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मैत्रेयी पुष्पा की कहानी ‘मुस्कराती औरतें’ का अंश

छठ पूजा के अवसर पर वरिष्ठ साहित्यकार मैत्रेयी पुष्पा ने एक पोस्ट लिखा था, जिसपर विवाद हुआ और मैत्रेयी पुष्पा सोशल मीडिया में ट्रोल भी हुईं. मैत्रेयी पुष्पा ने स्त्री अधिकारों पर जमकर लिखा है. प्रस्तुत है उनकी एक कहानी मुस्कराते औरतें का अंश:- मुस्कराती औरतें ‘बेपरवाह यौवन’ ऐसे शीर्षक के साथ हमारी तसवीर अखबार […]

छठ पूजा के अवसर पर वरिष्ठ साहित्यकार मैत्रेयी पुष्पा ने एक पोस्ट लिखा था, जिसपर विवाद हुआ और मैत्रेयी पुष्पा सोशल मीडिया में ट्रोल भी हुईं. मैत्रेयी पुष्पा ने स्त्री अधिकारों पर जमकर लिखा है. प्रस्तुत है उनकी एक कहानी मुस्कराते औरतें का अंश:-

मुस्कराती औरतें
‘बेपरवाह यौवन’ ऐसे शीर्षक के साथ हमारी तसवीर अखबार में छपी है. अखबार गांव में आया. प्रधान के चबूतरे पर लोग देख रहे हैं. कह रहे हैं स्वर में स्वर मिलाकर आवारा लड़कियां. मेरे सामने बरसों पुराना यह दृश्य है. आवारा लड़कियों की ले-दे हो रही थी. आवारा लड़कियों को पता न था कि आवारा कैसे हुआ जाता है? मुरली ने अपनी मां से पूछ लिया कि हम आवारा कैसे हुए. मां ने मुंह से नहीं, मुरली की चोटी को झटके दे-देकर बताया था और बीच-बीच में थप्पड़ मारे थे, कहा था भींगकर तसवीर खचाने वाली लड़कियां आवारा नहीं हुईं तो क्या सती सावित्री हुईं?
मुरली जरा ढीठ किस्म की लड़की थी क्योंकि अकसर ऐसा कुछ कर जाती, जिसकी सजा पिटाई के रूप से कम न होती. अपनी धृष्टता को बरकरार रखते हुए बोली, न भीगते तो हम सती सावित्री हो जाते. तुम हमें मुरली न कहतीं, सती या सावित्री कहतीं? जवाब देती है, चोरी और सीनाजोरी कहते हुए मां ने अबकी बार मुरली को अपनी जूती से पीटा क्योंकि उनके हाथों में चोट आ गई थी. मुरली के सिर से किसी के हाथ टकराएं और जख्मी न हों, ऐसा कैसे हो सकता है?

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अम्मां, सलौनी और चंदा भी तो भीगी थीं. बरसात हो तो गांव में कौन नहीं भीग जाता? सबके पास तो छाता होता नहीं है. फिर लड़कियों को तो छाता मिलता भी नहीं.मुरली मार खाकर रोई नहीं, बहस करने लगी.
मां ने अबकी बार अपने माथे पर हथेली मारी, विलाप के स्वर में बोली,करमजली, तू भइया का छाता ले लेती. बहुत होता मेरा लाल भीगता चला आता. ज्यादा से ज्यादा होता तो उसे जुकाम हो जाता, बुखार आ जाता पर तेरी बदनामी तो अखबार के जरिए दुनिया-जहान में जाएगी. भीगकर फोटू खिंचाई, बाप की मूंछों को आग लगा दी. हाय, जिसकी बेटी बदफैल हो जाए, उससे ज्यादा अभागा कौन? अम्मां ने मुंह पर पल्ला डाल लिया और मुरली अपने खींचे गए बेतरतीब बालों को खोलकर कंघी से सुलझाने लगी.
सामने भइया आ गया, तेरह साल की मुरली अपनी तंदुरुस्ती में भइया की पंद्रहवर्षीय अवस्था से ज्यादा विकसित, ज्यादा मजबूत और ज्यादा उठान शरीर की थी. भाई से बोली-तू भीगता, तेरी फोटू कोई खींच लेता, अखबार में छाप देता, तू आवारा न हो जाता. छाता इसीलिए साथ रखता है.
