-पल्लवी कुमारी -सारंग गायकवाड़-
Apaar ID : विकी मुंडा रांची के निकट रातू में एक सरकारी स्कूल में पढ़ने वाला बच्चा है. उसके आधार कार्ड पर नाम ‘बिक्की मुंडा’ लिखा है, जबकि स्कूल रजिस्टर में ‘विकी मुंडा’ लिखा गया था, क्योंकि आधार कार्ड में जनसांख्यिकीय विवरण डाटा-एंट्री ऑपरेटरों ने जल्दबाजी में भरे थे. इसके कारण विकी के माता-पिता व शिक्षकों को गंभीर समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है. विकी के शिक्षक उसके लिए ‘अपार नंबर’ जेनरेट नहीं कर पा रहे. यह एक विशेष पहचान संख्या है, जो बच्चों को डिजिलॉकर उपलब्ध करायेगी. इसके स्वैच्छिक होने का दावा किया गया है, पर यह अनिवार्य हो गया है. अधिकांश माता-पिता उस ‘स्वीकृति फॉर्म’ को नहीं समझते, जो उनसे साइन करवाया जाता है.
अपार नंबर बनाने के लिए जरूरी है कि बच्चे का नाम आधार कार्ड और यूडीआइएसइ डाटाबेस, दोनों में समान हो. यूडीआइएसइ (यूनिफाइड डिस्ट्रिक्ट इंफॉर्मेशन सिस्टम फॉर एजुकेशन) शिक्षा विभाग का एक डाटाबेस है. झारखंड में, यूडीआइएसइ में बच्चों के नाम एक पुराने डाटाबेस ‘ई-विद्या वाहिनी’ से आयात किये गये थे और ये नाम स्कूल रजिस्टरों पर आधारित थे. आज उनमें से कई नाम आधार कार्डों से मेल नहीं खाते. अगर एक ही अक्षर के अंतर की बात है, तो अपार जेनरेशन सॉफ्टवेयर स्थानीय शिक्षक या ऑपरेटर को इसे ठीक करने की अनुमति देता है. पर यदि गलती ज्यादा हो- जैसा कि विकी मुंडा के मामले में है- तो अपार नंबर नहीं बनाया जा सकता.
वैसे में कुछ शिक्षक माता-पिता से कहते हैं कि वे बच्चे का नाम आधार में बदलवाएं, ताकि वह यूडीआइएसइ से मेल खा सके. पर आजकल बच्चों के आधार कार्ड में सुधार कराना मुश्किल हो गया है. इसके लिए दस्तावेजों की जरूरत होती है, जो अक्सर उनके पास नहीं होते. उसमें समय और पैसे भी लगते हैं. दूसरा विकल्प यह है कि शिक्षक एक फॉर्म भरकर जिला कार्यालय भेज दें और सुधार का अनुरोध करें. पर इसमें भी समय और ध्यान लगता है. शिक्षक अन्य जरूरी कामों में व्यस्त होते हैं. और यदि फॉर्म जिला को भेज भी दें, तो सुधार होने में लंबा समय लग सकता है, यदि हो पाये तो. इन तकनीकी समस्याओं के कारण झारखंड में लाखों बच्चों के अपार नंबर नहीं बन पा रहे.
करीब एक साल से शिक्षकों पर अपने छात्रों के लिए सौ फीसदी अपार नंबर जेनरेशन का लक्ष्य पूरा करने का बहुत दबाव है. कभी-कभी उनको कहा जाता है कि यदि वे यह लक्ष्य समय पर पूरा नहीं करेंगे, तो उनकी तनख्वाह रोकी जा सकती है. पर अधिकांश शिक्षक इसे पूरा नहीं कर पा रहे. इस प्रक्रिया में उनका समय व्यर्थ हो रहा है, जो उन्हें पढ़ाने से रोकता है. याद रखें, झारखंड के लगभग एक-तिहाई सरकारी प्राथमिक विद्यालयों में एक ही शिक्षक है.
फरवरी और मार्च, 2025 में हमने लातेहार जिले के मनिका ब्लॉक में एक-शिक्षक वाले स्कूलों का सर्वेक्षण किया. मनिका प्रखंड में आधे सरकारी प्राथमिक स्कूलों में एक ही शिक्षक है. इन एक-शिक्षक स्कूलों में औसतन 59 बच्चे नामांकित हैं. कुछ स्कूलों में सौ से भी ज्यादा बच्चे हैं. इन स्कूलों की हालत बहुत बदतर थी. जैसे, 20 फीसदी से कम स्कूलों में कार्यशील शौचालय था. सर्वे के दिन एक-तिहाई बच्चे ही उपस्थित थे. ऐसे में, शिक्षकों की प्रमुख चिंता यह थी कि वे सौ फीसदी अपार जेनरेशन का लक्ष्य हासिल नहीं कर पा रहे थे. उस समय इन स्कूलों में नामांकित बच्चों में से सिर्फ 51 फीसदी बच्चों के पास अपार नंबर था. उन स्कूलों में सात फीसदी बच्चे ऐसे थे, जिनके पास आधार कार्ड ही नहीं था.
एक उदाहरण है रिया- इसके माता-पिता नहीं हैं, वह अपने दादा-दादी के साथ कांकत्वा गांव में रहती है. जन्म प्रमाणपत्र होने के बावजूद उसका आधार नंबर नहीं बन पाया है. कारण यह कि ऑपरेटर कंप्यूटर से बने जन्म प्रमाणपत्र की मांग कर रहे हैं. एक और उदाहरण है पोखरी गांव की प्रिया का. उसकी मां के नाम जन्म प्रमाणपत्र में ‘रिंकी देवी’ लिखा है, पर आधार कार्ड में ‘रिंकू देवी’. ऑपरेटर के मुताबिक, इस अंतर को ठीक किये बिना प्रिया को आधार नंबर नहीं दिया जा सकता. आधार नहीं होने के कारण रिया और प्रिया अपार नंबर से वंचित हो रही हैं.
एक हफ्ता पहले हमने फिर से फोन पर इन शिक्षकों से संपर्क किया. पता चला कि अब भी अपार नंबर बनाने का काम अधूरा है. मनिका के एक-शिक्षक स्कूलों में अपार कवरेज 51 फीसदी से बढ़ कर 73 फीसदी हुआ है, पर अब भी 27 फीसदी बच्चों के पास अपार नंबर नहीं है. इस काम की शुरुआत को करीब एक वर्ष हो चुका है. अपार नंबर के बिना बच्चों को अनेक दिक्कतें होंगी. स्कूल शिक्षा विभाग इस वर्ष से ही कक्षा नौ से 12 तक की परीक्षाओं में प्रवेश के लिए अपार नंबर अनिवार्य करना चाहता है. ऐसा हुआ तो यह अन्याय होगा. सवाल यह है कि जब बच्चों के पास पहले से आधार नंबर है, तो उन्हें अपार नंबर क्यों लेने को मजबूर किया जा रहा है? जिन शिक्षकों से हमने बात की, उनके पास इसका कोई जवाब नहीं था. यह स्पष्ट है कि डिजिटल बहिष्कार शिक्षा के लिए एक बड़ी बाधा बन रहा है और वंचित समुदायों के बच्चे सबसे ज्यादा पीड़ित हैं.
(ये लेखकत्रय के निजी विचार हैं.)

