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संघर्षविराम के बाद अब सतर्कता भी जरूरी

सवाल ये भी पूछे जा रहे हैं कि क्या पाकिस्तान द्वारा भविष्य में आतंकियों को प्रश्रय न देने की गारंटी मिल गयी? इसका उत्तर बहुत कड़वा है. ऐसी गारंटी भारत को मांगनी जरूर चाहिए. लेकिन जिस पाकिस्तान का राजनीतिक नेतृत्व सेना के बूटों तले दबा हुआ है और जो सेना आतंकी भस्मासुर को जन्म देकर खुद उसका शिकार बन गयी है, उससे मिली गारंटी भी बेमानी होगी.

ऑपरेशन सिंदूर की शानदार सफलता पर भारतीय जनमानस ने एक स्वर में सशस्त्र सेना और राजनीतिक नेतृत्व को बधाई दी. यह जरूरी भी था. हमारी सेना ने आतंकी ठिकानों पर जिस सटीक तरह से कार्रवाई की और नागरिक आबादी को छुआ तक नहीं, वह हमारी सैन्य और तकनीकी क्षमता के साथ-साथ हमारे संयम का भी अद्भुत उदाहरण था. लेकिन उसके बाद हुए संघर्षविराम पर कुछ गिने-चुने विवादी स्वर आभासी पटलों के नक्कारखाने में तूती का किरदार अदा कर रहे हैं. ऑपरेशन सिंदूर के दूसरे चरण के अड़तालीस घंटों के अंदर ही हमारी सेना की स्वर्णिम सफलता पर सवाल उठाना ठीक नहीं. लेकिन भारतीय सेना की आक्रामकता के बाद हुए संघर्षविराम पर प्रश्न किये गये, मानो हमें सैन्य आक्रामकता जारी रखते हुए पाकिस्तान में घुस जाना चाहिए था.

कोई भी देश सैन्य कार्रवाई करने से पहले अपने लक्ष्य जरूर निर्धारित करता है. ऑपरेशन सिंदूर के दूसरे चरण का मूल लक्ष्य आक्रामक था ही नहीं. इसका लक्ष्य आतंकी ठिकानों पर किये गये कारगर हमले से दहले पाकिस्तान के युद्धोन्मादी सेना प्रमुख की गैरजिम्मेदाराना हरकतों का मुंहतोड़ जवाब देना भर था. ध्यान रहे कि इस सीमित मुठभेड़ को दोनों देशों ने संघर्ष की परिधि में ही सिमटे रहने दिया. भारत ने पाकिस्तान के ड्रोन, मिसाइल और लड़ाकू विमानों के हमलों का जवाब उसी की भाषा में दिया. पाकिस्तान ने तो राजस्थान की सरहद पर युद्धोभ्यास के बहाने अपनी स्थल सेना के टैंकों, बख्तरबंद गाड़ियों और तोपों को मोबिलाइज भी किया, लेकिन भारत की स्थल सेना को अग्रिम क्षेत्र में मोर्चे संभालने का कोई आदेश नहीं दिया गया. यहां तक कि हमारी सरहदों की पहली सुरक्षा पंक्ति बीएसएफ (सीमा सुरक्षा बल) को गृह मंत्री अमित शाह ने केवल सतर्क रहने और आवश्यकता पड़ने पर समुचित कार्रवाई करने का ही आदेश दिया. ये सभी तथ्य दिखाते हैं कि भारत ने पाकिस्तानी सैन्य ठिकानों पर कब्जा करने या पाक अधिकृत भारतीय कश्मीर को रौंद कर वापस हमारे गणतांत्रिक कश्मीर में मिलाने का लक्ष्य अपनी सेनाओं को दिया ही नहीं था. हर तरह से छेड़े जाने के बाद भी भारत ने अपना आपा नहीं खोया और परमाणु युद्ध की धमकी जैसी बचकानी हरकत करने से बच कर रहा. हमारी सरहदों पर भुज और जैसलमेर से लेकर श्रीनगर और अवंतीपुरा तक पाकिस्तान ने ड्रोन और मिसाइलों से हमला करने में पहल की थी. उसके जवाब में की गयी भारतीय सेना की संयुक्त कमान द्वारा की गयी मुंहतोड़ कार्रवाई पाकिस्तान का मनोबल तोड़ने में पूरी तरह सफल रही. इसका प्रमाण यह है कि संघर्ष विराम करने का अनुरोध पाकिस्तान के डायरेक्टर जनरल ऑफ मिलिटरी ऑपरेशन (डीजीएमओ) ने अपने भारतीय समकक्ष को फोन करके किया था.

