Battle of Buxar: बक्सर की लड़ाई को अक्सर सैन्य दृष्टि से देखा गया, जैसे यह सिर्फ एक और सत्ता परिवर्तन था. असल में, यह भारत के इतिहास का वह निर्णायक मोड़ था, जिसने ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी को पहली बार भारत पर राज करने का कानूनी, आर्थिक और प्रशासनिक अधिकार दिया. इस युद्ध के बाद 1765 में इलाहाबाद संधि हुई और बंगाल, बिहार और उड़ीसा की दीवानी कंपनी को सौंप दी गई. इस संधि के पांच साल बाद 1770 का बंगाल अकाल इस विजय का पहला रक्तरंजित अध्याय बना. जब कंपनी के अधिकारी कर वसूली में इतने निर्दयी थे कि लोग भूख से मरते रहे,लेकिन लगान घटा नहीं.खेत सूख गए और गांव के गांव उजड़ गए.
यह कहना गलत नहीं होगा कि बक्सर की लड़ाई ने सिर्फ एक राजा नहीं, बल्कि भारत की स्वतंत्र आर्थिक धुरी को गिरा दिया और उसके साथ ही शुरू हुआ वह दौर, जिसे इतिहास ने “कंपनी राज” कहा, पर जनता ने “कंगाली का राज” महसूस किया.
प्लासी से बक्सर तक, सत्ता की सीढ़ियों पर अंग्रेजों का चढ़ना
1757 की प्लासी की लड़ाई अक्सर अंग्रेजी सत्ता की शुरुआत के प्रतीक के रूप में याद की जाती है. सिराजुद्दौला की हार ने कंपनी को बंगाल की राजनीति में दखल का दरवाजा खोल दिया.लेकिन असली “राज” की शुरुआत प्लासी से नहीं, बक्सर से हुई. इतिहासकार मैलिसन अपनी किताब The Decisive Battles of India में लिखते हैं –
“भारत में ब्रिटिश सत्ता की स्थापना का श्रेय प्लासी से अधिक बक्सर को है.”
दरअसल, प्लासी में अंग्रेजों ने छल और षड्यंत्र से जीत हासिल की थी, जबकि बक्सर में वह युद्धभूमि पर लड़े और जीते. इस जीत ने उन्हें सिर्फ बंगाल नहीं, बल्कि अवध और दिल्ली तक राजनीतिक प्रभाव का अधिकार दे दिया.
इतिहासकार के. के. दत्त और आर. सी. मजूमदार दोनों मानते हैं – प्लासी ने अंग्रेजों को “पांव रखने की जगह दी”, पर बक्सर ने उन्हें “राज करने की ताकत दी. प्लासी छल से जीती गई थी, बक्सर युद्धभूमि में जीता गया था. प्लासी से कंपनी बंगाल की राजनीति में दाखिल हुई. बक्सर से वह भारत की सर्वोच्च सत्ता की वारिस बन गई.
कब और क्यों हुआ था बक्सर का युद्ध?
बक्सर का युद्ध 22 अक्टूबर 1764 को नेपाल की सीमा से सटे बिहार के बक्सर के मैदान में ब्रिटिश सेना और संयुक्त भारतीय सेना के बीच हुआ. इस युद्ध का नेतृत्व मेजर हेक्टर मुनरो ने किया, जबकि भारतीय पक्ष की कमान मीर कासिम, अवध के नवाब शुजाउद्दौला और मुगल सम्राट शाह आलम द्वितीय ने संभाली. यह युद्ध उस समय की राजनीतिक अस्थिरता, व्यापार के दमनकारी नियम और सत्ता की आपसी खींचतान का परिणाम था. यह लड़ाई भारतीय इतिहास में एक महत्वपूर्ण टर्निंग प्वाइंट है, जिसमें ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने अपने सैन्य कौशल का प्रदर्शन किया. यह युद्ध, प्लासी की लड़ाई के बाद, भारत में ब्रिटिश सत्ता की स्थापना का दूसरा बड़ा कदम सिद्ध हुआ.

