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महिला आरक्षण से समाज बदलेगा

पंचायती स्तर पर महिलाओं के नेतृत्व की स्वीकार्यता के लिए समाज को तैयार होने में समय लगा है, तो संसदीय राजनीति मे महिलाओं के नेतृत्व को स्वीकार करने में भी समय लगेगा.

महिला आरक्षण बिल का लाया जाना एक बहुत ही सकारात्मक कदम है. यह भारत के सांस्कृतिक और सामाजिक बदलाव में एक अहम भूमिका निभाएगा. राजनीति एक ऐसा क्षेत्र है, जो किसी को भी नेतृत्व की क्षमता देने के साथ-साथ निर्णय देने की क्षमता भी प्रदान करता है. महिलाओं के विकास में अभी सबसे बड़ी बाधा यही है कि उनके पास निर्णय लेने की क्षमता नहीं है. इस बदलाव की अपेक्षा बहुत पहले से की जा रही थी. देर से ही सही, मगर प्रथम पड़ाव तो पूरा हुआ है. राजनीतिक स्तर पर आगे कौन-से परिवर्तन होंगे और क्या निर्णय लिये जाएंगे, यह कहना सहज नहीं होता, लेकिन यह सरकार का एक अभूतपूर्व निर्णय है और हर राजनीतिक दल को मतभेदों को भुलाकर इसका स्वागत करना चाहिए.

राजनीति में नेतृत्व क्षमता उत्पन्न करने का प्रथम चरण पंचायती राज है. हमारे सामने एक जीवंत उदाहरण है कि जब तक पंचायती राज में महिलाओं के लिए आरक्षण लागू नहीं हुआ था, तब तक यह कल्पना भी नहीं हो सकती थी कि महिलाएं राजनीति में प्रवेश कर सकती हैं. पुरुष सत्तात्मक समाज के लिए यह एक बड़ी चुनौती बनकर उभरा है, क्योंकि महिलाओं को राजनीति के लिए पूर्णतः अक्षम माना जाता रहा है. यह धारणा तब गलत सिद्ध हो गयी जब महिलाओं को पंचायती राज चुनावों में आरक्षण मिला और महिलाओं ने अपनी क्षमता सिद्ध की. यद्यपि सामाजिक परिवर्तन एक द्रुत गति से होनेवाली प्रक्रिया नहीं है, और इसलिए यदि ये परिवर्तन वैधानिक स्तर पर लिए जाते हैं, तभी उनकी गति तीव्र हो पाती है. पंचायती राज के दौर में जब महिला आरक्षण का निर्णय लिया गया था, तब भी समाज में यह स्वीकारोक्ति सहज नहीं थी, और आज भी स्थिति में बदलाव बहुत धीमे-धीमे ही हो रहा है.

समाजशास्त्री के नाते से मैं यह बात बहुत विश्वास से कह सकती हूं कि अभी भी प्रधान पद पर आसीन लगभग 70 प्रतिशत से ज्यादा महिलाओं के निर्णय में उनके पति, पिता या भाई जैसे घर के पुरुष सदस्यों की भूमिका अहम होती है. लेकिन, यदि ऐसी 20-30 प्रतिशत महिलाएं भी हैं जो स्वयं निर्णय लेती हैं, तो भविष्य सुखद है क्योंकि आनेवाले समय में यह प्रतिशत और बढ़ेगा. इसी प्रकार वर्तमान परिप्रेक्ष्य में भी देखा जाए तो महिला आरक्षण को लेकर एक नकारात्मक दृष्टिकोण उभरेगा क्योंकि यह माना जाता है कि महिलाएं नेतृत्व करने के लिए नहीं बनी हैं. लेकिन दुनिया भर में हुए शोध बताते हैं कि महिलाओं ने जहां भी निर्णय करने का अधिकार लिया है, वहां एक समावेशी और निरंतर विकास हुआ है, और उनका मानवाधिकार का पक्ष भी पुरुषों की अपेक्षा अधिक गहरा रहा है. हिलेरी क्लिंटन ने अपनी एक किताब में महिला नेतृत्व के बारे में बहुत विस्तार से चर्चा की है कि महिलाओं का नेतृत्व करना ना तो पहले सामान्य था और ना ही आज सामान्य है.