भइया माता-पिता के अपमान को अपनी तौहीन समझ रहा है, मुरली को पता न था. जब उसने कहा-मैं लड़का हूं सो मर्द हूं. मेरी फोटू कोई कैसे खींचता? खींचकर करता भी क्या? कोई उसे क्यों देखता? सब लोग तेरी और रेनू की फोटू देख रहे थे आंखें फाड़-फाड़कर और फिर आवारा कहकर एक दूसरे को आंख मार रहे थे. मुझसे सहन नहीं हुआ, मैं भाग आया.
मैंने, यानी रेनू ने एक अलबम बनाई थी उन्हीं दिनों.
मेरी अलबम में मैं हूं और मुरली है. तसवीर में हम दोनों भीगे हुए हैं. उस दिन वर्षा हो रही थी और हम घर से निकल पड़े थे. पेड़ों के नीचे छिपते फिरे. लेकिन पेड़ तो खुद ही भीग रहे थे. वे चिड़ियों तक को वर्षा से नहीं बचा पा रहे थे. गिलहरियां न जाने कहां छिप गई थीं, देखने पर भी नहीं दिखीं. एकमुश्त आकाश था, हमको नहलाता हुआ. दूर सामने चंदो कुम्हार का खच्चर था ध्यानावस्था में भीगता हुआ. हां, तालाब में बगुलों की पांतें थीं, भीगे पंखों से किलोलें करती हुईं. बारिश में उजागर दुनिया यही थी, हमारे साथ.
अचानक एक छाताधारी आता दिखाई दिया. अपने जूते भिगोता हुआ चर्रमर्र की आवाज करता हुआ चला आ रहा था. हमारे पास चला आ रहा है, मैं और मुरली अपने शरीरों से भीगे हुए चिपके कपड़ों से बेखबर उसे टकटकी बांधकर देख रहे थे. उसने अपना कैमरा खोला और हमारी तसवीर खींच ली. हम कैमरे को देखकर नहीं, छाते वाले बाबू को देखकर हंस पड़े. हमारे हंसने का मकसद क्या था, हम भी नहीं जानते थे, मगर वह मुस्कराया, जैसे सब कुछ समझ रहा हो. उसने एक तसवीर और खींची.
जब हमें थप्पड़ और बाल खिंचाई के बीच अखबार दिखाया गया तो हम उसमें खिलखिलाकर हंस रहे थे.
उसके बाद़़ मैं कई दिन तक डरी रही. बारिश भी कई दिनों तक बंद रही. मेरा दिल ऐसे ही सूख गया था, जैसे बादल सूखे-सूखे मुरली भी अपने भीतर पनपते रूखे-सूखेपन को बर्दाश्त नहीं कर पा रही थी. वह अकसर ही मुझसे कहती, चल, बाहर चलते हैं. देखना हम हंसेंगे तो बादल बरसेंगे. बादल बरसेंगे तो छातेवाला आएगा. वह आएगा तो हमारी तसवीर खींचेगा. तसवीर खींचेगा तो अखबार में छापेगा. हम अखबार में होंगे तो दूर दुनिया तक जाएंगे.
यह तुझसे किसने कहा मुरली?
उसी ने, जो फोटू खींच रहा था.
उससे तू मिलती है?
नहीं मिलती, वही मिल जाता है. ताल में नहाती चिड़ियों की तसवीर खींचता है. अखबार में छापता है, तब कोई नाराज क्यों नहीं होता? चिड़ियां भी तो लड़कियां ही होती हैं.
हां, होती हैं. मगर वे उड़ सकती हैं, हम कैसे उड़ें? ऐसी बातें करते- सोचते हम बड़े होने लगे.
मुरली मुझसे बिछुड़ गई. उसका ब्याह हो गया मेरी अलबम में. ब्याह के बाद एक तसवीर मुझे मुरली के भाई से मिली. मुरली उसमें आाधा घूंघट किए गेहूं की रास की उड़ाई कर रही है. बांहें ऊपर उठी हुई हैं क्योंकि डलिया हाथ में है. फोटो के पीछे लिखा था ‘आर्थिक गुलामी की शिकार औरत’
मेरा जी धक से रह गया. मुरली और आर्थिक गुलामी नहीं-नहीं वह तो आवारा थी.
