेज सरकार ने बिहार काश्तकारी अधिनियम और संताल परगना काश्तकारी अधिनियम बनाया था, लेकिन झारखंड राज्य की स्थापना के बाद से ही यहां की सरकारों ने इस अधिनियम को खत्म करने, बदलने और इसे ढीला करने का विचार आैर प्रयत्न शुरू कर दिया़ झारखंड की जनता के साथ इससे बढ़कर गद्दारी और क्या हो सकती है? इस कानून के रहते हुए भी रांची का सारा नक्शा बदल गया है़ आदिवासियों की सारी जमीन और खेत पर देखते देखते गैरआदिवासियों के मकान, कॉलोनियां और विभिन्न व्यापारिक कम्पनियों की बिल्डिंग खड़ी हो गयी हैं. बहादुर उरांव ने सवाल उठाया है कि एेसा क्यों और कैसे हुआ? एेसे तमाम सवाल जो बहादुर उरांव ने अपने पत्र में उठाया हैं उन सवालों को सामने रखकर विचार–विमर्श किया जाना चाहिए़ आज ये गंभीर सवाल झारखंड की राजनीति के केन्द्र में होने चाहिए़ बहादुर उरांव द्वारा सम्मान वापसी और उठाए गए सवाल झारखंड की राजनीति को एक नयी दिशा दे सकते हैं, बशर्ते झारखंड के दूसरे विधायक और मंत्री इनपर गंभीरता से सोंचे और एक बार अपनी आत्मा को टटोलें. कम से कम झारखंड के युवा वर्ग और झारखंड की जनता की समस्याओं के लिए लड़ रहे तमाम कार्यकर्ताओं और नेताओं को बहादुर उरांव के इस विरोध पत्र को आधार बनाकर जनसंघर्ष की परम्परा को आगे बढ़ाना चाहिए.(लेखक जेएनयू के पूर्व प्राध्यापक हैं.)
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बहादुर उरांव ने रास्ता दिखाया
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