Sanctions on Russia : रूस-यूक्रेन युद्ध के बीच कूटनीति, आर्थिक दबाव और वैश्विक ऊर्जा राजनीति फिर निर्णायक मोड़ पर पहुंचती दिख रही है. ट्रंप ने जब दोबारा सत्ता संभाली, तब यह दावा किया था कि वह इस युद्ध को ‘बहुत जल्दी’ समाप्त कर देंगे. पर वास्तविकता कहीं अधिक जटिल साबित हुई है. रूसी राष्ट्रपति पुतिन ने किसी भी बाहरी दबाव या समझौते के संकेत नहीं दिये, जिससे ट्रंप को अब कठोर आर्थिक प्रतिबंधों का सहारा लेना पड़ा है.
वाशिंगटन द्वारा रूस की दो प्रमुख तेल कंपनियों-रोसनेफ्ट और लुकोइल-पर नये प्रतिबंध लगाने से स्पष्ट हो गया है कि अमेरिका अब कूटनीति के साथ आर्थिक हथियारों का इस्तेमाल कर मास्को को वार्ता की मेज पर लाने की कोशिश में है. यूरोपीय संघ ने अनुसरण करते हुए रूस के ऊर्जा और वित्तीय नेटवर्क पर अपनी 19वीं प्रतिबंध शृंखला लागू कर दी है. यूरोप ने 2027 से रूसी एलएनजी के आयात पर पूर्ण प्रतिबंध की घोषणा की है और 117 ऐसे जहाजों को भी सूचीबद्ध किया है, जो पिछले प्रतिबंधों को दरकिनार करने में प्रयुक्त हो रहे थे. ब्रिटेन ने भी इस दिशा में कदम उठाया है, जिससे ट्रांस-अटलांटिक गठबंधन में रूस को लेकर नयी एकजुटता दिख रही है.
इन प्रतिबंधों का तात्कालिक असर वैश्विक तेल बाजार पर देखा जा सकता है. कीमतें पांच फीसदी से अधिक बढ़ चुकी हैं. इससे रूस को अल्पकालिक नुकसान तो होगा, पर जैसा कि मास्को के विशेष दूत किरिल दिमित्रिएव ने कहा, ‘कम बैरल बेचने पर भी यदि कीमतें बढ़ती हैं, तो नुकसान की भरपाई संभव है’. उनके मुताबिक, इन प्रतिबंधों का असर अमेरिकी उपभोक्ताओं पर भी पड़ेगा, क्योंकि गैसोलिन के दाम बढ़ेंगे. यदि अमेरिकी घरेलू महंगाई या ऊर्जा लागत बढ़ जाती है, तो ट्रंप की नीति उल्टी भी पड़ सकती है. भारत के लिए यह स्थिति और भी जटिल है.
अभी भारत की करीब एक-तिहाई तेल की जरूरत रूस से पूरी होती है, जिनमें रोसनेफ्ट और लुकोइल की हिस्सेदारी प्रमुख है. अमेरिकी प्रतिबंधों के तहत अब भारतीय कंपनियां इन फर्मों से व्यापार करने पर द्वितीयक प्रतिबंधों के जोखिम में आ गयी हैं. रिलायंस इंडस्ट्रीज और नायरा एनर्जी जैसी बड़ी भारतीय रिफाइनरियां पहले से ही वैकल्पिक स्रोत तलाश रही हैं. माना जा रहा है कि 21 नवंबर से पहले भारतीय रिफाइनरियां रूसी तेल की अग्रिम खरीद कर लेंगी, ताकि प्रतिबंध लागू होने से पहले भंडार बना सकें. पर दिसंबर से आयात घट सकता है और नयी आपूर्ति शृंखलाएं पश्चिम एशिया, लैटिन अमेरिका, पश्चिम अफ्रीका और अमेरिका से विकसित करनी पड़ेंगी. इससे न केवल परिवहन लागत बढ़ेगी, बल्कि वार्षिक आयात बिल भी करीब दो फीसदी तक बढ़ सकता है.
रूस पर लगाये गये नये प्रतिबंधों का उद्देश्य पुतिन को वार्ता के लिए मजबूर करना है. अब मास्को से भी संकेत मिल रहे हैं कि कूटनीतिक रास्ता पूरी तरह बंद नहीं हुआ है. रूस के विशेष दूत दिमित्रिएव ने कहा है कि रूस, अमेरिका और यूक्रेन ‘काफी हद तक’ एक समझौते के करीब हैं. यानी शायद यूक्रेनी राष्ट्रपति जेलेंस्की ने अपने रुख में कुछ नरमी दिखाई है. पर प्रतिबंधों की सफलता इस पर निर्भर करेगी कि उनका प्रवर्तन कितना सख्त होता है. वैसे रूस पहले से ही प्रतिबंधों से निपटने की तैयारी कर चुका है. उसका ‘शैडो टैंकर बेड़ा’ और वैकल्पिक भुगतान प्रणाली अब भी सक्रिय हैं. विशेषज्ञों के मुताबिक, मास्को अपना नुकसान सहने के लिए तैयार है, क्योंकि पुतिन के लिए यह युद्ध राष्ट्रीय गौरव और अस्तित्व का प्रश्न बन चुका है.
वह रणनीतिक उद्देश्यों के लिए भारी आर्थिक कीमत चुकाने को भी तैयार हैं. दूसरी ओर, ट्रंप की नीतियां अस्थिर प्रतीत होती हैं-कभी संवाद की कोशिश, तो कभी कठोर दंडात्मक कार्रवाई. ट्रंप की हालिया एशिया यात्रा भी उनकी रणनीति का विस्तार मानी जा रही है. मलेशिया, जापान और दक्षिण कोरिया की यात्रा के दौरान वह चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग से भी मिलने की संभावना जता चुके हैं. वाशिंगटन अब बीजिंग की भूमिका को मध्यस्थ के रूप में देखने की कोशिश कर रहा है, जो रूस का प्रमुख ऊर्जा ग्राहक और राजनीतिक सहयोगी है. हालांकि यूरोपीय नेताओं को आशंका है कि ट्रंप पुतिन के प्रति नरम न पड़ जायें. ईयू और अमेरिका का यह नया दबाव एक तरह से पश्चिमी दुनिया की सामूहिक पुनर्संरेखण का प्रतीक है. जबकि रूस के लिए यह युद्ध अब अपने अस्तित्व का संघर्ष बन चुका है.
दूसरी ओर, स्वयं को ‘वैश्विक शांति निर्माता’ के रूप में स्थापित करने की महत्वाकांक्षा पाले ट्रंप अगर यूक्रेन मामले में कोई ठोस प्रगति दिखा पाते हैं, तो यह उनकी राजनीतिक साख को मजबूत करेगा. पर आने वाले महीनों में असली परीक्षा यह होगी कि आर्थिक दबाव, कूटनीति और वैश्विक ऊर्जा समीकरण मिलकर किसी वास्तविक समाधान की दिशा में बढ़ते हैं या नहीं. फिलहाल जो तस्वीर उभर रही है, वह विरोधाभासों से भरी है. इन सबके बीच भारत जैसे देशों को अपनी ऊर्जा सुरक्षा और भू-राजनीतिक संतुलन के बीच कठिन निर्णय लेने होंगे. आने वाली सर्दियों के साथ स्पष्ट होगा कि ट्रंप की यह नयी आर्थिक कूटनीति रूस को झुकने पर मजबूर कर पाती है या दुनिया को तेल के और ऊंचे दामों तथा लंबे युद्ध की नयी सच्चाई का सामना करना पड़ेगा.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

