औरंगाबाद ग्रामीण. औरंगाबाद के सबसे बड़े हॉस्पिटल यानी सदर अस्पताल की स्थिति में सुधार नहीं हो पा रही है. मॉडल अस्पताल का दर्जा प्राप्त सदर अस्पताल की बेहतरी के लिए किये गये तमाम दावे सिर्फ घोषणाओं तक ही सिमटकर रह गये है. 25 लाख से अधिक की आबादी वाले जिले के लोगों की स्वास्थ्य सेवा के प्रति उम्मीदें भी सदर अस्पताल पर ही टिकी होती है. वैसे अस्पताल को सुर्खियों में रहने की आदत सी बन गयी है. सिजेरियन को लेकर एक बार फिर सदर अस्पताल चर्चा में है. पिछले मार्च माह से 10 अप्रैल तक एक भी मरीज का सिजेरियन नहीं हुआ है. जबकि, सिजेरियन को लेकर विभाग के अधिकारी अपने आप को गंभीर बताते हैं. हर दिन अस्पताल से मरीज लौट रहे है. सदर अस्पताल में सिजेरियन पर ध्यान नहीं दिये जाने का फायदा निजी अस्पताल उठा रहे है. खासकर झोलाछाप डॉक्टर इसका फायदा अधिक उठा रहे है. सदर अस्पताल में सिजेरियन कराने पहुंचने वाले मरीजों के लिए मूर्च्छक चिकित्सक नहीं होने का हवाला देकर या तो रेफर कर दिया जा रहा है या उन्हें बाद में आने की बात कह लौटा दिया जा रहा है. सवाल यह उठता है कि सिजेरियन की जब आवश्यकता होती है तभी मरीज डॉक्टर की ओर रूख करता है. वैसे भी सदर अस्पताल के सिजेरियन आंकड़े सही नहीं है. किसी महीने में 20, किसी महीने में 30 तो किसी महीने में 50 सिजेरियन किये गये. यानी हर दिन एक से दो. समझा जा सकता है कि स्थिति क्या है.
बड़ी-बड़ी इमारतें सिर्फ दिखावा
सदर अस्पताल की बड़ी-बड़ी इमारतें शोभा की वस्तु बन गयी है. आज भी अस्पताल डॉक्टरों की कमी का सामना कर रहा है. खासकर अगर प्रसूता महिलाओं के प्रसव की बात आये तो डॉक्टर सिजेरियन करने से हाथ खड़े कर देते हैं. जांच में सभी रिपोर्ट सही भी होती है, इसके बावजूद भी डॉक्टर पल्ला झाड़कर निकल जाते हैं. अगर बात आगे बढ़ती है, तो मरीज को यह कहकर रेफर कर देते है की मामला गंभीर है. पहले भी कई ऐसे मामले आये है. मरीज नॉर्मल प्रसव के इंतजार में दो दिनों तक इंतजार करता रहा, लेकिन सिजेरियन नही हुआ. खासकर महिला डॉक्टर सिजेरियन करने से पीछे हट जाते है. अगर महिला चिकित्सकों का मन रहेगा सिजेरियन करने का तभी हो सकता है अन्यथा कुछ भी करने पर नही होगा. इसे लेकर पहले भी कई बार हंगामा हुआ, लेकिन स्थिति में कोई सुधार नही दिखा.
अस्पताल में दलालों की भीड़
सदर अस्पताल दलालों की चंगुल में फंसा हुआ है. खासकर आशा और ममता दलाली को मजबूत करने में लगे हुए है. महिला दलालों की बाढ़ सी आ गयी है. पर्ची काउंटर से लेकर डॉक्टर से दिखाने और दवा लेने तक दलाल हावी रहते है. गरीब परिवारों को प्रलोभन देकर पैसा ऐंठा जाता है. खासकर रेफर होने की स्थिति में दलाल पूरी तरह मरीज के पीछे पड़ जाते है. कम पैसे में इलाज या ऑपरेशन की सुविधा देने की बात कह निजी क्लिनिक तक पहुंचा देते है. निजी अस्पताल में बिना सोचे-समझे ऐसे मरीजों का ऑपरेशन भी कर दिया जाता है. इसके एवज में दलालों को बंधी-बंधाई रकम दे दी जाती है. कभी मरीज की मौत हो गयी तो हंगामा शुरू हो जाता है. अंतत: पोल खुल जाता है, लेकिन इसका प्रभाव सदर अस्पताल पर पड़ता है. निजी क्लिनिक में मौत के बाद परिजन सदर अस्पताल में हंगामा करते है. यूं कहे कि दलालों पर अंकुश नहीं लगाया गया तो स्थिति भयावह होगा.
क्या कहते हैं डीएस
सदर अस्पताल उपाधीक्षक डॉ सुरेंद्र कुमार सिंह ने कहा कि पूर्व में सिजेरियन होता था. बीच मे एनेस्थेसिया डॉक्टर नही रहने के कारण यहां सिजेरियन बंद हो गया था. इधर, 10 अप्रैल से एनेस्थीसिया की बहाली हुई है तो ऑपरेशन होना शुरू हो गया है. बड़ी बात है कि इसके बावजूद सुदृढ़ तरीके से मरीजों का ऑपरेशन नहीं हो रहा है. 10 अप्रैल से एनेस्थीसिया डॉक्टर बहाल हैं और 12 दिनों में मात्र तीन ही सिजेरियन हुए हैं. इसका मुख्य कारण है कि या तो इसकी जानकारी जिले के लोगों को नही है अथवा वही पहले जैसा बहानेबाजी की स्थिति कायम है.एनेस्थीसिया के डॉक्टर नही
पिछले एक वर्षों में सिजेरियन का आंकड़ा देखें तो 2025 का मार्च महीने से लेकर 10 अप्रैल तक शून्य है. यानी इसका मुख्य कारण है सदर अस्पताल में एनेस्थीसिया का न होना. यह मरीजो के साथ बड़ी लापरवाही है. अक्सर यहां एनेस्थीसिया के डॉक्टर नही रहते हैं. जैसे-तैसे कर के सदर अस्पताल को चलाया जा रहा है.डिस्क्लेमर: यह प्रभात खबर समाचार पत्र की ऑटोमेटेड न्यूज फीड है. इसे प्रभात खबर डॉट कॉम की टीम ने संपादित नहीं किया है