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Friday, March 29, 2024

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जेपी सेतु के बाद अब गंगा पार का सुव्यवस्थित विकास जरूरी

सुरेंद्र किशोर राजनीतिक िवश्लेषक पटना मेट्रोपॉलिटन इलाके में पांच सेटेलाइट टाउन बसाये जाएंगे. बिहटा, नौबतपुर, फतुहा, बेलदारी चक और खुसरू पुर में राज्य सरकार जमीन का अधिग्रहण करेगी. सरकार का उद्देश्य सुव्यवस्थित ढंग से टाउन बसाने का है. यह सराहनीय कदम है. अभी तो मुख्य पटना के आसपास अव्यवस्थित ढंग से ही आबादी बस रही […]

सुरेंद्र किशोर
राजनीतिक िवश्लेषक
पटना मेट्रोपॉलिटन इलाके में पांच सेटेलाइट टाउन बसाये जाएंगे. बिहटा, नौबतपुर, फतुहा, बेलदारी चक और खुसरू पुर में राज्य सरकार जमीन का अधिग्रहण करेगी. सरकार का उद्देश्य सुव्यवस्थित ढंग से टाउन बसाने का है. यह सराहनीय कदम है.
अभी तो मुख्य पटना के आसपास अव्यवस्थित ढंग से ही आबादी बस रही है. क्योंकि वहां सरकार का कोई हस्तक्षेप नहीं है. अव्यवस्था सरकार के लिए ही एक दिन भारी परेशानी का कारण बनेगी. जेपी सेतु चालू हो जाने के बाद अभी से राज्य सरकार को इस बात पर नजर रखनी चाहिए कि सोनपुर और नयागांव के आसपास किस तरह टाउन विकसित करने का प्रयास निजी डेवलपर्स कर रहे हैं. सुव्यवस्थित है या नहीं. जेपी सेतु तो एक मिनी क्रांति है.
इससे अन्य कई बातों के साथ-साथ गंगा पार में हर तरह के विकास की संभावनाएं बढ़ गयी हैं. वहां अभी सस्ती जमीन है. कुछ लोग तो यह भी अनुमान लगा रहे हैं कि सोनपुर-नयागांव-परमानंदपुर के इलाके में दिल्ली के यमुना पार जैसे विकास की संभावना है. वह इलाका मुख्य पटना पर से आबादी का बोझ हल्का कर सकता है, यदि विकास व्यवस्थित ढंग से हो. क्या इतनी बड़ी संभावना वाले इलाके को सिर्फ निजी डेवलपर्स और बिल्डर्स के भरोसे ही छोड़ा जा सकता है? जानकार बताते हैं कि वहां पब्लिक-प्राइवेट-पार्टनरशिप से ही ठीकठाक विकास संभव है.
सरकार आवासीय भूखंड विकसित करके वितरित करे तो ढंग का विकास संभव हो पायेगा. अन्य अनेक राज्य सरकारें यह काम करती रही हैं. पटना-दीघा रेल लाइन पर सड़क में देर क्यों? मुख्य पटना पर आबादी के भारी दबाव से निरंतर जाम की स्थिति बनी रहती है. इस जाम की समस्या से निपटने के लिए कई उपाय करने होंगे. कुछ ठोस उपाय राज्य सरकार करती भी रही है.
उसके अच्छे नतीजे भी आएं हैं. पर एक खास महत्वपूर्ण सुझाव पर अमल नहीं हो पा रहा है. यह समस्या दो सरकारों के बीच असहमति के कारण है. कई साल से यह कहा जाता रहा है कि पटना-दीघा रेलवे लाइन को सड़क में बदल दिया जाये. पर इसके लिए यह जरूरी है कि केंद्र सरकार पटना-दीघा रेल लाइन की जमीन बिहार सरकार को दे दे.
इस लेन-देन की क्या शर्त होगी, इसे केंद्र और राज्य सरकार को मिलकर तय करना है. दोनों के बीच कुछ बातें होती भी रही हैं. पर सवाल है कि बात कहां जाकर अटक जाती है? जेपी सेतु के चालू हो जाने पर अब मुख्य पटना पर वाहनों को दबाव बढ़ता जायेगा. उससे निपटने के लिए पटना-दीघा रेल लाइन की जगह चौड़ी सड़क जरूरी है. क्या इस जरूरी काम को निपटाने के काम में बिहार से केंद्रीय मंत्री पटनावासियों की कोई मदद कर पाएंगे? कुछ जरूरी विकास योजनाओं को राजनीति से ऊपर रखकर देखना चाहिए.
कमलापति त्रिपाठी की एक उक्ति आज भी लागू : राहुल गांधी तो इस बार अपनी नानी से मिलने विदेश गये हैं. पर उस पर भी सवाल उठ रहा है. हालांकि नहीं उठना चाहिए. रिश्तेदारों को कोई कैसे छोड़ सकता है! पर, इसलिए भी सवाल उठ रहा है क्योंकि कांग्रेस उपाध्यक्ष कई बार पार्टी के जरूरी कामों को छोड़कर भी अघोषित कारणों से विदेश चले जाते रहे हैं. ऐसे मामले में सन 1987 की कमलापति त्रिपाठी की एक उक्ति याद आती है. कमलापति जी उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रह चुके थे. 1987 में वह कांग्रेस के वरिष्ठतम नेता थे. तब राजीव गांधी देश के प्रधानमंत्री थे. छुट्टियां मनाने का शौक राजीव गांधी को भी था.
