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गैर-सरकारी संगठनों से बैर

पवन के वर्मा पूर्व राज्यसभा सदस्य आप कैसा महसूस करेंगे, यदि आपसे यह कहा जाये कि विश्व के इस सबसे बड़े लोकतंत्र में आपको सिर्फ एक मतदाता के अधिकार हासिल होंगे, एक नागरिक के नहीं? मैं इसलिए पूछ रहा हूं कि हमारी सभी सरकारें, और खासकर यह वर्तमान सरकार, नागरिकों की रचनात्मक सक्रियता को राज्य […]

पवन के वर्मा

पूर्व राज्यसभा सदस्य

आप कैसा महसूस करेंगे, यदि आपसे यह कहा जाये कि विश्व के इस सबसे बड़े लोकतंत्र में आपको सिर्फ एक मतदाता के अधिकार हासिल होंगे, एक नागरिक के नहीं? मैं इसलिए पूछ रहा हूं कि हमारी सभी सरकारें, और खासकर यह वर्तमान सरकार, नागरिकों की रचनात्मक सक्रियता को राज्य के दंभपूर्ण अधिकारक्षेत्र के लिए खतरा मानती हैं.

सरकार सिर्फ विनीत मतदाताओं को पसंद करती प्रतीत होती है, जो समय-समय पर सिर्फ उसे मत देने हेतु सक्रिय हों. सरकारें यह भूल जाया करती हैं कि एक जीवंत सिविल सोसाइटी परिपक्व तथा नागरिक आधारित लोकतंत्र की अहम निशानी है.

24 जून, 2016 को सरकार ने लोकपाल एवं लोकायुक्त अधिनियम, 2013 अधिसूचित किया, जिसने आश्चर्यजनक ढंग से गैर-सरकारी संगठनों (एनजीओ) को ‘लोकसेवकों’ की जद में ला दिया.

संघ सरकार से एक करोड़ रुपये अथवा उससे अधिक की निधि अथवा दस लाख रुपये या उससे अधिक की विदेशी निधि प्राप्त करनेवाले एनजीओ के न्यासी, निदेशक तथा पेशेवर प्रबंधक अब ‘लोकसेवक’ माने जायेंगे और उन्हें न केवल अपने, बल्कि पति या पत्नी और आश्रित बच्चों की परिसंपत्तियों या देनदारियों का खुलासा करना होगा. यदि उन्होंने ऐसा नहीं किया, तो उन पर भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम के अंतर्गत कार्रवाई की जायेगी.

यह स्पष्ट है कि इस अधिनियम का प्रारूप जल्दबाजी में तैयार किया गया है और यदि इसे इसी रूप में लागू किया गया, तो यह सिविल सोसाइटी के लिए हतोत्साहित करनेवाला बन जायेगा. भाजपा सरकार एनजीओ को संदेह की निगाह से देखती है. आखिर सरकारें सिविल सोसाइटी की जीवंतता तथा उसका प्रतिनिधित्व करनेवाले इन संगठनों के प्रति ऐसी शत्रुता क्यों रखा करती हैं?

दरअसल, वे यह मानती रही हैं कि लोक कल्याण का एकाधिकार केवल सरकार के पास है, और जो इसमें दखल देता है, उसके साथ शत्रुता का व्यवहार किया ही जाना चाहिए. इस क्षेत्र में पहलकर्ता, प्रेरक तथा प्रमुख निधिदाता के रूप में सरकार की भूमिका केंद्रीय है, पर इसका यह अर्थ नहीं कि इसमें किसी बाहरी भागीदारी या साझीदारी की गुंजाइश ही न हो. व्यवस्था द्वारा राज्य संचालित लोकोपकारिता के एकाधिकार की कोशिशें इसलिए की जाती हैं कि इसके ठीक पीछे बहती आती भ्रष्टाचार की धारा में बाहरी तत्व व्यवधान न डालें.

यह स्पष्ट होता रहा है कि सरकारी कल्याणकारी गतिविधियां अकुशलता, घटिया कार्यान्वयन, उपेक्षा तथा भ्रष्टाचार से चलती बनी होती हैं. यदि सरकार उन्हें वांछित ढंग से अंजाम नहीं दे सकती, तो निजी क्षेत्र तथा व्यक्तियों को इसमें सहभागी बनने का प्रोत्साहन तथा प्रेरणा देने में उसे गुरेज क्यों होता है? सरकार के कल्याणकारी एजेंडे में एनजीओ तीन मुख्य ढंग से योगदान कर सकते हैं. पहला, वे सरकार के साथ भागीदारी कर यह सुनिश्चित कर सकते हैं कि सभी लाभ उनके अभीष्ट लाभुकों तक पहुंच सकें. दूसरा, वे उन लाभों को पहुंचाने में साझीदारी कर सकते हैं.

और तीसरा, स्वतंत्र हितभागियों के रूप में वे ये लाभ लाभुकों तक स्वयं पहुंचा सकते हैं. इस साझीदारी के लिए सरकारी फंडिंग का स्वागत किया जाना चाहिए. विदेशी फंडिंग अपने आप में नकारात्मक नहीं होती. संस्थागत दाता तथा फाउंडेशन अपने कल्याणकारी उद्देश्यों के लिए साझीदार तलाश करते हैं और भारत इस साझीदारी के लिए उन्हें पर्याप्त वैध रास्ते मुहैया करता है. विदेशी फंडिंग के प्रति एक सामान्यीकृत शत्रुता रखना अनावश्यक है.

दुर्भाग्यवश, देश में लोकोपकारिता तथा एनजीओ को प्रोत्साहन देने की मौजूदा शासकीय प्रक्रियाएं अपर्याप्त हैं. योजना आयोग की 2004 की एक रिपोर्ट कहती है कि कानूनों तथा एजेंसियों की बहुलता, दुरूह प्रक्रियाएं, अनुचित रुकावटें व भ्रष्टाचार ने मिल कर देश में लोकोपकारी गतिविधियों का विकास सुस्त कर दिया है. आयोग ने कहा, ‘सरकारों की प्राथमिकताओं में लोकोपकारिता अथवा स्वयंसेवा का स्थान बहुत नीचे है.’

लोकपाल अधिनियम के इस अविवेकपूर्ण प्रावधान ने सिविल सोसाइटी पर नवीनतम प्रहार किया है.

एनजीओ की बड़ी किस्मों के अलावा लोकोपकारियों, डॉक्टरों, शिक्षकों, अस्पतालों तथा शैक्षिक संस्थानों की एक बड़ी तादाद, जो समाज कल्याण की गतिविधियों को फंड, वक्त तथा विशेषज्ञता प्रदान करती है, आज उचित ही आशंकित है कि अधिनियम के अंतर्गत बाध्यकारी खुलासे के इस प्रावधान का दुरुपयोग कर सामाजिक क्षेत्र में काम करते लोगों को निशाना बनाया जायेगा. सरकार को इस कानून की तत्काल समीक्षा करनी चाहिए.

सभी एनजीओ को पारदर्शी ढंग से काम करते हुए कानून के प्रति उत्तरदायी होना ही चाहिए, पर वर्तमान लोकपाल बिल के प्रावधान तो अंततः लोकोपकार की भावना ही बुझा सकते हैं.

(अनुवाद: विजय नंदन)

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