Thackeray And Pawar: राजनीति के बारे में कहा जाता है कि यहां कोई न स्थायी दोस्त होता है और न कोई स्थायी दुश्मन. महाराष्ट्र के दो राजनीतिक परिवारों के मिलन को भी इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए. पवार परिवार और ठाकरे कुनबा अगर एक होता नजर आ रहा है, तो इसका मतलब यह नहीं है कि दोनों परिवारों के प्रमुख अलंबरदारों के दिल मिल चुके हैं. राजनीतिक संभावनाओं और अवसरों ने उन्हें एक होने को प्रेरित किया है. ठाकरे और पवार परिवारों में कुछ समानताएं हैं. एक दौर में शरद पवार और बाल ठाकरे की महाराष्ट्र की राजनीति में तूती बोलती थी. पिछली सदी के आखिरी दशक में तो राजनीतिक हलके का एक बड़ा हिस्सा शरद पवार को भावी प्रधानमंत्री तक मानने लगा था.
इसी तरह बाल ठाकरे की ख्याति महाराष्ट्र के टाइगर के रूप में रही. दोनों राजनीतिक खानदानों के मुखिया के स्वाभाविक उत्तराधिकारी दोनों के भतीजे ही माने जाते थे. शरद पवार के उत्तराधिकारी के तौर पर देश और प्रदेश अजित पवार को देखता था. इसी तरह शिवसैनिक भी बाल ठाकरे के भतीजे राज ठाकरे को अगली पीढ़ी का ठाकरे सीनियर मान चुके थे. लेकिन जब उत्तराधिकार सौंपने की बारी आयी, तो पवार ने अपनी बेटी सुप्रिया सुले पर भरोसा जताया और बाल ठाकरे ने अपने छोटे बेटे उद्धव ठाकरे को. ऐसे हालात में अजित पवार और राज ठाकरे को अपना भविष्य चुनौतीपूर्ण लगा, राजनीतिक संभावनाएं कम होती दिखीं, तो दोनों ने अपनी राह अलग कर ली.
राज ठाकरे ने शिवसेना से अलग होकर महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना बना ली, तो अजित पवार ने राष्ट्रवादी कांग्रेस के मूल धड़े पर ही कब्जा कर लिया. पार्टी के असल संस्थापक शरद पवार पुछल्ला पार्टी लेकर एक तरह से किनारे का दल संभालने लगे. पवार और ठाकरे परिवारों में बिखराव की कहानी भी अलग-अलग रही. उद्धव ठाकरे ने जब तक अपनी शिवसेना को भाजपा के साथ रखा, तब तक तो उनके नेतृत्व को चुनौती नहीं मिली. दल का राज्य में समर्थन भी ठीकठाक रहा.
हालांकि महत्वाकांक्षाओं के साथ अलग हुए राज ठाकरे को राजनीतिक सफलताएं न के बराबर मिलीं. लेकिन जब से उद्धव ने भाजपा को छोड़ कांग्रेस और पवार की एनसीपी का साथ पकड़ा, राजनीतिक मैदान में उसका आधार घटने लगा. जबकि पवार सीनियर से अलग होने के बावजूद भाजपा के साथ के चलते अजित का राजनीतिक रुतबा कम नहीं हुआ. अलबत्ता शरद पवार की सियासी साख घटती चली गयी. कुनबे में बिखराव के चलते दोनों परिवारों की राजनीतिक ताकत भाजपा के सामने बौनी होती जा रही है. दोनों परिवारों के राजनीतिक अस्तित्व पर ही सवाल उठने लगा है.
एक कहावत है, मरता क्या न करता! राजनीतिक अस्तित्व पर जब बन आती है, तब कम ही सियासी हस्तियां होती हैं, जो समझौते नहीं करतीं. ठाकरे बंधु तो बाकायदा प्रेस कांफ्रेंस कर एक हो चुके हैं, जबकि पवार परिवार ने अपने गढ़ बारामती में एक होने का संकेत दिया. चाहे ठाकरे कुनबा हो या पवार परिवार, अगर दोनों एक हो रहे हैं, तो उसका कारण सिर्फ अस्तित्व की रक्षा नहीं है, बल्कि भाजपा रूपी चुनौती से पार पाना भी एक कारण है और मुंबई महानगर पालिका, पुणे महानगर पालिका और पिंपरी चिंचवड़ महानगर पालिका पर कब्जे की चाहत भी है. मुंबई महानगर पालिका का सालाना बजट सत्तर हजार करोड़ रुपये का है, जो उत्तर पूर्व के राज्यों के समूचे बजट से भी ज्यादा है.
ऐसे ही, पिंपरी-चिंचवड़ महानगर पालिका के दायरे में एशिया का सबसे बड़ा औद्योगिक क्षेत्र है, जहां से कर के रूप में मोटी रकम आती है. ठाकरे परिवार की एकता के पीछे जहां बृहन्नमुंबई महानगर पालिका पर कब्जा जमाने की इच्छा है, वहीं पवार परिवार की एकता के पीछे पुणे महानगरपालिका और पिंपरी-चिंचवड़ महानगर पालिका पर कब्जा जमाने की चाहत है. दोनों परिवारों को लगता है कि अगर वे बिखरे रहे, तो उनके प्रभाव वाली महानगरपालिकाओं में उन्हें कुछ भी हाथ नहीं लगेगा. गौरतलब है कि एक दौर में बीएमसी पर शिवसेना का कब्जा रहता था तो पुणे और पिंपरी-चिंचवड़ में पवार परिवार का. दोनों परिवारों के मिलन के पीछे की बड़ी वजह यही है.
भाजपा ने जिस तरह निकाय चुनावों में अपना दबदबा कायम किया है, उससे पवार परिवार की चिंताएं बढ़ी हैं और ठाकरे खानदान की भी. इस संदर्भ में भाजपा का इतिहास देखें, तो विस्तार के पहले चरण में वह अपने साथी दलों के सहयोग पर निर्भर रही. लेकिन बाद के दौर में उसने खुद का प्रभाव बढ़ाया और अपने दम पर वह स्थापित होती चली गयी. कुछ साल पहले तक महाराष्ट्र में वह छोटे भाई की भूमिका में थी. लेकिन अब शिवसेना का टूटा हुआ धड़ा और एनसीपी, दोनों की हैसियत उसके छोटे भाई जैसी है. ऐसे में, यह तय है कि दोनों परिवारों के रिश्तों की मजबूती इन महापालिका चुनाव नतीजों पर निर्भर करेगी.अगर उन्हें जीत मिलती है, तो पारिवारिक गठबंधन आगे बढ़ेंगे. लेकिन अगर ऐसा नहीं हुआ, तो दोस्ती की नयी राह तलाशने की कोशिशें फिर से तेज होंगी. (ये लेखक के निजी विचार हैं.)

