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Giridih News :बंद हो गया फागुन गीत गाते टोलियां के निकलने का सिलसिला

Giridih News :होली के दिन दिल खिल जाते हैं, रंगों में रंग मिल जाते हैं...याद कीजिए गांवों और कस्बों की वह होली जिसमें चौपाल लगाती थी और शाम से देर रात तक ढोल-मजीरों के साथ फागुन के गीत गाये जाते थे. यह उत्सव कई सप्ताह एक चलता था. भक्ति से साथ लोकगीतों से फिजां में मस्ती छा जाती थी. होली के दिन तो फागुन के गीतों को गाते हुए कई टोलियां गांवों और कस्बों में निकलती थी. रंग–गुलाल से खुद भी सराबोर होते हुए एक-दूसरे के साथ मिलकर होली खेलते थे. लेकिन यह सब अब देखते देखते ना जाने कहां गायब हो गया है.

होली के दिन दिल खिल जाते हैं, रंगों में रंग मिल जाते हैं…याद कीजिए गांवों और कस्बों की वह होली जिसमें चौपाल लगाती थी और शाम से देर रात तक ढोल-मजीरों के साथ फागुन के गीत गाये जाते थे. यह उत्सव कई सप्ताह एक चलता था. भक्ति से साथ लोकगीतों से फिजां में मस्ती छा जाती थी. होली के दिन तो फागुन के गीतों को गाते हुए कई टोलियां गांवों और कस्बों में निकलती थी. रंग–गुलाल से खुद भी सराबोर होते हुए एक-दूसरे के साथ मिलकर होली खेलते थे. लेकिन यह सब अब देखते देखते ना जाने कहां गायब हो गया है. रंगोत्सव तो आज भी लोग मनाते हैं, लेकिन इसमें पहले जैसी बात नहीं रही. आधुनिकता ने समाज का दायरा छोटा कर दिया है और पुरानी परंपराएं समाप्त होती जा रही हैं. कितना अच्छा लगता था, जब सभी साथ में बैठकर एक साथ फगुआ गाकर ना सिर्फ मनोरंजन करते थे, बल्कि आपसी प्रेम भी बढ़ाते थे. फागुन में श्याम खेले होली, सोना के मंदिरवा में चांदी लगल केवाड़, कान्हा तने सारी दुनिया दर्शनवा दीं जैसे धार्मिक गीतों के स्थान पर अब अश्लील गीतों की बाढ़ आ गयी है. जोगिरा सारारारा, वाह भाई वाह, सुनने को तो अब लोग तरस जाते हैं. परंपरागत होली गीत कानों से दूर हो चुके हैं. अव वे दिन केवल यादों में ही रह गये हैं जब सभी साथ में बैठकर एक साथ फगुआ गीत गाकरन सिर्फ मनोरंजन करते थे, बल्कि अपना प्रेम भी बढ़ाते थे. फागुन में राम लक्ष्मण खेले होली, सिमराही रहो आदि गणेश ठाकुर पोती में पहले लिखे, चांदी के मंदिर बने सोना के लगल फाटक जैसे धार्मिक गीतों के जगह पर अश्लील गीतों को बढ़ावा दिया जा रहा है. जब लोग जोगीरा सारारा के रस भरे गीत लोग सुनते ही घर से निकाल जाते थे. अब जागीर सरारारा लोग सुनने काे तरस गए हैं.

नहीं बदला खानपान, पकवान बनाने की परंपरा है कायम

होली में कई चीजें बदल गयी हैं. अभी तक अगर कुछ नहीं बदली है तो वह है खान पान की परंपरा. आज भी होली में पुआ पकवान हर घर में जरूर बनते हैं. हां समय के साथ इसमें कुछ और सामग्रियों को लोग जोड़ते जा रहे हैं लेकिन परंपरागत पकवान आज भी लोगों की पसंद है.

समाज को एक सूत्र में बांधती है होलीहोली समाज को एक सूत्र में बांधती है. ग्रामीण ज्योतिषाचार्य राहुल पंडा, शिक्षक रतन सिंह, डॉ राजेश दूबे, संदीप वर्मा, रोहित राम, शिक्षाविद बासुदेव पंडा गोविंद वर्मा, समाज सेवी कैलाश यादव, पंकज यादव, गुजर सिंह, संदीप सिंह आदि ने बताया कि होली पर्व के कई लाभ हैं. यह समाज जो जाति, धर्म और संप्रदाय का भाव छोड़ रहने का संदेश देता है. पर्व में दुश्मनी भुलाकर दोस्त बन जाते हैं. जोर जोर से गीत गाने पर शरीर के विकार निकलते हैं.

नई पीढ़ी फगुआ गीतों से अनभिज्ञ, गानों वालों की भी हुई कमीफागुन के परंपरागत गीतों से युवा पीढ़ी अनभिज्ञ है. एक जमाना था जब लोग घर–घर जाकर फगुआ गाकर आपस में गले मिलते थे. दूर–दूर से लोग चौपाल में आकर फाग का आनंद लेते थे. सब कुछ समय के साथ बदल गया है. बसंत पंचमी के बाद से ही जगह जगह फाग गीतों के लिए अलग से व्यवस्था की जाती थी. लोग शाम ढलते ही ढोल नगाड़े लेकर घरों से निकलने लगते थे. एक साथ मिल बैठकर स्वस्थ पारंपरिक गीतों की ऐसी महफिल जमती थी कि राह चलने वाले भी कुछ पल ठहरकर इस मस्ती भरे पल का आनंद लेते थे. स्थानीय ग्रामीण मनोज पांडेय, वरुण कुमार साव, रंजीत कुमार, नितेश कुमार, हुलास राम, दासो राम ने कहा कि 30 साल पहले गांव में कई स्थानों पर फाग गाने वालों की महफिल सजती थी, लेकिन वक्त के साथ–साथ महफिलों की संख्या कम होने लगी है. आधुनिकता की चकाचौंध और बाजारवादी संस्कृति की वजह से फाग गायन की परंपरा अब सिमटकर रह गयी है.

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