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मोहन भागवत का संवाद संघ की वैश्विक स्तर पर भूमिका का उद्घोष, पढ़ें प्रो राकेश सिन्हा का खास लेख

Mohan-Bhagwat : मोहन भागवत ने 240 मिनटों के भाषण में 236 मिनट तक उनकी चर्चा की, जिन बातों से देश-दुनिया जूझ रहे हैं, परंतु इसकी आसान तरीके से उपेक्षा कर बौद्धिक वर्ग उनके सार्वजनिक जीवन में 75 वर्ष की सीमा और भाजपा के साथ संग संबंधों पर उठे प्रश्नों में उलझा हुआ है.

प्रो राकेश सिन्हा, पूर्व राज्यसभा सांसद

Mohan-Bhagwat : राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डॉ मोहन भागवत का विज्ञान भवन में तीन दिन का व्याख्यान एक से अधिक कारणों से महत्वपूर्ण है. उनमें से एक संघ की वैश्विक स्तर पर भूमिका का उद्घोष का है. भागवत का यह संकल्प कुछ लोगों को अतिशयोक्ति लग सकता है, जैसे इसके संस्थापक डॉ हेडगेवार द्वारा 1925 में छोटे बच्चों की शाखा शुरू कर भविष्य में संघ की राष्ट्रीय भूमिका का संकल्प लोगों को अतिशयोक्ति लगा था. इतिहास ने डॉ हेडगेवार को सही साबित कर दिया. उनका उपहास एवं विरोध करने वाली शक्तियां स्वयं सिमटती जा रही हैं.

एक समय संघ से सहमति रखने वालों को कांग्रेस में अधिनायकवादी तरीके से दबाया गया. एक घटना उल्लेखनीय है. वर्ष 1949 में कानपुर के कांग्रेस अधिवेशन के जुलूस में किसी व्यक्ति द्वारा संघ विरोधी नारा लगाने पर इसके अध्यक्ष पट्टाभि सीतारमैया ने जुलूस में शामिल होने से मना कर दिया था. वह तभी शामिल हुए, जब उस व्यक्ति ने माफी मांगी. उस पर भी पट्टाभि को नेहरू की आलोचना का सामना करना पड़ा था. इन परिस्थितियों को पार कर संघ आज दुनिया का सबसे बड़ा स्वयंसेवी संगठन बन गया है, जिसके पास चार हजार प्रचारक और लगभग साढ़े पांच लाख लोग छोटे-बड़े दायित्वों से जुड़े हैं. इसके बावजूद भारत के बौद्धिक यथार्थ को स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं. उनका प्रशिक्षण कैसा है और बौद्धिक विमर्श में क्षरण कितना हुआ है, वह साफ दिखाई पड़ रहा है.

मोहन भागवत ने 240 मिनटों के भाषण में 236 मिनट तक उनकी चर्चा की, जिन बातों से देश-दुनिया जूझ रहे हैं, परंतु इसकी आसान तरीके से उपेक्षा कर बौद्धिक वर्ग उनके सार्वजनिक जीवन में 75 वर्ष की सीमा और भाजपा के साथ संग संबंधों पर उठे प्रश्नों में उलझा हुआ है. ये दोनों विषय कौतूहल के कारण तो हो सकते हैं, पर विमर्श वहां पर ठहर जाए, यह कितना उचित है? मोहन भागवत ने जिन तीन चुनौतियों को प्रमुखता से सामने रखा, उनमें पहला है परिवार संस्था में हो रहा क्षरण और बढ़ती व्यक्तिवादी संस्कृति. संघ का ‘कुटुंब प्रबोधन’ उपक्रम इस समस्या को संबोधित कर रहा है. भागवत ने इसी क्रम में तकनीकी के बच्चों पर पड़ते नकारात्मक प्रभाव का जिक्र भी किया. पूरी दुनिया इससे चिंतित है. प्रो राधाकुमुद मुखर्जी ने 1960 के दशक में अपनी पुस्तक ‘सिकनेस ऑफ सिविलाइजेशन’ में इससे सभ्यता के बीमार होने का खतरा बताया था.


दूसरी चुनौती दुनिया में बढ़ रही अमीरी-गरीबी की खाई है. आज संसार का 76 प्रतिशत संसाधन एक फीसदी लोगों के कब्जे में है. यह खतरे की घंटी की तरह है. और तीसरी चुनौती है समाज में घटती ‘सद्‌भावना’ एवं ‘उदारता’. अविश्वास और टकराव हिंसा को बढ़ा रहा है. उन्होंने ‘अपनेपन’ द्वारा ‘मोलजोल’ की संस्कृति को विस्थापित करने की बात कही. इन बातों का संबंध जितना भारत से है, उससे कई गुना अधिक नैरोबी से न्यूयार्क तक है. विडंबना देखिए, जब भारत से बाहर सामाजिक आंदोलनों द्वारा मानवीय प्रश्नों की चर्चा होती है, तब वह वैश्विक विमर्श का हिस्सा बन जाता है, पर हम वैश्विक विमर्श में अपनी भूमिका के लिए मानसिक रूप से तैयार नहीं हैं. संघ इसका अपवाद है. मोहन भागवत का पूरा भाषण औपनिवेशिक या यूरोपीय प्रभाव से मुक्त दस्तावेज है. इन तीन चुनौतियों का संज्ञान देर-सबेर सबको लेना ही पड़ेगा. फिर भी आलोचकों का यह प्रश्न नाजायज नहीं है कि जो संगठन एक समुदाय विशेष तक सीमित है, वह वैश्विक भूमिका कैसे निभा सकता है.