बक्सर का युद्ध ब्रिटिश व्यापार और राजनीतिक विस्तार की प्रतिक्रिया थी. 1760 में वांडीवाश की लड़ाई में ब्रिटिशों ने फ्रांसीसियों को परास्त किया, तो उनके पास भारत में पकड़ मजबूत हो गई. इसके बाद, बंगाल के नवाब मीर जाफर और बंगाल के नए नवाब मीर कासिम के बीच व्यापार और सत्ता को लेकर अनेक टकराव हुए. मीर कासिम ने अपने प्रशासन में सुधार करते हुए बंगाल के अराजकता और भ्रष्टाचार को दूर किया. उसने अपने खजाने को मजबूत किया, सेना का आधुनिकीकरण किया और बंगाल की आर्थिक स्थिति को सुधारा. उसने अपना नया राजधानी मुंगेर बनाया और वहां गोला-बारूद और हथियार बनाने की फैक्ट्री भी स्थापित की.
इस सबसे बड़े कदम का विरोध ब्रिटिश व्यापारियों और उनके कर ने शुरू कर दिया. मीर कासिम की नजर में अंग्रेजों का फायदा उसकी प्रगति को रोकने का एक रास्ता था. उसने अपने व्यापारियों को विदेशी व्यापार से बाहर कर दिया. ब्रिटिश ब्रोकरेज पर प्रतिबंध लगाया और भारतीय प्रत्याशियों को सशक्त किया. इस कदम से अंग्रेजों का व्यापार और प्रभाव खतरे में पड़ गया, जिसने उनके स्वार्थों को आहत कर दिया.
असल में, 1717 के मुगल फरमान के तहत अंग्रेज व्यापारी समुद्री व्यापार में करमुक्त थे. लेकिन वे इस अधिकार का दुरुपयोग कर आंतरिक व्यापार भी बिना कर चुकाए करने लगे. कंपनी के अधिकारी चुंगी और टैक्स नहीं देते थे, जबकि भारतीय व्यापारी हर मोड़ पर कर चुकाते थे इसका नतीजा हुआ स्थानीय व्यापार ठप और उद्योग चौपट.
जब मीर कासिम ने इसे रोकने की कोशिश की और समान व्यापार नीति लागू की. यानी “सब व्यापारी समान कर देंगे या कोई नहीं देगा” तो अंग्रेजों के विशेषाधिकार को सीधी चुनौती मिल गई. अंग्रेज नाराज हुए, और इस सुधार को “विद्रोह” का नाम दे दिया गया. कंपनी के तत्कालीन गवर्नर वेंसिटार्ट ने खुद माना था —
“कंपनी के अफसर जनता और अफसरों पर अत्याचार कर रहे हैं. वे अपने झंडे तानकर सरकार की सत्ता को पैरों तले रौंदते हैं.”
पटना हत्याकांड और युद्ध की ज्वाला
जब अंग्रेजों ने मीर कासिम के विरोध में फिर से मीरजाफर को नवाब बनाने की साजिश रची, तो नवाब ने हथियार उठा लिए. मीर कासिम ने अंग्रेज अफसर एलिस और लगभग 200 अंग्रेज सैनिकों को पकड़कर मार डालने का आदेश दिया — यह घटना इतिहास में पटना हत्याकांड के नाम से जानी जाती है.
कंपनी ने मीर कासिम के खिलाफ सेनाएं भेजीं. मीर कासिम ने अवध के नवाब शुजाउद्दौला और मुगल बादशाह शाह आलम द्वितीय के साथ गठबंधन किया. तीनों की संयुक्त सेना बक्सर में डटी और वहीं हुआ वह निर्णायक युद्ध. जो इतिहास में बक्सर की लड़ाई के नाम से दर्ज है.

23 अक्टूबर 1764, बक्सर (वर्तमान बिहार). कंपनी की सेना की कमान मेजर हेक्टर मुनरो के हाथों में थी. दूसरी तरफ, लगभग 40,000 सैनिकों की संयुक्त भारतीय सेना थी. मीर कासिम और शुजाउद्दौला ने पूरी ताकत से मुकाबला किया, लेकिन अंग्रेज़ों के आधुनिक हथियार, अनुशासित फौज और रणनीतिक अनुशासन के सामने भारतीय सेना टिक नहीं सकी.
मात्र एक दिन में युद्ध का फैसला हो गया. मुगल सम्राट शाह आलम द्वितीय अंग्रेजों के शिविर में चले गए, शुजाउद्दौला अवध लौटकर हार मान गए और मीर कासिम भागते-भागते दिल्ली के पास दरिद्रता में मरे.