पाक सेना द्वारा 1971 की ढाका शैली में आत्मसमर्पण न करने या पाक सेनाध्यक्ष मौलाना मुनीर द्वारा अपने कृत्यों के लिए खेद प्रदर्शन न करने से जो लोग नाराज या क्षुब्ध हैं, वे या तो भोले हैं या फिर युद्धोन्मादी. जिन परिस्थितियों में पाकिस्तान के अट्ठानबे हजार सैनिकों ने वर्ष 1971 में आत्मसमर्पण किया, वे बिलकुल भिन्न थीं. पाकिस्तान के किसी हिस्से पर कब्जा करने का तो भारत का लक्ष्य कभी नहीं था. हम तो पाकिस्तान से केवल ‘जियो और जीने दो’ की मांग करते हैं. इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि पाक अधिकृत कश्मीर के भारत में विलय की कामना हर भारतीय के मन में है. लेकिन सैन्य ऑपरेशन का उद्देश्य केवल प्रतिरक्षात्मक था. एक सीमित लक्ष्य की दिशा में बढ़ते कदमों को सीमाहीन युद्ध की तरफ मोड़ देना आज की वैश्विक परिस्थितियों में व्यावहारिक नहीं. रूस जैसा सशक्त देश सालों से यूक्रेन में जूझ रहा है, हमास को स्थायी सबक सिखाने का इस्राइल का इरादा बेहद विध्वंसक और लंबे युद्ध में बदल गया.

सवाल ये भी पूछे जा रहे हैं कि क्या पाकिस्तान द्वारा भविष्य में आतंकियों को प्रश्रय न देने की गारंटी मिल गयी? इसका उत्तर बहुत कड़वा है. ऐसी गारंटी भारत को मांगनी जरूर चाहिए. लेकिन जिस पाकिस्तान का राजनीतिक नेतृत्व सेना के बूटों तले दबा हुआ है और जो सेना आतंकी भस्मासुर को जन्म देकर खुद उसका शिकार बन गयी है, उससे मिली गारंटी भी बेमानी होगी. तो क्या हमारे वीर सैनिकों का बलिदान और इतने महंगे हथियारों का प्रयोग व्यर्थ गया? इसका उत्तर है ‘इटरनल विजिलेंस इज द प्राइस ऑफ लिबर्टी’–स्वाधीनता का मूल्य शाश्वत सतर्कता से अदा करना पड़ता है. कुरुक्षेत्र के मैदान में पार्थसारथी, यानी श्रीकृष्ण ने अर्जुन को कर्म करने के लिए प्रेरित किया, यह जानते हुए भी, कि कुरुक्षेत्र में विजय के बाद भी भारत में ‘यदा यदाहि धर्मस्य ग्लानि’ होती रहेगी और उन्हें धर्म के अभ्युत्थान के लिए बार-बार आना पडेगा. पाकिस्तान में जब तक गणतंत्र फौजी बूटों के तले कराहता रहेगा, पाकिस्तान किराये के आतंकियों को पनाह देने के लिए मजबूर होता रहेगा. हालांकि हमने दोटूक कह दिया है कि पाकिस्तान के खिलाफ उठाये गये तमाम कदम जारी रहेंगे और भविष्य में आतंकी हमलों को युद्ध छेड़ने जैसा माना जायेगा. इसके बावजूद पाकिस्तान के चरित्र को ध्यान में रखते हुए हमें सतर्कता भी बनाये रखनी पड़ेगी.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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