मैंने मुरली की यह तसवीर अपनी अलबम में लगा ली. समाजसेवी संस्था की सदस्य का दिया शीर्षक काट दिया. उसके नीचे लिख दिया ‘आवारा औरत’ क्योंकि मुझे दासी, गुलाम और सेविका से ‘आवारा औरत’ शब्द ज्यादा ताकतवर लगता है.
इसके बाद, अलबम के तीन पृष्ठ खाली छोड़ दिए, मुरली के लिए. मगर बहुत दिनों तक कोई तसवीर मिल नहीं पाई. हां, खबर मिलती रही कि मुरली अपने घर है. लड़ाई-झगड़ा करती है, सो भइया भी उसकी ससुराल नहीं जाता. पिता जब भी बुलाए जाते हैं, मुरली से अपनी इज्जत रखने का कौल देकर आते हैं. मुरली मेहनत करती है, खेत-खलिहान उसी के दम पर आबाद हैं, यही माता-पिता का सहारा है और ऐसी कल्पनाओं से मायके वाले आश्वस्त रहते हैं.
मेरी मां कहती हैं. गांव की औरत गुलामी और मुक्ति का अंतर क्या जाने? अज्ञान और चेतनाहीन होती हैं. अपने श्रम को मुफ्त लुटाती रहती हैं, आर्थिक पराधीनता से जोड़कर देख नहीं पातीं. अनाज-गल्ले को खलिहान में देखकर खुश हो जाती हैं, बस.
मुरली क्या करती होगी? मैंने एक पन्ने पर सवालिया निशान? लगा दिया है.
अगले पन्ने पर तसवीरें लगी हैं, मेरे साथियों, सहपाठियों की. उनके ब्याहों की़. इसके बाद की तसवीर में मेरा ब्याह हो गया है. शादी की प्रमुख फोटो में मेरे साथ वर है और मां है. दूसरी तसवीर में मां के साथ महिला मंडल की वे स्त्रियां हैं, जो सामाजिक स्तर पर अपनी आाधुनिक पहचान के साथ हैं. मां ने इन तसवीरों को मेरी अलबम में खास तौर पर क्यों लगवाया? ये सामाजिक कार्यकर्ता और अफसर औरतें ससुराल तक मेरे साथ अलबम के जरिये आई हैं, मां का क्या मकसद है? क्या इसलिए कि मैं गंवार मुरली के खयालों में न खोई रहूं? उसके उजड्ड-से व्यवहार को भूल जाऊं. उसकी आवारा प्रवृत्तियां मेरी शिष्टता का नाश करती हैं. अत: मुझे पढ़ी-लिखी भद्र महिलाओं, जिन्होंने अपने लिए प्रगति-पथ चुने हैं, उनसे आाधुनिकता की ऊर्जा प्राप्त करके पुनर्नवा होना है. मेरी मां ममता और लाड़ का ऐसा खजाना नहीं कि मुझे कैसे भी खुश रखने की सोचे और मेरे लिए अन्य मांओं जैसा अधिक से अधिक दुलार उमड़ता आए ब्याह के बाद.
तसवीर वाली मेरी मां की आंखों में वह चुनौती रहती है, जिसे उन्होंने मेरे लिए खास तौर से रख छोड़ा है. जब भी फोटो देखती हूं, वे कहती नजर आती हैं. गौर से देख, ये औरतें वे हैं, जो अपने पांवों खड़ी हैं. ये स्त्रियां पढ़- लिखकर घर से निकलीं, नौकरी कीं. आर्थिक स्वतंत्राता पैदा कर लीं. स्त्रियों के लिए आर्थिक पराधीनता बेड़ियों का काम करती है. तू समझ रही है न? कि अब भी तुझ पर मुरली सवार है? अनपढ़ लड़की़ बेशर्म जात.