मोहन भागवत ने इसी संदर्भ में ‘हिंदू’ शब्द को संकीर्णता से बाहर निकालने का काम किया है. यह जातिवाचक कम, भाववाचक अधिक है. भारत की सभ्यता और संस्कृति से जुड़े लोग पूजा पद्धतियों के अंतर के बावजूद उन्नीसवीं शताब्दी तक हिंदू ही कहलाते थे. प्रकारांतर में शब्द के अर्थ में स्खलन हुआ और यह समुदाय सूचक बन कर रह गया. संघ ने हिंदू शब्द के मूल अर्थ को पुनर्जीवित करने का कठिन प्रयास शुरू किया है.


संघ अपने उद्देश्य को छिपाता नहीं है, न ही दूसरे को भ्रम में रखता है. हिंदू राष्ट्र की अवधारणा संघ की आत्मा है, पर यह भी गौरतलब है कि इसके हिंदू राष्ट्र का दृष्टिकोण ‘सांप्रदायिक राज्य’ कतई नहीं है. संघ के आलोचक हिंदू महासभा की सोच को संघ पर थोपते रहे हैं. यह एक तरह से संघ के वैचारिक अस्तित्व पर सवाल है. अगर हिंदू महासभा का दृष्टिकोण ठीक होता, तो डॉ हेडगेवार को संघ की स्थापना करने की जरूरत नहीं पड़ती. मोहन भागवत ने ठीक ही कहा कि नकारात्मक आधार पर बने संगठनों में इतने लंबे समय तक और व्यापकता के साथ चलने की क्षमता नहीं होती है. हिंदू संगठन होने का अभिप्राय उन्होंने बताया, ‘संघ के निर्मित होने का प्रयोजन भारत है, संघ के चलने का प्रयोजन भारत है, संघ की सार्थकता भारत को विश्वगुरु बनाने में है.’


इसी क्रम में उन्होंने नये राष्ट्रवाद का प्रतिपादन किया. यह भारत को वैश्विक पटल पर भूमिका के लिए तैयार करने में स्वयं को ‘राष्ट्र प्रथम’ और संवैधानिक नैतिकता से जोड़ना है. सिक्के का दूसरा पहलू भी है. भागवत ने मुस्लिम और ईसाई समुदायों से भारत की विरासत से जुड़ने की अपेक्षा रखी है. उनके लिए हिंदुओं से संवाद करने, सामाजिकता बढ़ाने का अवसर है. नहीं भूलना चाहिए कि भागवत का यह भाषण देश के सामाजिक-सांस्कृतिक आंदोलनों में उदार लोकतंत्र का समावेश करता है. साधारणतया ऐसे आंदोलन लोकतांत्रिक परिधि से बाहर रहते हैं.


मोहन भागवत ने सर्वसमावेशी समाज की अवधारणा द्वारा ‘जातीय अभिमान’ और ‘अस्पृश्यता’ को समाप्त करने के लिए युद्ध स्तरीय प्रयास की घोषणा की. संघ इन दो बुराइयों से पहले भी लड़ता रहा है, पर अब यह उसके पंच परिवर्तन का हिस्सा है. मोहन भागवत ने कहा कि संघ को सामाजिक, आर्थिक परिवर्तन का ऐसा उदाहरण बनना है कि प्रत्येक राष्ट्र अपने यहां ‘राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ’ बनाने की इच्छा प्रकट करने लगे.


संघ के इतिहास का अधिकांश भाग राज्य से टकराव का रहा है, लेकिन कालचक्र ने इसे बदला है. संघ भारतीय राज्य को वैचारिक बुनियाद दे रहा है, लेकिन यह सत्ता परिवर्तन के लाभ की सीमा को भी जानता है. मोहन भागवत ने ठीक ही कहा है कि मौलिक परिवर्तन के लिए समाज की सोच, विश्वास और सामूहिक चेतना में परिवर्तन अनिवार्य है. अतः व्यवस्था परिवर्तन इसका अगला कदम है. देश में टीवी स्टूडियो से लेकर सार्वजनिक मंचों पर प्रदूषित विमर्श के बीच मोहन भागवत का भाषण नयी रोशनी की तरह है.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

Prabhat Khabar Digital Desk
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