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रोजगार सृजन के लिए नये उपाय हो

लाखों बेरोजगारों, खासकर ग्रामीण भारत में, को समुचित रोजगार मुहैया कराना देश के सामने मौजूद सबसे बड़ी चुनौतियों में से एक है. यह भी साफ हो चुका है कि कॉरपोरेट पूंजी के बड़े निवेशों पर निर्भर ‘ट्रिकल डाउन’ अर्थशास्त्र में भरोसा रोजगार पैदा करने में विफल रहा है. मुख्य रूप से ऐसा इसलिए है कि कॉरपोरेट पूंजी धीमी गति से रोजगार पैदा कर रही है.

Employment Prospects: रोजगार की मांग बहुत तेजी से बढ़ रही है. विभिन्न कारणों से पर्याप्त मात्रा में निजी पूंजी का निवेश भी नहीं हो रहा है. इसकी एक वजह यह है कि घरेलू बाजार में वस्तुओं और सेवाओं की मांग अपेक्षित नहीं रही है तथा निजी क्षेत्र नीतियों को लेकर दुविधा में रहता है और आर्थिक वृद्धि के प्रति उसकी प्रतिबद्धता भी कमतर होती है. दूसरी ओर, अगर सरकारी विभागों और सार्वजनिक उपक्रमों में सभी खाली पद भर भी दिये जाएं, तब भी रोजगार की समस्या का समाधान बहुत दूर की बात होगी. और, देश, विशेषकर बाढ़ और सूखे के खतरे के साये में रहने वाले ग्रामीण भारत, में यह समस्या गंभीर ही होती जायेगी. इस संदर्भ में शिक्षित बेरोजगारी पर अलग तरीके से देखने की जरूरत है. ये युवा अक्सर स्थानीय स्तर पर कुछ स्व-रोजगार से जुड़े होते हैं, जहां वे कोई खास पेशेवर योगदान नहीं देते. वे ग्रामीण अर्थव्यवस्था, कम लागत के उद्यमों और अपने क्षेत्र के परिवेश को बदल सकते हैं. यह स्थानीय विकास की प्रभावी प्रक्रिया है, जिसमें पूंजी भी कम लगती है. इसके लिए सामूहिक उद्यमिता संरचना की वैकल्पिक व्यवस्था की आवश्यकता है.

सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि कैसे उपलब्ध संसाधनों का उपयोग होता है और कैसे रोजगार के अवसर बनते हैं. उत्पादन प्रक्रिया को हरित तकनीक से जोड़कर बढ़ावा दिया जाना चाहिए. ये छोटे स्तर के उपक्रम हैं, पर इनमें कम ऊर्जा खपत है, प्रदूषण नहीं होता और ये समुदाय की ओर उन्मुख होते हैं. हरित तकनीक में निवेश के माध्यम से इन उपक्रमों में स्थानीय स्तर पर रोजगार सृजन की क्षमता है. कृषि, प्राकृतिक, मानव एवं पशु संसाधनों वाला स्थानीय संसाधन आधार कई तरह की सामूहिक उद्यमिता के लिए द्वार खोलने की संभावना रखता है. इतनी संभावनाओं को परंपरागत रूप से समझा नहीं गया है. इस संदर्भ में एक बहुस्तरीय मॉडल द्वारा एक महत्वाकांक्षी योजना बनायी जानी चाहिए, जिसका प्रारंभ जिला परिषद में एक समिति गठित करने से हो. इसमें लोगों के प्रतिनिधि, तकनीकी विशेषज्ञ, सरकारी अधिकारी आदि हो सकते हैं. इसके बाद स्थानीय स्तर पर उपलब्ध संसाधनों के आधार पर अनेक कृषि-जलवायु क्षेत्र बनाये जाएं. फिर संसाधनों से लेकर बेरोजगार युवाओं, स्वास्थ्य, शिक्षा, कारोबार, विपणन आदि कई पहलुओं का आकलन होना चाहिए.

