-रवींद्र त्रिपाठी-
Asrani : फिल्म और दूसरी कलाओं में भी कुछ मर्तबा ऐसा होता रहा है कि वास्तविक नाम कुछ अलग होता है और चर्चित और परिचित नाम अलग. हिंदी फिल्म जगत में तो अक्सर ऐसा होता रहा. इसके सबसे बड़े उदाहरण तो दिलीप कुमार रहे जिनका वास्तविक नाम यूसूफ खान था. आजकल भोजपुरी के बड़े स्टार खेसारी लाल यादव भी इसके एक उदाहरण हैं जिनका वास्तविक नाम शत्रुघ्न यादव है और ये तब पता चला जब उन्होंने इस बार हो रहे बिहार विधान सभा चुनाव के लिए अपना नामांकन दाखिल किया. बहरहाल ये सब भूमिका इसलिए कि असरानी (1 जनवरी 1941- 20 अक्तूबर 2025) की चर्चा हो सके जिनका पूरा नाम गोवर्धन असरानी था और उनके निधन के बाद ही ज्यादातर लोगों को ये पता चला.
ये भी होता रहा है कि कई बार कोई एक खास तरह की छवि किसी के चिपक जाती है और वो जिंदगी भर उससे साथ जुड़ी रहती है. असरानी के साथ भी ये हुआ और हिंदी भाषी फिल्म प्रेमी समाज में अंग्रेजों के जमाने के जेलर’ रहे.शोले‘ फिल्म के जेलर के रूप में इनकी छवि लोगों के दिमाग में इस तरह घर कर गई कि जब भी उनको किसी और फिल्म में किसी संजीदा भूमिका में भी देखते तो उनको वही याद आता. इसमें संदेंह नहीं कि इस फिल्म में उनकी कॉमिक टाइमिंग और संवाद अदायगी इतनी लाजवाब थी कि दर्शक के मन में स्थायी रूप से बस गई. ऐसा शोले के दूसरे बड़े कलाकार अमजद खान के साथ भी हुआ. वे हमेशा गब्बर सिंह ही रहे. फर्क सिर्फ ये रहा कि अमजद खान ने शोले मे खलनायक की भूमिका निभाई थी और असरानी ने एक कॉमेडियन की.
शोले’ की सफलता में दोनों का योगदान था. कई बार जिंदगी में संयोग की बड़ी भूमिका होती है. असरानी पुणे के फिल्म प्रशिक्षण संस्थान में जया बच्चन (भादुड़ी) के सहपाठी थे और इसका बड़ा लाभ उनको आगे के फिल्मी कैरियर में मिला. जब ऋषिकेश मुखर्जीअभिमान’ फिल्म बना रहे थे तो उसमें अमिताभ बच्चन और जया भादुड़ी मुख्य भूमिका में थे. मुखर्जी साहब उसमें महमूद को भी रखना चाहते थे जो उस समय कॉमेडी के बादशाह माने जाते थे. लेकिन तब तक अमिताभ बच्चन से उनके रिश्ते खराब हो चुके थे. हालांकि महमूद ने आरंभिक दिनों में अमिताभ बच्चन की काफी मदद की थी लेकिन फिल्मी दुनिया में रिश्ते जल्दी बनते और टूटते हैं. खैर, जो भी हआ हो, जया भादुड़ी ने तब असरानी के नाम की संस्तुति की और आगे असरानी भी एक बड़े सितारे बन गए और मरते दम तक रहे. उन्होंने कई तरह की भूमिकाएं की और सबमें सफल रहे. एक बड़े चरित्र अभिनेता के रूप में हमेशा दिखते रहे.
असरानी ने अपने जीवन में कुछ फिल्में भी बनाईं. उनकी कोई भी फिल्म ब्ल़ॉकबस्टर साबित नहीं हुई. शायद ये फिल्में वक्त से पहले बनीं क्योंकि आज के वक्त में जब ओटीटी प्लेटफॉर्म के कारण ऐसी भी फिल्में दर्शकों तक पहुंच रही हैं जो फिल्म जगत की पारंपरिक लीक से हटकर होती हैं, तब शायद असरानी की बनाई और उनके द्वारा निर्देशित फिल्में अपेक्षाकृत ज्यादा स्वीकृति पा पातीं. फिर भी उनकी बनाई एक फिल्म `चला मुरारी हीरो बनने’ हिंदी भाषी समाज में एक लोकप्रिय मुहावरा बन गई. 1977 में जब ये फिल्म आई थी में तो सिनेमाघरों ज्यादा नहीं चली लेकिन इसका जो कथ्य था वो आज भी लोगों के मन में जिंदा है. देश भर में आज भी लाखों लोग, खासकर युवा हैं, जो फिल्मों मे बतौर एक्टर काम करना चाहते (या चाहती) हैं.
वे मुंबई पहुंचते भी हैं और ज्यादातर के ख्वाब अधूरे ही रह जाते हैं. जिन बड़े फिल्मी सितारों पर वे बिछे रहते हैं उनसे मिलने पर उनको एहसास होता है कि उनका तो उन सितारों के सामने कोई वजूद ही नहीं. हालांकि फिल्म हल्के फुल्के और मजाकिया ढंग से ये बात कहती है लेकिन मूल बात वही है – फिल्म नगरी टूटे हुए ख्वाबों की नगरी भी है. असरानी का फिल्मी जीवन इसकी गवाही देता है कि अगर अब बड़े सितारे न भी बन पाएं तो भी अपनी कला के बूते आप लोगों की याद में बने रहते हैं. असरानी हिंदी फिल्म प्रेमी जगत की स्मृतियों में हमेशा बने रहेंगे.

