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जयंती विशेष : आत्मजयी व मानवतावादी कवि थे कुंवर नारायण

Kunwar Narayan : कुंवर नारायण को किशोरावस्था से ही कांग्रेसी-समाजवादी नेताओं का भरपूर सान्निध्य मिलने लगा था, जिसका प्रभाव उनकी साहित्य सर्जना पर भी पड़ा. वे इस प्रभाव को ईमानदारी पूर्वक स्वीकार भी किया करते थे.

Kunwar Narayan : एक अजीब-सी मुश्किल में हूं इन दिनों/मेरी भरपूर नफरत कर सकने की ताकत/दिनोंदिन क्षीण पड़ती जा रही/…हर समय/ पागलों की तरह भटकता रहता/कि कहीं कोई ऐसा मिल जाये/जिससे भरपूर नफरत करके/अपना जी हल्का कर लूं/पर होता है इसका ठीक उल्टा/कोई-न-कोई, कहीं-न-कहीं, कभी-न-कभी/ऐसा मिल जाता/जिससे प्यार किये बिना रह ही नहीं पाता!’


मिथकीय चेतना से संपन्न और ‘आत्मजयी’ कहलाने वाले हिंदी के जाने-माने मानवतावादी कवि कुंवर नारायण (जिन्हें समन्वय व विद्रोह का कवि भी कहा जाता है) ने आठ वर्ष पहले 15 नवंबर, 2017 को इस संसार को अलविदा कहा, तो उनकी ‘एक अजीब-सी मुश्किल’ शीर्षक रचना को उनकी प्रतिनिधि कविताओं में शुमार किया जाने लगा था. स्वाभाविक ही उनकी स्मृतियों के साथ इसकी ऊपर उल्लिखित पंक्तियों को सबसे ज्यादा याद किया गया. यूं तो पांच दशकों से भी अधिक समय की उनकी साहित्य सेवा में इतने आयाम रहे हैं कि आलोचकों द्वारा उनके बारे में कहा जाता है कि अपने निधन के बाद अनुपस्थित रहकर भी वे हमारे बीच ज्यादा उपस्थित रहेंगे.

बहरहाल, 19 सितंबर, 1927 को फैजाबाद (अब अयोध्या) में पिता विष्णु नारायण अग्रवाल के दूसरे बेटे के रूप में जब उनका जन्म हुआ, तो देश अंग्रेजों से मुक्ति की लड़ाई लड़ रहा था और फैजाबाद की सामाजिक चेतना उरूज पर थी. फैजाबाद शहर का उनका घर कांग्रेस के समाजवादियों की गतिविधियों व जमावड़ों का सबसे बड़ा केंद्र हुआ करता था. आचार्य जेबी कृपलानी, सुचेता कृपलानी, आचार्य नरेंद्र देव और डॉ राममनोहर लोहिया जैसे अनेक समाजवादी नेता वहां आते, कई-कई दिनों तक ठहरते और परस्पर लंबा विचार-विमर्श किया करते थे.


यूं तो विष्णु नारायण महाजन थे और जरूरतमंदों को सूद पर रुपये दिया करते थे, परंतु देश और समाज के सरोकारों से अपने जुड़ाव के चलते उन्होंने सुचेता कृपलानी के नाम पर अपने घर का नाम ‘सुचेता सदन’ रख छोड़ा था. घर के इस वातावरण में कुंवर नारायण को किशोरावस्था से ही कांग्रेसी-समाजवादी नेताओं का भरपूर सान्निध्य मिलने लगा था, जिसका प्रभाव उनकी साहित्य सर्जना पर भी पड़ा. वे इस प्रभाव को ईमानदारी पूर्वक स्वीकार भी किया करते थे.

परंतु उनकी इस जन्मभूमि ने उनके निधन के आठ वर्षों में ही उनके प्रति ऐसा अजीबोगरीब बेगानापन ओढ़ लिया है कि उसमें उनकी बहुत कम स्मृतियां बची हैं. यह देखकर उनके सहृदय पाठकों का हृदय बिंधकर रह जाता है. तब से अब तक उनके घर की कम से कम दो बार खरीद-बिक्री हो चुकी है. इसलिए वहां उनकी स्मृतियों से जुड़ा कुछ होने या दिखने का तो प्रश्न ही समाप्त हो गया है. इससे भी बड़ी विडंबना यह कि उनके रहते बेहद गर्व व दर्प से उन्हें अपना अभिभावक बताने वाले उनके अनेक प्रियजनों को अन्य किसी रूप में भी उनकी स्मृतियों की रक्षा की चिंता नहीं सताती‌.

ऐसे में कई लोगों को अवध में प्रचलित यह पुरानी कहावत याद आती है कि घर का जोगी जोगना, आन गांव का सिद्ध. वे कहते हैं कि अपनी जन्मभूमि में कुंवर नारायण की यह बेकद्री इसलिए है कि उनको ‘घर का जोगी’ मान लिया गया है. यह बात इस कारण कुछ ज्यादा ही कही जाती है क्योंकि एक समय यह सपना देखा जाता था कि जैसे अयोध्या के बगल का बस्ती जिला ‘कुंआनो के कवि’ सर्वेश्वरदयाल सक्सेना को अपनी माटी की उपज के रूप में निरंतर याद रखता है, वैसे ही कुंवर नारायण को भी ‘सरयू के कवि’ अथवा ‘अयोध्या के कवि’ के रूप में याद किया जायेगा.


बावजूद इसके कि छुटपन में एक के बाद एक त्रासदियों के चलते अपने अयोध्यावासी परिजनों से उनके तार उनके इस संसार में रहते ही टूटकर रह गये थे. छुटपन में उन दिनों तक पूरी तरह लाइलाज क्षय रोग से असमय ही पहले मां, फिर चाचा और फिर बहन को खोकर उन्होंने अयोध्या छोड़ा, तो अरसे तक वहां वापस लौटने का कोई कारण ही नहीं तलाश सके थे. अनंतर, उनके परिवार ने अयोध्या स्थित अपनी ज्यादातर परिसंपत्तियां बेच डालीं और लखनऊ में नया व्यवसाय आरंभ कर लिया.

कुंवर नारायण ने वहीं विज्ञान के विद्यार्थी के रूप में इंटरमीडिएट की परीक्षा पास करने के बाद साहित्य में अपनी गहन अभिरुचि के कारण आगे का रास्ता बदल लिया और 1951 में लखनऊ विश्वविद्यालय से अंग्रेजी साहित्य में एमए किया. अलबत्ता, अपने निधन से कुछ वर्ष पूर्व तक वे अयोध्या के विमला देवी फाउंडेशन के, जिसके वे संस्थापक सदस्य थे, वार्षिक समारोहों में शिरकत करने आया करते थे. उनकी जन्मभूमि में उनके पिता विष्णु नारायण के नाम की तो एक गली है भी, पर उनसे जुड़ा कुछ नहीं है.
प्रसंगवश, उनकी काव्य यात्रा ‘चक्रव्यूह’ नामक कविता संग्रह से शुरू हुई थी. उसके बाद से इस यात्रा में वे अपने पाठकों में लगातार एक नयी तरह की समझ पैदा करते रहे थे. कहते हैं कि उनके रचनात्मक जीवन की शुरुआत में लखनऊ शहर का विशेष योगदान रहा, परंतु 2017 में जब उन्होंने दिल्ली के सीआर पार्क स्थित अपने घर में अंतिम सांस ली, तो पत्नी भारती गोयनका और बेटा अपूर्व ही उनके साथ थे.

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