इस प्रयास में प्रोत्साहन देने के लिए सरकार को सक्रियता दिखानी चाहिए तथा वह विभिन्न वैज्ञानिक एवं तकनीकी संस्थानों, जैसे- केंद्रीय खाद्य तकनीक संस्थान, केंद्रीय विज्ञान एवं तकनीक संस्थान, कृषि विश्वविद्यालय आदि, को इसमें शामिल कर सकती है, जिससे तकनीक का समुचित हस्तांतरण संभव हो सके. इस कवायद का बुनियादी उद्देश्य यह देखना है कि वे कौन से नये उत्पाद प्रसंस्करण/ सेवा हैं, जो इन निर्धारित पारिस्थितिकी क्षेत्र में उभर सकते हैं तथा इन क्रियाकलापों के लिए कौन सी तकनीकें मददगार हो सकती हैं.यह संरचना मूल रूप से पारिस्थितिकी से संबंधित है, जिसमें अलग-अलग प्रजातियां एक साथ अस्तित्व में रहती हैं. प्रजातियां ऐसी संरचनाओं के माध्यम से पर्यावरण को बदल सकती हैं तथा स्वयं और अन्य प्रजातियों का विकास कर सकती हैं. हाल में आयी एक किताब के एक अध्याय में इन पंक्तियों के लेखक ने इसका विश्लेषण किया है. उस अध्याय में कहा गया है कि देश के बहुसंख्यक लोगों की स्थिति को गहराई से समझते हुए रोजगार सृजन के लिए एक वैकल्पिक दृष्टि की आवश्यकता है. आर्थिक संदर्भ में, समुदाय के भीतर से संगठित विभिन्न आर्थिक क्रियाकलापों के लिए एक नये सामूहिक उद्यमिता संरचना या व्यवस्था होनी चाहिए. ऐसी संरचना निर्माण, प्रसंस्करण, मरम्मत, शिक्षा एवं स्वास्थ्य से जुड़ी सेवाएं, व्यापार, विपणन आदि समेत कई तरह की गतिविधियों को बढ़ावा दे सकती है. ये उद्यम सामूहिक होंगे (इसमें व्यक्तिगत स्वामित्व नहीं होगा), पर ये पारंपरिक अर्थों में सहकारी भी नहीं होंगे. इन उद्यमों में कम पूंजी लागत होती है तथा मुख्यधारा की आर्थिक संरचना के वे हिस्सा नहीं होते, जिससे उन्हें तुलनात्मक रूप से स्वायत्तता होती है. यह कामगार सहकारिता का नवीन रूप है, यह कामगारों की स्वतंत्र रचना है, न कि सरकार या बड़ी पूंजी के सहारे चलने वाला उपक्रम. यह सरकार से सहायता ले सकता है, लेकिन उसे यह अच्छी तरह पता है कि वह सरकार से शासित नहीं है. यहां कामगार ही मालिक हैं.

इसके बाद आपूर्ति एवं मांग के पक्षों के बारे में आकलन, सामूहिक उपक्रम में शामिल होने के लिए इच्छुक बेरोजगार युवाओं की पहचान तथा सरकारी एवं निजी सहयोग से निवेश तथा बीज धन के प्रबंधन जैसे आयाम सामने आते हैं. भले ही शुरुआती निवेश का एक हिस्सा सरकार द्वारा मुहैया कराया गया हो, वह सस्ते कर्ज के रूप में होना चाहिए. इस स्तर पर ही निर्धारित कौशल विकास कार्यक्रम उनके लिए प्रभावी हो सकते हैं, जो सामूहिक उपक्रम का हिस्सा बनने की इच्छा रखते हैं. कौशल विकास के लिए जो इंफ्रास्ट्रक्चर सरकार के पास उपलब्ध है, उससे इस मोड़ पर बहुत लाभ मिल सकता है. इसका एकमात्र उद्देश्य ग्रामीण अर्थव्यवस्था को नीचे से विकसित कर देश का आर्थिक विकास सुनिश्चित करना है. इसे हासिल करने का एक ही रास्ता है कि ग्रामीण क्षेत्रों में कम पूंजी लागत वाले सामूहिक उद्यमिता संरचनाओं का गठन हो, जिससे सतत रोजगार मुहैया हो सके. यहीं हम रोजगार के अवसर पैदा करने की उन योजनाओं को बहुत अधिक उपयोगी पा सकते हैं, जिनका वादा भारत सरकार ने अपने बजट में किया है. केंद्रीय बजट में जिन रोजगार योजनाओं का उल्लेख किया गया है, उनके पास समुचित कारण हैं, जो सामुदायिक उद्यमिता संरचना के मॉडल को व्यवहार में लाने के लिए वैधता प्रदान करते हैं. इनसे उपभोक्ता मांग में उल्लेखनीय बढ़ोतरी हो सकती है. छोटे और मध्यम उद्यम मांग में कमी की चुनौती का सामना कर रहे हैं. इस कारण निवेश की धारा बाधित हो रही है तथा अंतत: रोजगार के अवसर नहीं पैदा हो रहे हैं. उद्यमिता की इस नयी संरचना से ग्रामीण अर्थव्यवस्था को उड़ान मिल सकती है.(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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