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बरकरार है ममता बनर्जी की लोकप्रियता

ममता बनर्जी बेहद समझदार राजनेता हैं. जहां भाजपा के सफल नहीं होने और ममता बनर्जी की बड़ी जीत के कारणों का सवाल है, तो भाजपा बंगाल की पार्टी नहीं बन सकी है.

साल 2024 के लोकसभा चुनाव में सीटें गंवाने के बावजूद पश्चिम बंगाल में भाजपा एक सफल कहानी रही है, क्योंकि उसे पहले कामयाबी मिल चुकी है. हाल तक राज्य में पार्टी की कोई उपस्थिति नहीं थी. जनसंघ के संस्थापक श्यामा प्रसाद मुखर्जी बंगाल से ही थे. मुझे याद है, जब वाजपेयी-आडवाणी दौर में भाजपा को कोलकाता नगर निगम में दो सीटें हासिल हुई थीं, तब पार्टी ने खूब जश्न मनाया था.

उस समय लालकृष्ण आडवाणी, वे तब केंद्रीय गृह मंत्री थे, ने बयान दिया था कि भाजपा ने पश्चिम बंगाल में अपना खाता खोला है. उस समय से अब तक भाजपा बहुत आगे जा चुकी है. विधानसभा में उसके 77 विधायक हैं. राज्य से राज्यसभा में भी भाजपा की एक सीट है. भाजपा की इस तेज बढ़त से विपक्ष की राजनीतिक जगह को लेफ्ट और कांग्रेस हासिल नहीं कर सके. लेफ्ट तो शून्य के स्तर पर पहुंच चुका है. पिछले विधानसभा चुनाव में लेफ्ट फ्रंट और कांग्रेस का एक भी उम्मीदवार नहीं जीत सका था, जबकि एक नयी बनी मुस्लिम पार्टी आइएसएफ का एक उम्मीदवार विधायक बनने में सफल रहा था. इस बार के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने बहुत कोशिश की थी, लेकिन उसे सफलता नहीं मिली.

लोकसभा चुनाव के प्रचार अभियान के तहत प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह की अनेक सभाएं एवं रैलियां हुईं. भाजपा का अपना तरीका है नयी पीढ़ी के नेताओं को प्रोत्साहित करने का. प्रधानमंत्री मोदी ने संदेशखाली में पार्टी की उम्मीदवार रेखा पात्रा से फोन पर बात की थी. उन्होंने कृष्णानगर से उम्मीदवार रानी मां को भी फोन किया था. यह बड़प्पन ही है कि मंच पर रेखा पात्रा भाषण दे रही हैं और प्रधानमंत्री मोदी उनको सुन रहे हैं, लेकिन ममता बनर्जी एक बेहद समझदार राजनेता हैं. जहां तक इस चुनाव में भाजपा के सफल नहीं होने और ममता बनर्जी की बड़ी जीत के कारणों का सवाल है, तो मेरी दृष्टि में सबसे प्रमुख वजह यह है कि भाजपा बंगाल की पार्टी नहीं बन सकी है.

बंगाल में हिंदी भाषी भी हैं, पर अधिकांश लोग तो बंगाली ही हैं. भाजपा अखिल भारतीय पार्टी बने, पर उसे बंगाल की पार्टी भी होना होगा. जब राज्य भाजपा के अध्यक्ष पद से विष्णुकांत शास्त्री को हटाकर तपन सिकदर को कमान दी गयी थी, तब आडवाणी जी ने मुझसे कहा था कि शास्त्री सरनेम लेकर पश्चिम बंगाल में राजनीति नहीं की जा सकती है, इसीलिए सिकदर को लाया गया है, जो बंगाली हैं. शास्त्री जी अच्छे नेता थे. वे विद्वान व्यक्ति भी थे और कोलकाता विश्वविद्यालय के प्रतिष्ठित प्राध्यापक थे. वे पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की कविताओं के अनुवादक भी थे. वे राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य के भी शिक्षक रहे थे. इसके अलावा वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से भी संबद्ध रहे थे.

भाजपा ने मुख्य रूप से ममता-विरोधी अभियान चलाया. शुभेंदु अधिकारी ने उन्हें चोर तक कहा. इससे ममता बनर्जी को सहानुभूति मिली. यदि भाजपा तृणमूल सरकार के विरुद्ध अभियान चलाती, तो ऐसा नहीं होता. शुभेंदु अधिकारी सीबीआइ, इडी आदि एजेंसियों के प्रवक्ता के रूप में व्यवहार करने लगे थे.

