प्रतिनिधि बड़हरिया. चुनावों में प्रचार के तौर तरीक़े बदल गये हैं. चुनाव प्रचार हाइटेक हो गया है. एक दौर ऐसा भी था, जब पांच साल में एक बार गांव वालों के चारपहिया वाहन के दर्शन होते थे. वह भी नेता जी की गाड़ी मेन रोड से गुजरती हुई गुजर जाती थी. गांव में घुसती तक नहीं थी. नेताजी की जीप की आवाज चुनाव की आहट थी. गांव-गंवई के बुजुर्गों के जेहन में आज ही पुराने दौर के चुनाव व चुनाव प्रचार का तौर-तरीका ताजा है. बुजुर्ग पारस शर्मा के अनुसार जब पेट्रोल से चलने वाली जीप चुनाव प्रचार करती हुई सड़क से गुजरती थे तो गांव के युवा व बच्चे दो कारणों से रोड पर जाते थे. एक तो उन्हें चुनाव प्रचार वाला पर्चा लूटना होता था यानी जब गाड़ी से पंपलेट फेंके जाते थे तो उन्हें दौड़कर कलेक्ट कर लेना होता था. जो जितना पर्चा लूट लेता था, वह उतना ही काबिल व होशियार समझा जाता था. ग्रामीण सुदर्शन सिंह बचपन में यानी 70 के दशक में होने वाले चुनाव की दास्तां सुनाते हुए कहते हैं कि जनता पहले से ज्यादा जागरूक हुई है व जनप्रतिनिधि चुनने में अपने विवेक का इस्तेमाल कर रही है. कहते हैं कि पहले से लोकतंत्र मजबूत हुआ है. वोट की अहमियत बढ़ी है और जनता की ताकत भी. 70 के दशक में नेताजी की गाड़ी गांव में नहीं घुसती थी. नेताजी कुछ चुनिन्दा लोगों से बात कर वापस लौट जाते थे और चुनिंदा लोगों को वोटिंग के दिन यह कहते हुए बूथ पर हांक देते थे कि फलां छाप पर वोट देना है. लेकिन आज नेताजी को गरीब की झोपड़ी तक आने का जहमत उठाना पड़ता है. समाजविद् भगरासन यादव कहते हैं कि चुनाव में आमजन की बढ़ी अहमियत से लोकतंत्र में निखार आया है. संचार के माध्यमों के बढ़ने से पार्टियों की नीतियों को जानने-समझने का बेहतर मौका मिल रहा है. डॉ मिथिलेश सिंह कहते हैं कि ऐसे तमाम तब्दीलियों के बावजूद एक समानता जरुर है कि पहले भी देश में एक नेता विशेष के नाम पर वोट गिरता था व आज भी एक नेता विशेष के नाम पर वोटिंग हो रही है. इस मामले में 76-77 साल गुजर जाने के बावजूद इस पैटर्न में कोई तब्दीली नहीं आयी है.
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