सुभाष चंद्र कुशवाहा
साहित्यकार
राजनीतिक अपरिपक्वता के इस दौर में अपशब्दों की सीमा टूट रही है. गालियांे के साथ विरोधियों से बात करने का चलन बढ़ा है. छोटे से बड़े नेता तक बेलगाम देखे जा रहे हैं. इस नैतिकता और जीवनमूल्य विहीन राजनीति से देश को जो दिशा मिल रही है, वह हमें सभ्य और कर्तव्य पारायण नहीं बना पा रही. हमारे राजनेताओं ने सभी सामाजिक मापदंडों को कूड़े में फेंक दिया है.
यह अजीब विडंबना है कि एक चपरासी पद पर तैनात सरकारी कर्मचारी के लिए आचरण नियमावली बनी हुई है. यह नियमावली ब्रिटिश सत्ता के हितों की हिफाजत के लिए बनी थी, जो आज तक कायम है. अगर चपरासी कारण-अकारण भी गैर-कानूनी काम करता है या चौबीस घंटे से अधिक जेल में डाल दिया जाता है, तब उसे तुरंत निलंबित कर दिया जाता है. उसकी वार्षिक प्रविष्टि खराब कर दी जाती है. उसके लिए प्रतिबंधों की सूची लंबी है. मगर खेद है कि देश चलानेवाले राजनेताओं के लिए कोई आचरण नियमावली नहीं बनी है. वे स्वतंत्र और बेलगाम हैं.
दर्जनों आपराधिक मुकदमे दर्ज होने या वर्षों जेल में बिताने के बाद भी वे माननीय हैं. केवल राजनीतिक नफा-नुकसान का ध्यान रख कर ही, कभी-कभार पार्टियां कुछ नेताओं के विरुद्ध कड़े कदम उठाती हैं. कभी किसी नेता को अपशब्द बोलने के कारण चुनाव लड़ने से रोक दिया गया हो, देखने को नहीं मिलता.
आजकल राजनीतिज्ञों द्वारा महिलाओं के प्रति अपशब्द कहने की घटनाएं बढ़ी हैं. बेटियों को भी अपमानित होना पड़ रहा है. वे क्या खायें, क्या पहनें, क्या बोलें, सब पर हमारे राजनेताओं के शब्द-अपशब्द हैं. यह संदर्भ केवल हाल में मायावती या दयाशंकर की बेटी के प्रति की गयी टिप्पणी तक सीमित नहीं है. यह संदर्भ राजनीति की मुख्यधारा का अंग बन चुका है.
अब तो राजनीतिक साधु-साध्वियों के मुंह से भी अशोभनीय शब्द निकलने लगे हैं. हाशिये के समाज के प्रति अपशब्दों की तो परंपरा ही रही है. अल्पसंख्यक, महिलाएं, दलित और आदिवासी सबसे ज्यादा निशाने पर रहे हैं. अब जूता या स्याही फेंकना, पोस्टरों पर कालिख पोतना, हाथापाई पर उतर आना, सदन में कपड़े फाड़ देना जैसी घटनाएं आम होती जा रही हैं. विगत कुछ सालों में राजनेताओं ने अपने विरोधियों के लिए बहुत ही घिनौने और स्त्रीजनित अपशब्दों का इस्तेमाल किया है.
अब सवाल यह है कि क्या इस भाषायी अराजकता और असभ्यता को रोकने के लिए कोई आचरण नियमावली बनायी जानी चाहिए या इसे यूं ही छोड़ दिया जाना चाहिए? आज जब राजनीति में अपराधी और गुंडे किस्म के नेताओं का दबदबा लगातार बढ़ता जा रहा है, तब इसे बेलगाम छोड़ने का मतलब मेरे ख्याल में लोकतंत्र को खत्म करना होगा.
अपराधी नेताओं की बोलचाल की सामान्य भाषा भी असभ्य होती है, तब इन्हें माननीय बनाने के लिए कुछ संवैधानिक नियंत्रण तो होना ही चाहिए. यह इसलिए भी जरूरी है, क्योंकि सामाजिक नियंत्रण नाम की चीज खत्म होती जा रही है. पहले जब कभी कभार छुटभैय्ये नेताओं की जुबान फिसलती थी, तो बड़े नेता डांट देते थे. अब तो बड़े नेता ही असभ्य हो चलेे हैं और उन्होंने सामान्य शिष्टाचार को तिलांजलि दे दी है, तो भला नियंत्रण कौन करे?
राजनीति में विरोधी विचारों का सम्मान करने से स्वयं को सम्मान मिलता है. लोकतंत्र मजबूत होता है. मगर नसीहत का जमाना लद चुका है. अब समय की मांग है कि राजनीति की भाषा और आचरण को नियंत्रित करने के लिए आचरण नियमावली का निर्माण किया जाये और उसके उल्लंघन पर राजनीतिज्ञों को राजनीति से निलंबित करने की प्रक्रिया निर्धारित हो.