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,…..काली पूजा पर विशेष : गुमला के काली मां के दरबार से खाली हाथ नहीं लौटा कोई, जशपुर रोड में है मां काली की मंदिर

गुमला शहर के जशपुर रोड स्थित काली मंदिर में बिराजे काली मां के दरबार से आज तक कोई खाली हाथ नहीं लौटा है.

जगरनाथ/जॉली, गुमला

गुमला शहर के जशपुर रोड स्थित काली मंदिर में बिराजे काली मां के दरबार से आज तक कोई खाली हाथ नहीं लौटा है. यहां दिल से मांगी हर मुराद पूरी होती है. यह कहना भक्तों व पुजारी की है. बनारस, देवघर, रामेश्वर, रजरप्पा व उज्जैन की तरह यह भी शक्ति पीठ के रूप में प्रसिद्ध है. गुमला में मां काली मंदिर में मूर्ति की स्थापना 1948 में किया गया था. तब से यह हिंदुओं के लिए श्रद्धा का केंद्र बन गया. आज यहां दूर दूर से श्रद्धालु मां के दर्शन के लिए आते हैं. काली पूजा के अवसर पर यहां भक्तों की भीड़ देखते ही बनती है. ऐसे यहां हर रोज सुबह शाम भक्तों की लंबी कतार देखी जा सकती है. मंदिर के सामने से गुजरने वाला हर सख्स एकबार जरूर मां के दरबार के समक्ष सिर झुका कर गुजरता है. यहां मां काली की मूर्ति व मंदिर निर्माण की भी पुरानी कहानी है. मंदिर के पुजारी ने बताया कि स्वतंत्रता सेनानी स्वर्गीय गंगा महाराज ने यहां सबसे पहले खपड़ानुमा मंदिर में मां काली की मूर्ति स्थापित किये थे. उसके बाद 1970 में मंदिर का निर्माण हुआ. यहां मां काली के अलावा भगवान शिव व अन्य देवी देवताओं की मूर्ति है. जानकारी के अनुसार अंग्रेजों से बचने के लिए 1945 में गंगा महाराज गुमला आ गये. वे रायडीह प्रखंड के कांसीर गांव में बस गये. अभी जो काली मंदिर के समीप से गुजरने वाली नदी पर पुल है. उस समय पुल नहीं था. नदी से पार करके लोग आते जाते थे. गंगा महाराज अपने कुछ साथियों के साथ 35 किमी पैदल चलकर हर रोज कांसीर से गुमला आते थे और नदी के किनारे पूजा पाठ करते थे. उसी समय उनके मन में मां काली की मूर्ति स्थापित करने का मन आया. कुछ लोगों के सहयोग से उन्होंने मां काली की मूर्ति स्थापित किये और यहां पूजा पाठ करने लगे. मंदिर के सबसे पुराने पुजारी गंगा महाराज थे.

परंपरा : दीपावली में लाल रंग की मुर्गा की बलि देने की प्रथा है

गुमला में दीपावली पर्व अपनी अलग विशेषता के साथ मनाये जाने की परंपरा रही है. वैसे तो मूल रूप से पूरा कार्तिक माह और विशेष कर दीपावली से लेकर छठ पर्व तक का समय शाकाहार को समर्पित है. परंतु गुमला जिला के ग्रामीण क्षेत्रों में दीपावली की अमावस्या को सोहराय पर्व के रूप में मनाया जाता है. इस दिन रात को लाल रंग के मुर्गा की बलि दी जाती है. ऐसा माना जाता है कि अमावस्या की रात इष्ट देव को बलि पंसद है. इसलिए ग्रामीण क्षेत्र में लोग अपने देवता को खुश करने के लिए मुर्गे की बलि देकर सालभर के लिए सुख शांति की कामना करते हैं. ऐसी मान्यता है कि इष्ट देव को खुश करने के लिए गोहार में ही बलि दिया जाता है और घर के मुखिया जो बलि देते हैं. वही उस मुर्गा का सेवन भी करते हैं. ऐसा करने से घर में लक्ष्मी की वास होती है. ऐसा माना जाता है. यह पंरपरा लंबे वर्षो से चली आ रही है.

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