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जयंती विशेष : जेल से योगी बनकर लौटनेवाले क्रांतिकारी अरविंद घोष

Aurobindo Ghosh : लोग कहते हैं कि वह देश की आजादी के दिन जन्मे थे. जबकि सच यह है कि उनका जन्मदिन ही 1947 में देश की आजादी का दिन बन गया. उनकी जितनी आस्था ईश्वर में थी, उतनी ही इंसानियत में भी. इस कारण उनको किसी भी मनुष्य को संदेह की दृष्टि से देखना गवारा नहीं था.

Aurobindo Ghosh : अरविंद घोष का समूचा जीवन एक सतत जीवंत प्रवाह का नाम था. देश की स्वतंत्रता के लिए अपना सब कुछ न्योछावर करने को उद्यत क्रांतिकारी से लेकर कवि-लेखक, आध्यात्मिक राष्ट्रवादी, चिंतक, दार्शनिक, द्रष्टा, महर्षि, योगी और संन्यासी तक का उनका व्यक्तित्व इतना बहुआयामी था कि कोई कितनी भी सतर्कता से उनका परिचय क्यों न दे, कोई न कोई सिरा छूट जाता है.


लोग कहते हैं कि वह देश की आजादी के दिन जन्मे थे. जबकि सच यह है कि उनका जन्मदिन ही 1947 में देश की आजादी का दिन बन गया. उनकी जितनी आस्था ईश्वर में थी, उतनी ही इंसानियत में भी. इस कारण उनको किसी भी मनुष्य को संदेह की दृष्टि से देखना गवारा नहीं था. उनका विश्वास था कि चूंकि सारे मनुष्य परमात्मा का प्रतिरूप हैं, इसलिए वे बुरे हो ही नहीं सकते.
उनके इस विश्वास से जुड़ा उन दिनों का एक वाकया है, जब वह बड़ौदा (अब वड़ोदरा) रियासत में नौकरी करते थे. महीने के अंत में अपना वेतन पाते, तो उसे लाकर वह अपने कमरे की मेज पर रख देते, जिस पर वह लिखा-पढ़ा करते थे. जबकि कमरे में आगंतुकों का आना-जाना लगा ही रहता. उनके रहने पर भी और न रहने पर भी. तिस पर वह उसमें से होने वाले खर्च का भी हिसाब नहीं रखते. एक दिन एक मित्र ने इसे लेकर उन्हें आगाह किया, तो वह बोले, ‘भाई, मेरा मेरा सच्चा व्यवस्थापक तो ईश्वर ही है, और जब मैं उसके प्रतिरूप मनुष्यों के बीच रहता हूं, तो किसी पर अविश्वास क्योंकर करूं?’


वर्ष 1872 में आज के ही दिन कलकत्ता (अब कोलकाता) में एक बंगाली कायस्थ परिवार में उनके पैदा होते ही पिता कृष्णधन घोष, जो पेशे से डॉक्टर थे, उन्हें आईसीएस बनाने का सपना देखने लगे थे. पिता ने पांच साल के होते-होते पहले तो अरविंद को दार्जिलिंग के लॉरेटो कॉन्वेंट स्कूल में भर्ती कराया, फिर दो साल बाद इंग्लैंड भेज दिया. उनकी आगे की शिक्षा-दीक्षा वहीं हुई. अठारह की उम्र में उन्होंने कैंब्रिज विश्वविद्यालय के किंग्स कॉलेज से दर्शनशास्त्र की पढ़ाई पूरी कर ली थी और आईसीएस बनने के पिता के सपने की दिशा में बढ़ चले थे. वर्ष 1890 में उन्होंने उसकी परीक्षा पास भी कर ली थी. पर उसमें चुनाव के रास्ते की अंतिम बाधा वह दूर नहीं कर पाये. उन दिनों आईसीएस में चुने जाने के लिए घुड़सवारी की परीक्षा भी पास करनी पड़ती थी, जिसमें वह विफल रहे. टूटे सपने का बोझ सिर पर लिये वह स्वदेश लौट रहे थे, तो एक और त्रासदी से सामना हो गया. उनके पिता के बंबई (अब मुंबई) स्थित एजेंटों ने एक गलत खबर के आधार पर उन्हें बता दिया कि अरविंद का जहाज पुर्तगाल के तट पर डूब गया. इससे पिता ने सदमे में अपने प्राण त्याग दिये.


स्वदेश आकर अरविंद ने नौकरी करते हुए देखा कि अंग्रेजों की गुलामी से त्रस्त देश ‘आजादी-आजादी’ पुकार रहा है. वह इस पुकार की अनसुनी नहीं कर पाये और आजादी की लड़ाई में कूदने का उन्होंने इरादा बना लिया. उनके भाई बारींद्र (बारीन) घोष ने उन्हें बाघा जतिन, जतिन बनर्जी, सुरेंद्रनाथ टैगोर आदि क्रांतिकारियों से मिलवाया, तो उन्होंने ‘अनुशीलन समिति’ की स्थापना में तो मदद की ही, अहमदाबाद जाकर कांग्रेस के अधिवेशन में हिस्सा लिया, बाल गंगाधर तिलक से मिले और उनके साथ सक्रिय हुए. वर्ष 1905 में बंग-भग (बंगाल के विभाजन) से आहत होकर उन्होंने नौकरी छोड़ दी और ‘वंदे मातरम’ साप्ताहिक के संपादन से जुड़ गये. उस पत्र में विदेशी सरकार के अन्यायों व अत्याचारों के विरुद्ध आवाज बुलंद की, तो वह अंग्रेजों की निगाह में चढ़ गये. उन पर मुकदमा दर्ज किया गया, पर वह बच गये. लेकिन इस तरह कब तक बचते रहते? बंग-भंग के विरुद्ध क्रांतिकारियों द्वारा अंजाम दिये गये ऐतिहासिक अलीपुर बमकांड में शामिल होने को लेकर 1908-09 में उन पर राजद्रोह का अभियोग लगाकर अलीपुर जेल भेज दिया गया.


कहते हैं कि एक दिन जेल में हुई दिव्य अनुभूति के बाद उनका जीवन पूरी तरह बदल गया और वह योग, साधना व तप की ओर मुड़ गये. जेल से निकलने पर वह पूरी तरह बदल चुके थे. वर्ष 1910 में वह पुदुचेरी चले गये और योग-साधना से सिद्धि पाने के प्रयासों में लग गये. अनंतर, वहीं आश्रम की स्थापना की और योग पर कई मानक ग्रंथ लिखे. करीब चालीस वर्ष बाद 1950 में पांच दिसंबर को वहीं उनका निधन हुआ.


उनको स्वयं भी अपने व्यक्तित्व की विराटता का भान हो चला था. इसलिए उन्होंने कहा था कि किसी के लिए उनकी सही जीवनी लिखना संभव नहीं, क्योंकि जो कुछ भी लिखा जायेगा, वह ऊपरी या बाहरी घटनाओं का विवरण होगा. उन्हीं के शब्दों में ‘आंतरिक जीवन का आभास और उद्घाटन भला कौन और कैसे कर सकता है? फिर क्षणिक उल्लास और वैयक्तिक या सामूहिक प्रभाव को उपलब्धि क्योंकर माना जा सकता है?’ (ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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