अभी भाजपा के अध्यक्ष सुकांतो मजूमदार बंगाली ही हैं. शुभेंदु अधिकारी को भी पार्टी में लाया गया. इस तरह मोदी-शाह की रणनीति तो ठीक है, पर बंगाली मानस को ठीक से समझने की आवश्यकता है. जब राम मंदिर का मुद्दा अयोध्या में सफल नहीं हुआ, तो बंगाल में कैसे हो सकता है? इसका मतलब यह नहीं है कि बंगाल के लोग राम विरोधी हैं. बंगाल की मुख्य देवी मां काली हैं और यहां के लिए दक्षिणेश्वर एवं कालीघाट अधिक महत्वपूर्ण है. बंगाल की संस्कृति में एक नास्तिक भी हिंदू हो सकता है. इसलिए उत्तर भारत में हिंदुत्व का जो मॉडल कारगर होता है, उसे पश्चिम बंगाल में थोप देना अच्छी बात नहीं है.

दूसरी बड़ी वजह है ममता बनर्जी की लोकलुभावन राजनीति. उदाहरण के लिए, हर गरीब महिला को हर महीने एक हजार रुपये देने की योजना बहुत प्रभावी साबित हुई है. इस राशि में चुनाव से पहले बढ़ोतरी भी हुई थी. ममता बनर्जी ने अपने प्रचार अभियान में यह भी कहा था कि अगर भाजपा जीतती है, तो वह इस योजना को बंद कर देगी. भाजपा के भी एक धड़े ने इस योजना को गलत बताया था. ऐसे अनेक कार्यक्रम चल रहे हैं. जैसे, एक स्वास्थ्य बीमा योजना है, जिसमें कोई भी महिला अपना मुफ्त इलाज करा सकती है. ऐसी योजनाओं का लाभ ममता बनर्जी को मिला. उन्हें मुस्लिम मतों के एकजुट होने का भी फायदा मिला. तीसरी वजह है कि भाजपा ने मुख्य रूप से ममता-विरोधी अभियान चलाया. शुभेंदु अधिकारी ने उन्हें चोर तक कहा. इससे ममता बनर्जी को सहानुभूति मिली. यदि भाजपा तृणमूल सरकार के विरुद्ध अभियान चलाती, तो ऐसा नहीं होता.

चौथी बात है कि शुभेंदु अधिकारी सीबीआइ, इडी आदि एजेंसियों के प्रवक्ता के रूप में व्यवहार करने लगे थे. वे कहते थे कि अब इनके खिलाफ कार्रवाई होगी, अब उनके खिलाफ कार्रवाई होगी. भ्रष्टाचार रोकने और दोषियों को पकड़ने की बात ठीक है, लेकिन इसकी आड़ में विरोधियों को डराने-धमकाने की कोशिश हुई. इससे ऐसा संदेश गया कि भाजपा एजेंसियों के सहारे राजनीतिक लाभ लेने का प्रयास कर रही है. इस बात को ममता बनर्जी भी अपने भाषणों में कहती रहीं. पांचवीं वजह है कि तृणमूल कांग्रेस ने इंटरनेट और सोशल मीडिया का अधिक इस्तेमाल किया है, जबकि प्रधानमंत्री मुख्यधारा की मीडिया को इंटरव्यू देते रहे.

उन्होंने बंगाल के ऐसे चैनलों को भी इंटरव्यू दिया, जिनकी टीआरपी बहुत कम है. डिजिटल मीडिया और सोशल मीडिया के अधिक इस्तेमाल की योजना के सूत्रधार अभिषेक बनर्जी थे. उन्होंने भाजपा के आक्रामक आरोपों, जैसे संदेशखाली प्रकरण, का तुरंत जवाब देने की रणनीति भी अपनायी. संदेशखाली में उन्होंने एक भाजपा नेता का ही स्टिंग ऑपरेशन कर दिया, जिसमें बताया गया कि यह मामला एक राजनीतिक साजिश भर है.

राज्य में सांगठनिक स्तर पर भाजपा का कमजोर रहना भी परिणामों में एक कारक रहा है. साथ ही, भाजपा के पास एक भरोसेमंद चेहरे का अभाव भी है. उत्तर प्रदेश में जैसे योगी आदित्यनाथ हैं, मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान हैं, वैसे पश्चिम बंगाल में भाजपा का कोई कद्दावर नेता नहीं है. इसमें कोई दो राय नहीं है कि राज्य में प्रधानमंत्री मोदी की भी बहुत अधिक लोकप्रियता है, पर उनके संदेश को घर-घर तक पहुंचाने के लिए ठोस सांगठनिक मशीनरी नहीं है. इस बार भाजपा ने अपने अभियान में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को पहले की तरह शामिल नहीं किया. दोनों के बीच कुछ खटास भी रही, जिसके कारण संघ उतना सक्रिय नहीं दिखा. परिणाम के बाद भाजपा के भीतर शुभेंदु अधिकारी के खिलाफ कुछ नेताओं ने मोर्चा खोल दिया है. अगर भाजपा अपनी कमियों को दूर नहीं करती है, तो 2026 के विधानसभा चुनाव में भी उसे बहुत नुकसान हो सकता है. (ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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