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दल-बदल को लेकर सर्वोच्च न्यायालय की चिंता

Supreme Court : दल-बदल विरोधी कानून की जरूरत 1967 में महसूस हुई, जब राज्यों में गठबंधन सरकार के दौर में आयाराम-गयाराम की संस्कृति शुरू हुई. मर्ज को नासूर बनने से रोकने के लिए वाईवी चव्हाण समिति की सिफारिशों के अनुसार संसद में बिल पेश हुआ, लेकिन वह कानून नहीं बन सका. उसके बाद दिनेश गोस्वामी समिति की रिपोर्ट के अनुसार संविधान की दसवीं अनुसूची में संशोधन करके 1985 में राजीव गांधी सरकार के समय दल-बदल विरोधी कानून लागू किया गया.

Supreme Court : तेलंगाना में बीआरएस के 10 दल-बदलू विधायकों के खिलाफ अयोग्यता की कार्रवाई में स्पीकर द्वारा अनुचित विलंब पर सुप्रीम कोर्ट ने गहरी चिंता व्यक्त की है. चीफ जस्टिस बीआर गवई की पीठ ने विधायकों की अयोग्यता के लंबित मामलों को तीन महीने में निपटाने का आदेश दिया है. जजों के अनुसार मामले के निपटारे में अवरोध पैदा करने के लिए विधायक अगर टाल-मटोल की रणनीति अपनायें, तो उनके खिलाफ प्रतिकूल निष्कर्ष निकालने चाहिए. विधानसभा स्पीकर ने लगभग सात महीने तक याचिकाओं पर नोटिस भी जारी नहीं किया.

जजों ने रोष व्यक्त करते हुए कहा कि ‘लंबे विलंब के बाद फैसले से ऑपरेशन सफल रहा, लेकिन मरीज की मौत हो गयी’, का मामला हो जायेगा. इसके पहले हाईकोर्ट के एक जज की बेंच ने स्पीकर को चार सप्ताह में अयोग्यता याचिकाओं पर सुनवाई का शेड्यूल तय करने का आदेश दिया था. लेकिन दो जजों की बेंच ने नवंबर 2024 में एक जज के आदेश को खारिज कर दिया. सुप्रीम कोर्ट के अनुसार दल-बदल के मर्ज पर अगर रोक नहीं लगायी गयी, तो लोकतंत्र की नींव ही कमजोर पड़ जायेगी.


दल-बदल विरोधी कानून की जरूरत 1967 में महसूस हुई, जब राज्यों में गठबंधन सरकार के दौर में आयाराम-गयाराम की संस्कृति शुरू हुई. मर्ज को नासूर बनने से रोकने के लिए वाईवी चव्हाण समिति की सिफारिशों के अनुसार संसद में बिल पेश हुआ, लेकिन वह कानून नहीं बन सका. उसके बाद दिनेश गोस्वामी समिति की रिपोर्ट के अनुसार संविधान की दसवीं अनुसूची में संशोधन करके 1985 में राजीव गांधी सरकार के समय दल-बदल विरोधी कानून लागू किया गया. इसके अनुसार विधायक और सांसद यदि पार्टी से इस्तीफा देकर दूसरी पार्टी में शामिल हो जायें या फिर व्हिप का उल्लंघन करें, तो उनकी सदस्यता रद्द हो सकती है.

वर्ष 2004 में 91वें संविधान संशोधन से अयोग्य सदस्यों के मंत्री पद ग्रहण करने पर रोक लग गयी. गौरतलब है कि स्पीकर की अखिल भारतीय कांफ्रेंस में यह कहा गया था कि शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत के अनुसार संसद और स्पीकर के क्षेत्राधिकार में अदालतों का हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए. दुर्भाग्य से, सभी पार्टियों की सरकारों में स्पीकर संविधान की बजाय पार्टी हितों को ज्यादा वरीयता देते हैं. कई मामलों में सुनवाई के बगैर ही आपाधापी में विधायकों की अयोग्यता का निर्धारण हो जाता है. लेकिन जिस दल-बदल से सत्तारुढ़ दल को लाभ हो, उसमें विधायकों की अयोग्यता के निर्धारण में बेवजह का विलंब किया जाता है. सुप्रीम कोर्ट के अनुसार विधायकों की अयोग्यता के मामलों में निष्पक्ष फैसले के लिए पूर्व जजों की अध्यक्षता में विशेष ट्रिब्यूनल का कानून बनना चाहिए. अधिकांश मामलों में दल-बदलू नेताओं की याचिकाओं पर सुप्रीम कोर्ट के अंतरिम आदेश से काम हो जाता है. उसके बाद मुख्य मुद्दों पर फाइनल बहस टलती रहती है. इसलिए महाराष्ट्र के लंबित मामलों में राजनीतिक दल और विधायी दल में फर्क तथा पार्टियों के विघटन और विलय जैसे मुद्दों पर सर्वोच्च अदालत को जल्द फैसला देना चाहिए.


न्यायिक सख्ती के बावजूद सत्तालोलुप नेताओं ने दल-बदल कानून में अनेक सुराख कर लिये हैं. दो-तिहाई विधायकों को तोड़ने में असफलता के बाद पार्टियों के विभाजन और अल्पमत के गुट को स्पीकर की मान्यता दिलवाकर सरकार बनाने और गिराने के खेल के बाद यह कानून अप्रासंगिक-सा हो गया है. चुनावी सुधार के लिए बनी गोस्वामी समिति और विधि आयोग की 255वीं रिपोर्ट में सुझाव दिया गया था कि अयोग्यता के मामलों में राज्यपाल और राष्ट्रपति को चुनाव आयोग की अनुशंसा के अनुसार फैसला लेना चाहिए. इन सुझावों को लागू करने के लिए कुछ वर्ष पहले सुप्रीम कोर्ट में एक पीआइएल भी दायर हुई थी. लेकिन नये कानून के निर्माण या कानून में बदलाव के लिए संसद को ही अधिकार हासिल है. कुछ वर्ष पहले कनार्टक मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले से संवैधानिक उलझनें बढ़ गयी हैं. उसके अनुसार दल-बदल करने पर अयोग्य घोषित लोग उपचुनाव में जीत कर बकाया कार्यकाल के लिए मंत्री बन सकते हैं. लेकिन मनोनयन के रास्ते से विधायक बनने वालों पर अयोग्यता के प्रावधान लागू रहने पर वे मंत्री नहीं बन सकते हैं. इसलिए दल-बदल करने वाले विधायक और सांसदों को अविश्वास प्रस्ताव में मतदान करने की इजाजत नहीं मिलनी चाहिए.


फाइव स्टार होटलों से संचालित सामूहिक दल-बदल के खेल पर लगाम के लिए सुप्रीम कोर्ट के कठोर आदेशों के साथ संसद और चुनाव आयोग को भी पहल करने की जरूरत है. विधायक और सांसद पार्टी के चुनाव चिह्न पर चुनाव लड़ते हैं, लेकिन पार्टियों के टूटने या विघटन पर सदस्यों और पदाधिकारियों का विवरण चुनाव आयोग के पास नहीं रहता. चुनाव आयोग को पार्टियों के सभी सदस्यों के रजिस्टर का पूरा विवरण वेबसाइट के माध्यम से सार्वजनिक करने की प्रणाली बनानी चाहिए. इससे दल-बदल और पार्टियों के विलय के गोरखधंधे में जमीनी नेताओं की भूमिका बढ़ने के साथ संगठित खरीद-फरोख्त पर अंकुश लगेगा. (ये लेखक के निजी विचार हैं.)

विराग गुप्ता
विराग गुप्ता
लेखक और वकील

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