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सख्ती और विकास कार्यों से नक्सल प्रभाव घटा है

वैसे तो हर सरकार नक्सलियों के खिलाफ अभियान चलाती रही है, पर इसमें तेजी केंद्र में मोदी सरकार के आने के बाद आयी. नक्सलवाद को ज्यादातर सरकारें कानून और व्यवस्था का मामला मानती रहीं. मोदी सरकार ने इसे कानून-व्यवस्था का मामला तो माना, इसे सामाजिक नजरिये से भी देखना शुरू किया.

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बीते 21 मार्च को छत्तीसगढ़ के बीजापुर और कांकेर में सुरक्षा बलों के हाथों जब तीस नक्सली मारे गये, तभी केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह संसद में नक्सलवाद के सफाये का ऐलान कर रहे थे. केंद्र सरकार ने 31 मार्च, 2026 तक नक्सलवाद के सफाये का लक्ष्य रखा है. वर्ष 2025 के अभी तीन महीने ही गुजरे हैं, लेकिन इस बीच नक्सलवाद को लेकर जो आंकड़े सामने हैं, उनसे तो लगता यही है कि नक्सलवाद अब गिने-चुने दिनों की ही बात है. केंद्रीय गृह मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार, बीते तीन महीनों में सुरक्षा बलों की कार्रवाई में 135 नक्सली मारे जा चुके हैं. जबकि बीते साल मुठभेड़ों में 239 नक्सली मारे गये थे. इतने नक्सलियों के मारे जाने और भारी संख्या में नक्सलियों के आत्मसमर्पण करने का संकेत बिल्कुल साफ है कि अब इनकी कमर टूटती जा रही है. साल 2010 के आंकड़ों के हिसाब से देश के तकरीबन छठवें हिस्से में नक्सलवाद का असर था. झारखंड, बिहार, छत्तीसगढ़, आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, ओडिशा, पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के कुल 96 जिलों में आतंकवाद का खूनी पंजा फैला हुआ था.

वैसे तो हर सरकार नक्सलियों के खिलाफ अभियान चलाती रही है, पर इसमें तेजी केंद्र में मोदी सरकार के आने के बाद आयी. नक्सलवाद को ज्यादातर सरकारें कानून और व्यवस्था का मामला मानती रहीं. मोदी सरकार ने इसे कानून-व्यवस्था का मामला तो माना, इसे सामाजिक नजरिये से भी देखना शुरू किया. कहा जाता रहा है कि जहां शोषण की अर्थव्यवस्था रही, वहीं नक्सलवाद को पनपने का ज्यादा मौका मिला. शायद इसी वजह से नक्सल प्रभावित इलाकों में विकास के पहिये को तेजी से दौड़ाने की तैयारी हुई. सड़कों और रेल लाइन की पहुंच नक्सल प्रभावित इलाकों में बढ़ाने की शुरुआत हुई.

बीते आठ साल में 10,718 करोड़ की लागत से नक्सल प्रभावित इलाकों में करीब 9,356 किमी सड़कों का निर्माण किया गया. केंद्रीय बलों द्वारा स्थानीय आबादी के लिए स्वास्थ्य शिविर लगाये जाने शुरू हुए. पेयजल सुविधा बढ़ाने और सोलर लाइट की सुविधा देने के साथ ही खेती के उपकरण और बेहतर बीज देने की कोशिश तेज हुई. गृह मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार, 2014 से अब तक इन मदों में करीब 140 करोड़ रुपये के काम किए जा चुके हैं. डाक विभाग ने नक्सल प्रभावित 90 जिलों में, हर तीन किलोमीटर पर सिर्फ आठ साल में ही 4,903 नये डाकघर खोले हैं. अप्रैल, 2015 से अब तक 30 सर्वाधिक नक्सल प्रभावित जिलों में 1,258 नयी बैंक शाखाएं और 1,348 एटीएम लगाये गए हैं. संचार सुविधा बढ़ाने के लिए पहले चरण में 4,080 करोड़ की लागत से 2,343 मोबाइल टावर, तो दूसरे चरण में 2,210 करोड़ से 2,542 मोबाइल टावर लगाये जा रहे हैं. वहां 245 एकलव्य आदर्श आवासीय विद्यालय बनाने की तैयारी है, जिनमें से 121 काम शुरू कर चुके हैं. नक्सलवाद वैसे क्षेत्रों में तेजी से पनपा, जहां गरीबी ने जड़ें जमा रखी थी. पर 2014 के बाद हालात बदले.

उग्रवादी समूहों को हो रही फंडिंग पर रोक लगाने के लिए चौकसी भी बढ़ायी गयी. इसके तहत नक्सल प्रभावित राज्यों ने जहां 22 करोड़ की संपत्ति जब्त की, वहीं प्रवर्तन निदेशालय ने तीन और एनआइए ने पांच करोड़ रुपये की संपत्ति जब्त की. नक्सली हिंसा की जांच के लिए एनआइए में अलग से एक सेक्शन बनाया गया, जिसे अब तक 55 मामलों की जांच सौंपी जा चुकी है. ऐसे ही, विशेष कार्रवाई के लिए विशेषज्ञ सुरक्षा बलों पर जोर दिया गया और सूचनाएं साझा करने का नेटवर्क विकसित किया गया. नक्सलरोधी ऑपरेशन के लिए केंद्रीय और राज्यों की विशेष ऑपरेशन टीमें गठित की गयीं. सुरक्षा बलों और नक्सलियों पर निगाह के लिए तकनीक को बढ़ावा भी दिया गया. इसके तहत लोकेशन मोबाइल फोन और दूसरी तकनीक सुरक्षा बलों को मुहैया करायी गयी. ड्रोन कैमरों से नक्सलियों पर निगाहबानी शुरू हुई और विशेष ऑपरेशन के लिए हेलीकॉप्टर सेवा शुरू की गयी. इस संदर्भ में गृह मंत्री अमित शाह ने संसद में बताया भी कि नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में प्रमुख जगहों पर सीआरपीएफ और इसकी विशेष इकाई ‘कोबरा’ ही माओवादियों से लोहा ले रही है. इन बलों ने ऐसी रणनीति बनायी है, जिसमें नक्सलियों के पास दो ही विकल्प बचे हैं, ‘सरेंडर’ करो या ‘गोली’ खाओ. अब ऐसा कोई इलाका नहीं बचा है, जहां सुरक्षा बलों की पहुंच न हो. वे महज 48 घंटे में ‘फॉरवर्ड ऑपरेटिंग बेस’ स्थापित कर आगे बढ़ रहे हैं. नक्सलियों के लिए जंगलों में अधिक दूरी तक पीछे भागना भी संभव नहीं, क्योंकि उनकी सप्लाई चेन कट चुकी है. इतना ही नहीं, नक्सलियों की नयी भर्ती तो पूरी तरह बंद हो चुकी है. इसके अलावा घने जंगलों में स्थित नक्सलियों के ट्रेनिंग सेंटर भी तबाह किये जा रहे हैं. नक्सल प्रभावित इलाकों में अमन-चैन बहाल हो और बिना खून बहाये लोग अपनी शिकायत लोकतांत्रिक ढंग से रख सकें, इसका विरोध शायद ही कोई करेगा. लेकिन व्यवस्था को यह भी देखना होगा कि भविष्य में ऐसे हालात फिर ना बनें, जिससे नक्सलवाद को पनपने को मौका मिले, क्योंकि विचार केंद्रित एक्शन भले ही रुक जाये, लेकिन विचार कभी नहीं मरते.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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