राजीव शासन काल में 1985 में सरकारी दफ्तरों में छह दिनों की जगह पांच ही दिन काम करने का फैसला हुआ था. राजीव की कार्यशैली की चर्चा करते हुए कमलापति त्रिपाठी ने पत्रकार प्रीतीश नंदी से तब कहा था कि यह एक बड़ा देश है. बचकाने ढंग से इस देश को नहीं चलाया जा सकता. आप अमिताभ बच्चन के साथ छुट्टियां मनाने चले जाते हैं. देश चलाने का यह कोई तरीका नहीं है. यदि त्रिपाठी जी आज जीवित होते तो राहुल गांधी के बारे में क्या कहते?!
खुद के पैरों में कुल्हाड़ी ! : कांग्रेस नेता संदीप दीक्षित ने सेना प्रमुख को सड़क का गुंडा कहा और फिर माफी मांग ली. बाद में कांग्रेस पार्टी ने भी संदीप के बयान से खुद को अलग कर लिया. हालांकि कुछ लोग यह आरोप लगा रहे हैं कि इतने से ही कांग्रेस और संदीप का काम हो गया.
यानी जहां वे संदेश देना चाहते थे, वहां चला गया. पर सवाल है कि अपने वोट बैंक को संदेश भेजने के लिए सेना का इतना बड़ा अपमान? ऐसा पहली बार नहीं हुआ है. संदेश देने के उद्देश्य से इस तरह के बयान दिग्विजय सिंह और मणिशंकर अय्यर भी अकसर देते रहते हैं. उनके कुछ बयानों से भी कांग्रेस पार्टी खुद को अलग करती रहती है. लेकिन बार-बार वे उसी तरह के बयान दे देते हैं. कांग्रेस ऐसे नेताओं के सिर्फ बयानों से खुद को अलग करती है. बयान देने वालों को पार्टी से अलग कभी नहीं करती. बल्कि उल्टे ऐसे नेता हाइकमान के काफी करीबी माने जाते हैं. मणिशंकर अय्यर ने तो एक बार पाकिस्तान में बैठकर वहां के लोगों से कह दिया था कि आप लोग मोदी सरकार को हटवाते क्यों नहीं? अब भला बताइए कि पाकिस्तान के लोग तो यहां के वोटर हैं नहीं. वे कैसे हटाएंगे? पर शायद अय्यर यह जानते होंगे कि वे कैसे हटाएंगे. इसीलिए तो कहा! कांग्रेस ने मणि की उस टिप्पणी से भी खुद को अलग कर लिया था.
मणि की उस टिप्पणी को टीवी पर पूरी दुनिया ने लाइव देखा-सुना था. अब सवाल है कि ऐसे नेताओं को पाल-पोस कर कांग्रेस क्या हासिल करना चाहती है? हासिल क्या करेगी, ऐसे बयानों से तो कांग्रेस का जन समर्थन घट ही रहा है. आम जनता के बीच के कांग्रेस समर्थकों को ऐसे बयानों से दुःख होता है. देश में लोकतंत्र के मजबूत बने रहने के लिए यह जरूरी है कि कांग्रेस जैसी विपक्षी पार्टी मजबूत बने. पर उल्टे उसे कमजोर करने के काम कुछ नेतागण जाने-अनजाने करते रहते हैं. इसे ही कहते हैं अपने ही पैरों में कुल्हाड़ी मारना!
240 करोड़ के घोटाले की जांच का विरोध : हरिद्वार-बरेली एनएच के चौड़ीकरण के लिए जमीन का अधिग्रहण हुआ था. कृषि भूमि को गैर कृषि भूमि दिखाकर 20 गुना मुआवजे का भुगतान कर दिया गया.
इससे सरकारी खजाने को 240 करोड़ रुपये का चूना लगा. उत्तराखंड के भाजपायी मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत ने इस घोटाले की सीबीआइ जांच की सिफारिश की तो सड़क परिवहन मंत्रालय में तहलका मच गया. मंत्री नितिन गडकरी ने मुख्यमंत्री को गत 5 अप्रैल को लिखा कि सीबीआइ जांच से एनएचएआइ के अफसरों में पस्त हिम्मती आएगी. पर मुख्यमंत्री ने उनकी बात नहीं मानी.
इसी 14 जून को मुख्यमंत्री ने यह घोषणा कर दी कि इस घोटाले की जांच सीबीआइ करेगी. लगता है कि रावत प्रधानमंत्री मोदी की उस उक्ति के अनुसार आचरण कर रहे हैं कि न तो हम खाएंगे और न ही खाने देंगे. पर मोदी कैबिनेट के सदस्य गडकरी के बारे में क्या कहा जाए!
और अंत में : 2005 में नीतीश कुमार ने जब सत्ता संभाली थी तो अपराधियों से निपटने के लिए कुछ खास उपाय किये गये थे.
उन उपायों में दो उपाय अधिक कारगर साबित हुए थे. पुलिस आर्म्स एक्ट की दफाओं को अन्य अपराध की दफाओं से अलग करके मुकदमों की सुनवाई शुरू करवाने लगी थी. चूंकि आर्म्स एक्ट के केस में पुलिस ही गवाह होती है, इसलिए ऐसे केस में बड़े पैमाने पर अपराधियों को अदालतों से सजाएं हुई थीं. अपराधी सहम गये थे. क्या अब पुलिस यह काम पहले जैसा नहीं करती? पता नहीं.
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