वर्ष 2020-21 में सत्ता में पदों के लिए उपयुक्तता के बारे में जी-7 के सदस्य देशों के 20 हजार वयस्कों पर एक अध्ययन किया गया था. इसमें यह बात ये सामने आयी थी कि उन देशों में भी अधिकतर लोगों ने माना कि महिलाएं नेतृत्व के उपयुक्त नहीं हैं. सबसे हैरान करने वाली बात यह थी कि युवा प्रतिभागियों का भी मानना था कि राजनीति महिलाओं का कार्यक्षेत्र नहीं है. महिलाओं को आरक्षण दिए जाने के निर्णय का हर स्थिति में स्वागत होना चाहिए और यह होना ही चाहिए. लेकिन, मानकर चलना चाहिए कि यह पुरुषों के हृदय को भीतर से गुदगुदानेवाला निर्णय नहीं है, क्योंकि राजनीति एक ऐसा क्षेत्राधिकार है जहां से वे सबको संचालित कर सकते हैं, और इसकी कमान वे महिलाओं को सौंपना नहीं चाहेंगे. ऐसे में जब संचालन की ताकत आएगी, तो महिलाओं को दृढ़ता से उन सारे दुर्व्यवहारों का सामना करना पड़ेगा, जो शारीरिक से अधिक उन्हें मानसिक तौर पर प्रताड़ित करेगा और उन्हें पीछे धकेलने का काम करेगा.

यूरोप में एक अध्ययन में हिस्सा लेनेवाली बहुत सारी महिला सांसदों ने कहा था कि उन्हें अपने कार्यकाल के दौरान मानसिक हिंसा का सामना करना पड़ा था. यह मानकर चलें कि समानता के तमाम दावों के बावजूद भागीदारी की बात सामने आने पर हमारी मानसिकता बहुत संकुचित हो जाती है, और हम सहजता से वह रास्ते देने को तैयार नहीं हो जाते हैं जिनसे महिलाओं के लिए यह राजनीतिक यात्रा सरल हो जाती हो. संसद में महिलाओं को आरक्षण मिलने से समाज में महिला भागीदारी की तस्वीर बहुत हद तक बदलेगी, क्योंकि जब तक आरक्षण नहींं मिलेगा तब तक पुरुष सत्तात्मक समाज महिलाओं के लिए जगह खाली नहीं करेगा. मैं हमेशा यह बात कहती हूं कि शुरुआत में किसी भी परिवर्तन को स्वीकार करने में बहुत समय लगता है और परेशानी होती है, लेकिन धीरे-धीरे वह परिवर्तन जब वैधानिक और कानूनी बाध्यता के कारण लागू कर दिया जाता है तो समाज उसके साथ अपना मानसिक सामंजस्य बिठाने के लिए विवश हो जाता है और धीरे-धीरे वह उसकी आदत का हिस्सा बन जाता है.

जैसे, पहले महिला सरपंचों के प्रति एक अजीब तरह का विरोधात्मक व्यवहार हुआ करता था. पंचायती राज की व्यवस्था 1973 में लागू हुई थी और तब से एक लंबा समय निकल चुका है. इस लंबे समय में लोग पंचायती स्तर की राजनीति में महिला सरपंचों के साथ बातचीत करने के, और उनके नेतृत्व में कार्य करने के आदी हो चुके हैं. पंचायती स्तर पर महिलाओं के नेतृत्व की स्वीकारोक्ति तैयार होने में समय लगा है, तो संसदीय राजनीति मे महिलाओं के नेतृत्व को स्वीकार करने में भी समय लगेगा. लेकिन, यह यकीनन आनेवाले दो-तीन दशकों में समाज में एक जबरदस्त परिवर्तन लेकर आएगा. एक प्रश्न आरक्षण को लेकर भी उठेगा कि क्या भागीदारी सुनिश्चित करने का यही एकमात्र समाधान है.

मुझे लगता है कि ऐसी ही परिस्थिति में आरक्षण बहुत जरूरी था. भारत ही नहीं, और भी कई देशों में आरक्षण दिये गये हैं. राजनीति एक ऐसा क्षेत्र है जिसे पुरुषों का श्रेष्ठाधिकार माना गया है. ऐसे में बिना आरक्षण के, ना तो विकसित और ना ही विकासशील देशों में महिलाओं को राजनीति में उनकी न्यायोचित भागीदारी दिया जाना संभव है. भारत में ही यदि पंचायतों में महिलाओं को आरक्षण नहीं दिया जाता, तो क्या महिलाओं का सरपंच बन सकना संभव था? महिलाओं को आरक्षण देना अतिआवश्यक है, और यदि सरकार सुदृढ़ कदम उठाती है, और महिला आरक्षण बिल लोकसभा से पारित हो जाता है, तो ना केवल भारत की राजनीति का परिदृश्य बदलेगा, अपितु यह वैधानिक व्यवस्था समाज के लिए भी एक बहुत बड़ा परिवर्तन लेकर आएगी. (बातचीत पर आधारित)

(ये लेखिका के निजी विचार हैं)

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