climate change : यह अक्तूबर का मध्य है, पर अभी भी ऐसा लगता है कि बारिश पीछा छोड़ने को तैयार नहीं है. मौसम विभाग की मानें, तो अक्तूबर में भी बारिश होगी. आम तौर पर मॉनसून के नाम पर सब कुछ सितंबर मध्य तक समाप्त हो जाता था, परंतु इस बार पूरा वर्षा चक्र कुछ अलग ही चला. अब तक भी देश के कई हिस्सों में बादल गरज रहे हैं और बारिश हो रही है. बारिश के कारण पहाड़ों की तो हालत बुरी हो गयी. उदाहरण के लिए, कोसी नदी ने ऐसे समय विकराल रूप धारण किया जब सामान्यतः वर्षा समाप्ति की ओर होती है. नेपाल के पहाड़ों में हुई अतिवृष्टि के कारण कोसी ने एक बार फिर पूरे बिहार में गंभीर प्रभाव दिखाया. देश-दुनिया के अन्य हिस्सों में भी अक्तूबर की बारिश ने एक नये पैटर्न को जन्म दे दिया है.
असल में इस बार जो कुछ हुआ, उसका एक बड़ा कारण पश्चिमी विक्षोभ है, जो सामान्यतः पहले आता था, लेकिन इस बार ग्लोबल वार्मिंग के कारण इसके स्वरूप और समय दोनों बदल गये. कैस्पियन सागर इसका मुख्य केंद्र बन गया है. यहां वाष्पीकरण की दर पिछले दशक में सर्वाधिक रही, जिससे समुद्र के जलस्तर में भी कमी आयी है. वैज्ञानिकों का मानना है कि इसके पीछे प्रमुख कारण धरती का तपना है. वर्ष 1850 के बाद से पृथ्वी का तापमान औसतन 0.11 डिग्री फाॅरेनहाइट प्रति दशक की दर से बढ़ रहा है. यह समझना आवश्यक है कि दुनिया में मॉनसून का व्यवहार मुख्यतः समुद्रों से तय होता है. जब धरती तपती है, तो समुद्र में वाष्प बनता है और वायु दबाव के अंतर के कारण ये हवाएं चलकर वर्षा करती हैं.
इस बार वाष्पोत्सर्जित हवाओं का दबाव इतना अधिक था कि उन्होंने तिब्बत तक को पार कर लिया- जो वैज्ञानिकों के लिए भी हैरानी का विषय रहा. इसे सरल भाषा में समझें, तो पृथ्वी का दो-तिहाई हिस्सा समुद्र है, इसलिए धरती की बढ़ती गर्मी का पहला और बड़ा असर समुद्र पर ही पड़ता है. जब समुद्र का तापमान बढ़ता है, तो उससे अधिक वाष्प उत्पन्न होता है, जो ठंडे क्षेत्रों की ओर बढ़ता है और वहां भारी बारिश करता है. इस बार ये हवाएं हिमालय से अधिक टकरायीं. यही कारण है कि इस बार नेपाल, भारत, अफगानिस्तान और पाकिस्तान, इन सभी देशों में सामान्य से अधिक वर्षा देखी गयी. यह कहना गलत नहीं होगा कि केवल हिमालय ही नहीं, बल्कि दुनिया के कई हिस्सों ने इस बार मौसम की चरम स्थितियों का सामना किया. हाल ही में जिस चक्रवात ने फिलीपींस, मलेशिया और चीन जैसे देशों को प्रभावित किया, वह भी समुद्र की सतह के अधिक गर्म होने का ही परिणाम था. इस बार की अत्यधिक बारिश और उससे हुए भारी नुकसान स्पष्ट संकेत देते हैं कि प्रकृति अब हमारे नियंत्रण से बाहर निकल रही है.
अब प्रश्न यह उठता है कि क्या यह केवल इस वर्ष की कहानी है या आने वाले समय में भी ऐसा ही रहेगा? इसका उत्तर साफ है, ऐसे हालात अब लगातार देखने को मिलेंगे. कारण भी स्पष्ट है, दुनिया का कोई देश ऐसा नहीं जो अपने विकास या जीवनशैली को बनाये रखने के लिए ऊर्जा का अत्यधिक उपयोग न कर रहा हो. सड़कों का निर्माण, वाहनों की बढ़ती संख्या, उद्योगों का विस्तार और हमारी बढ़ती उपभोक्तावादी आवश्यकताएं- सब मिलकर वातावरण को लगातार गर्म कर रही हैं. पिछले कुछ वर्षों में धरती का तापमान लगातार बढ़ा है.
इसके बावजूद दुनियाभर में पर्यावरण पर आयोजित बैठकों और चेतावनियों के बाद भी कोई ठोस कदम नहीं उठाये गये. न तो देशों ने अपनी विकास नीतियों में बदलाव किया और न ही समाज ने अपनी जीवनशैली में संयम दिखाया. जब तक व्यावहारिक परिवर्तन नहीं होंगे, तब तक ऐसे मौसमी असंतुलन बढ़ते रहेंगे. सर्वविदित है कि समुद्र के तपने से ही वर्षा का स्वरूप तय होता है, और जब समुद्र लगातार गर्म हो रहे हैं तो वर्षा के किसी भी महीने में जमकर बारिश होना अब असामान्य नहीं रहेगा. दुर्भाग्य से, हमने अभी तक कोई ऐसी सामूहिक व्यवस्था नहीं बनायी है जिसमें सरकारें, समाज और व्यक्ति एक साथ मिलकर पर्यावरणीय संतुलन के लिए ठोस कदम उठायें. इसका पहला और बड़ा असर फसल चक्रों पर पड़ता है, साथ ही बाढ़ के कारण वे नष्ट भी हो जाते हैं. पंजाब इसका बड़ा उदाहरण है जहां बारिश चार लाख हेक्टेयर में खड़ी फसल लील गयी.
इस स्थिति से निपटने का एकमात्र उपाय यही है कि हम स्थानीय स्तर से पर्यावरण के प्रति सजग होकर शुरुआत करें- अपने गांव, शहर, या क्षेत्र से. इसी उद्देश्य से ‘अलायंस फॉर ग्लोबल एनवायरनमेंट (एजीइ)’ नामक एक अंतरराष्ट्रीय संगठन की स्थापना की गयी है, जिसका उद्देश्य है स्थानीय स्तर पर ऐसे प्रयोगों को प्रोत्साहित करना, जिससे वैश्विक बदलाव की दिशा तय की जा सके. यदि हम अपनी आवश्यकताओं की सीमा तय कर लें और अपने स्तर पर जिम्मेदारी निभायें, तो यही छोटे-छोटे प्रयास आगे चलकर दुनिया के लिए उदाहरण बन सकते हैं. वरना मिट्टी, हवा और पानी की जो स्थिति आज दिख रही है, यदि यह ऐसी ही बनी रही, तो या तो हम सूखे से समाप्त हो जायेंगे, या फिर बाढ़ हमें बहा ले जायेगी. इसके बाद भी जो बचेंगे, उन्हें धरती का तापमान झुलसा देगा.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