इतिहासकारों का मानना है —
“बक्सर की लड़ाई वह बिंदु थी, जहां भारतीय सत्ता की रीढ़ टूट गई और विदेशी सत्ता ने पूरी तरह कब्जा जमा लिया.”
बक्सर की जीत के बाद कंपनी को तीनों प्रांतों — बंगाल, बिहार और उड़ीसा — की दीवानी (राजस्व वसूलने का अधिकार) मिल गया. 1765 में इलाहाबाद संधि के तहत शाह आलम द्वितीय ने यह अधिकार कंपनी को सौंप दिया.
अब अंग्रेज सिर्फ व्यापारी नहीं रहे, बल्कि भारत के पहले “कॉर्पोरेट शासक” बन गए. 1769 से 1770 के बीच इसी कंपनी राज में बंगाल का भीषण अकाल पड़ा, जिसमें करीब एक करोड़ लोग मारे गए. कंपनी के राजस्व अधिकारी कर वसूलते रहे, जबकि किसान भूख से तड़प-तड़पकर मरते रहे. अकबर के शासनकाल में जो बंगाल “भारत का अनाजघर” था, वह अब “भूख का प्रदेश” बन गया.
क्लाइव की वापसी और लूट की मशीन बनता बंगाल
बक्सर के बाद बंगाल में अराजकता फैल गई. कंपनी के अफसर खुलेआम रिश्वत, करचोरी और व्यापार में मनमानी करने लगे. 1765 में क्लाइव दोबारा भारत लौटा और बंगाल का गवर्नर बना. उसे खुद यह देखकर झटका लगा कि—
“अराजकता, अव्यवस्था, भ्रष्टाचार और शोषण का ऐसा दृश्य मैंने न किसी देश में देखा, न सुना.”
क्लाइव ने ‘द्वैध शासन प्रणाली’ (Dual Government) शुरू की — जिसमें कर वसूली अंग्रेजों के हाथ में थी, लेकिन प्रशासन का भार नवाबों पर छोड़ दिया गया. यही वह तंत्र था जिसने भारत में औपनिवेशिक लूट का पहला संस्थागत माडल खड़ा किया.

बक्सर की लड़ाई के महज पांच साल बाद, बंगाल ने इतिहास का सबसे बड़ा मानवीय संकट देखा. 1770 का अकाल — जिसमें जनसंख्या का लगभग एक-तिहाई हिस्सा खत्म हो गया. लोगों ने घास, पत्ते, और यहां तक कि शव तक खाए. फिर भी कंपनी ने कर वसूली में कोई छूट नहीं दी.
ब्रिटिश संसद में जब इस अत्याचार की चर्चा हुई, तो एक सांसद ने कहा था — “हमने भारत को नहीं जीता, हमने उसे निचोड़कर सूखने के लिए छोड़ दिया.”
बक्सर की लड़ाई को आज 261 साल हो चुके हैं. पर उसकी गूंज अब भी भारतीय इतिहास और चेतना में सुनाई देती है. वह सिर्फ एक ऐतिहासिक घटना नहीं, बल्कि उस दौर की याद है जब स्वार्थी व्यापारियों ने शासन का चेहरा ओढ़कर एक पूरी सभ्यता को लूटा.
मीर कासिम भले हार गए हों, लेकिन उनका संघर्ष यह याद दिलाता है कि सत्ता के केंद्रीकरण के खिलाफ आवाज उठाना कभी व्यर्थ नहीं जाता. भारत ने 1947 में ब्रिटिश सत्ता को उखाड़ फेंका, लेकिन “कंपनी राज” का प्रतीक आज भी कई रूपों में जीवित है— कभी निजी कंपनियों के रूप में, कभी विदेशी पूंजी के प्रभाव में, तो कभी आम जनता की आवाज को दरकिनार करने वाली नीतियों में.
बक्सर हमें सिखाता है — जो अपनी आर्थिक स्वतंत्रता खो देता है, वह जल्द ही राजनीतिक आजादी भी गंवा देता है.
संदर्भ
डां धनपति पाण्डेय, आधुनिक भारत का इतिहास
Asim Umair.Battle of Buxar,sumit Enterprises
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