सजगता में तथा आत्म-निरीक्षण की स्व को विस्तार देनेवाली संवृद्धि में बहुत बड़ा अंतर है. आत्म-निरीक्षण कुंठा की ओर, व्यापक द्वंद्व की ओर ले चलता है, जबकि सजगता स्व के क्रिया-कलाप से निजात की प्रक्रिया है.
सजगता का अर्थ है अपनी नित्य की गतिविधियों के प्रति, अपने विचारों के प्रति, अपने कर्मो के प्रति और अन्य के प्रति सजग होना, उस अन्य को ध्यान से देखना. आप ऐसा तभी कर सकते हैं, जब आप किसी से प्रेम करते हैं, जब आप किसी वस्तु में गहरी अभिरुचि रखते हैं. जब मैं अपने को जानना चाहता हूं, अपने संपूर्ण व्यक्तित्व को, संपूर्ण अंतर्वस्तु को, न कि उसकी एक या दो तहों को, तो स्पष्ट है कि निंदावृत्ति के लिए कोई जगह नहीं होनी चाहिए.
तब मुझे प्रत्येक विचार के प्रति, प्रत्येक भावदशा के प्रति, सभी प्रकार के दमन के प्रति खुलेपन से सजग रहना होगा; और जैसे-जैसे इस जागरूकता में विस्तार होता जाता है, वैसे-वैसे विचार की, लक्ष्यों की रहस्यमय गतिविधियों से निजात मिलती जाती है.
सजगता स्वतंत्रता है, वह स्वतंत्रता लाती है, वह स्वतंत्रता प्रदान करती है, जबकि आत्म-निरीक्षण द्वंद्व को पोषित करता है, वह स्व के दायरे में बंद होते जाने की प्रक्रिया है; अत: कुंठा और भय सदैव बने रहते हैं. आत्म-निरीक्षण अधिक कुंठा की ओर ले जाता है, क्योंकि उसमें परिवर्तन की आकांक्षा छिपी रहती है, और परिवर्तन केवल एक संशोधित निरंतरता है. सजगता एक ऐसी अवस्था है, जिसमें न तो निंदा है, न औचित्य-समर्थन का जुड़ाव.
जे कृष्णमूर्ति