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बदइंतजामी ने छीनी मिठास

बदइंतजामी ने छीनी मिठास फोटोअब पर्व के अवसर पर भी बाहर से मंगाया जा रहा गन्नाप्रतिनिधि, वारिसलीगंजकभी ईख की खेती से पटी रहने वाली वारिसलीगंज इलाके की भूमि को अब पतहुल भी मयस्सर नहीं है. एक समय था जब ईख की हरियाली ने किसानों के जीवन में ऐसा रंग पिरोया था कि इन्हें आर्थिक तौर […]

बदइंतजामी ने छीनी मिठास फोटोअब पर्व के अवसर पर भी बाहर से मंगाया जा रहा गन्नाप्रतिनिधि, वारिसलीगंजकभी ईख की खेती से पटी रहने वाली वारिसलीगंज इलाके की भूमि को अब पतहुल भी मयस्सर नहीं है. एक समय था जब ईख की हरियाली ने किसानों के जीवन में ऐसा रंग पिरोया था कि इन्हें आर्थिक तौर पर मुश्किलों का सामना नहीं करना पड़ता था. वैसे तो नहरी इलाका होने के कारण इस क्षेत्र को धान का कटोरा भी कहा जाता है. परंतु, किसान खेतों में उतने ही धान की फसल लगाते थे, जितना जरूरी होता था. बाकी खेतों में ईख ही लगाया जाता था, लेकिन स्थिति ऐसी हो गयी कि ईख की खेती सपना हो गया. अब पर्व-त्योहारों में भी लोगों को ईख बाहर से लाना पड़ता है. वर्ष 1993 में चीनी मिल बंद होने के बाद किसान ईख की खेती से मायूस होने लगी. दर्जनों एकड़ में ईख की उपज करने वाले किसान कट्ठे तक में सिमट गये हैं. बदलते परिवेश में ईख की मिठास से नयी पीढ़ी वंचित हो गयी है. कैसे खत्म हुई खेतीचीनी मिल बंद होने के कुछ वर्षों बाद भी यहां के किसानों ने ईख की खेती से नाता नहीं तोड़ा. उनके जेहन ने इस बात को कभी स्वीकार नहीं किया कि आने वाले दिनों में चीनी मिल नहीं खुलेगी. बाद के कई वर्षों तक किसान ईख की खेती से जूड़े रहे. चीनी मिल की रंगत रहने की स्थिति में किसान इस फसल की कटाई कर चीनी मिल में वजन करवा देते थे. बंद होने के बाद किसानों को ईख की खेती घाटे का सौदा होने लगी. अधिक परिश्रम से किसान परेशान दिखने लगे. पहले तो डनलप गाड़ी से ईख चीनी मिल में पहुंचाया जाता था. वहीं अनिश्चितकालीन बंद होने की दिशा में ईख कटाई के बाद पेराई कार्य भी करना पड़ता था. इसमें श्रम दोहन के साथ मुनाफा में भी कमी होने लगा. फलत: किसानों ने इस खेती से मुंह फेर लिया. नकदी फसल ईख की खेती होने से इलाके के युवाओं को पलायन भी नहीं होता था. समाज के हर तबके के लोग ईखों से ही अपने जीवन-यापन करने में लगे रहते थे. कोई कटाई व कोई ढुलायी के कार्य में लिप्त रहते थे. कुछ लोग ईख के पतहुल एकात्रित कर पूरे साल के जलावन की व्यवस्था कर लेते थे. इतना ही नहीं ईख की खेती के शुरुआती समय में इसकी कोड़ाई, सिंचाई की बात दिमाग से कोसों दूर होती थी। देवउठान पर भेंट किया जाता था ईख कार्तिक शुक्ल पक्ष एकादशी को मनाया जाने वाला देवउठान पर्व में ईख अपने संबंधियों के यहां सौगात के तौर पर भेंट किया जाता था. रिश्तेदारों को भी इस पर्व पर वारिसलीगंज क्षेत्र के ईख आने की उम्मीद लगी रहती थी. आज यहां के लोग ही इस पर्व के मौके पर सुदूरवर्ती इलाकों से ईख की खरीदारी कर पर्व मनाते हैं. बोले किसान मकनपुर के राजेंर सिंह, दौलतपुर के नवल किशोर सिंह, राजापुर के सुरेश सिंह आदि किसानों का कहना है कि ईख की खेती से इनका आत्मीय जुड़ाव था. शादी-विवाह आदि के मौके पर आर्थिक तंगी आड़े नहीं आती थी. चीनी मिल में ईख की तौल के बाद दिए गये पूरजे बतौर चेक हुआ करते थे. दुकानदार रुपये की भांति चीनी मिल के पूरजे पर भी कोई आपत्ति नहीं करते थे. ईख की खेती क्या गयी जैसे पूरे जीवन को कड़वा बना गयी.

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