हां, मैं मुरली की तरह ही अपने घर में हूं. कॉलेज की कई लड़कियों की तरह मैंने ब्याह को ब्याह के रूप में सुरक्षा कवच माना है. मां के हिसाब से मैंने ब्याह के किले में खुद को बंद कर लिया है. गृहस्थिन की तरह चारदीवारी में गुम होकर रह गई हूं. अगर मैंने नौकरी नहीं की तो निरंतर प्रताड़ित होती रहूंगी. पराधी न की तरह मेरा शोषण किया जाता रहेगा.
क्या मैं यहां से निकलने का निर्णय भी ले सकती हूं? मैं अपने बूते रहने- खाने की सुविधा-साधन जुटा सकती हूं? मैं निरी गुलाम औरत, मां का वह मंत्रा नहीं माना, जिसके चलते स्त्री कुछ कमाकर आत्मनिर्भर होती है. अपनी आजादी का बिगुल बजा सकती है. साथ में मर्यादा और शील का पालन करती है.
आपका मंत्र अचूक नहीं है मां. यह बात मैं आज तक इसलिए नहीं कह पाई क्योंकि नौकरीपेशा न होकर आश्रितों में शुमार की जाती हूं. बिना मुझसे पूछे ही आश्रित की चिप्पी मेरे वजूद पर मां ने चिपका दी है. बिना यह समझे कि मेरे घर में मेरी हैसियत क्या है, समझ लिया है कि मेरी आर्थिक पराधीनता ही मेरे दासत्व भरे गुणों की खान है.
मां ने कहा था, उन औरतों को देख जो कामकाजी महिला होने के लिए, नौकरीपेशा बनने के लिए विवाह-बंधन तोड़ गईं. या उन्हें देख, जिन्होंने अपना कैरियर पहले अर्जित किया उसके बाद विवाह.
मैं जानती हूं कि मां को ब्याह के पक्ष में लिया गया मेरा फैसला रास नहीं आया था. क्या मैं आर्थिक रूप से स्वतंत्र होती तो उनकी विवाह वाली राय में कोई अंतर आता? जबकि आर्थिक रूप से आज मेरा उन पर कोई वजन नहीं. सोच-विचार में डूबी थी, अनायास ही अलबम का पन्ना पलट गया.
अरे!
फूलकली मैडमविकास खंड मोंठ की सहायक विकास अधिकारी महिला यानी कि एसडीओ़. इनकी उम्र अट्ठाइस से ज्यादा नहीं. फोटोजैनिक चेहरा ही नहीं, वे खासी लावण्यमयी स्त्री हैं. अच्छी लंबाई उन्हें और भी आकर्षक बनाती है. साड़ी पहनें या सलवार-कमीज, उन पर सब फबता है.
इनके बारे में मां ने ही बताया था. एमए करने के बाद ट्रेनिंग के लिए चुनी गईं. नियुक्त हुईं बबीना ब्लॉक में और तबादला होकर आईं मोंठ ब्लॉक. योग्यता के बल पर पद नहीं मिलता तो योग्यता किस काम की? मां ऐसा मानती हैं. पद का आधार ही है कि ब्लॉक के रिहाइशी क्वार्टरों में शानदार घर मिला है. फूलकली मैडम को. साथ में एक अर्दली भी. ग्रामीण इलाकों में दौरा करना होता है तो जीप भी मिलती है. मां, फूलकली मैडम को आजाद भारत की आदर्श स्त्री के रूप में देखती हैं. आदर्श रूप में खास बात यह भी है कि फूलकली मैडम किसी मजबूरी के कारण घर से नहीं निकलीं और न लड़की की नस्ल में पैदा हुई लड़की की तरह उन्होंने ब्याह किया. कैरियर सबसे पहले.

आर्थिक आत्मनिर्भरता जन्मसिद्ध अधिकार की तरह हासिल की. ब्याह का क्या, ब्याह भी कर लिया अपनी सुविधा को देखते हुए एक ग्रामसेवक से. मेरी मां ने उनका यह निर्णय भी जी भरकर सराहा. पुरुष हमीं को अब कमजोर मानकर प्रताड़ित नहीं करेगा. ऊंचे स्तर पर न सही, बराबरी से सम्मान देगा. ऐसे फैसलों को देखकर ही तो मां मुझसे और भी खफा हो जाती हैं क्योंकि मैंने अपने लिए उनके बताए वरों को नजरअंदाज किया क्योंकि वे मुझे अयोग्य लगे.,,

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