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जरूरी है कश्मीरियों से संवाद

डॉ हैप्पीमॉन जैकब एसोसिएट प्रोफेसर, डिप्लोमेसी एंड डिसआर्मामेंट स्टडीज, जेएनयू साल 2003 में जब भारत ने पाकिस्तान के साथ ‘सीजफायर एग्रीमेंट’ किया था, तब सीमा पर गोलीबारी बहुत कम हो गयी थी और साल 2006-07 तक सीमा पर बहुत अच्छा माहौल बन गया था. साल 2004 से 2008 के दौरान प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कश्मीर […]

डॉ हैप्पीमॉन जैकब
एसोसिएट प्रोफेसर, डिप्लोमेसी एंड डिसआर्मामेंट स्टडीज, जेएनयू
साल 2003 में जब भारत ने पाकिस्तान के साथ ‘सीजफायर एग्रीमेंट’ किया था, तब सीमा पर गोलीबारी बहुत कम हो गयी थी और साल 2006-07 तक सीमा पर बहुत अच्छा माहौल बन गया था. साल 2004 से 2008 के दौरान प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कश्मीर मसले को लेकर काफी कुछ ध्यान दिया था और उस दौरान कई दफा बातचीत भी हुई थी. साल 2006 में प्रधानमंत्री ने ‘राउंड टेबल कॉन्फ्रेंस’ भी की थी और उसके बाद ही कश्मीर के अंदरूनी मामलों पर अध्ययन कर उनकी पूरी रिपोर्ट देने के लिए चार कमेटियां बनायी गयी थीं.
अगर आप गौर करें, तो उन 4-5 सालों के दौरान दिल्ली और श्रीनगर के बीच अच्छी-खासी वार्ताएं हुईं और माहौल भी अच्छा बन गया था. इन सबके बीच उन दिनों कश्मीरी अवाम में भी विश्वास बहाली की स्थिति बन गयी थी कि अब कुछ अच्छा होनेवाला है. लोगों में अमन बहाली की एक उम्मीद जिंदा हो चली थी. लेकिन, फिर 2008 में मुंबई धमाकों के बाद माहौल बिगड़ना शुरू हुआ और एक-दो साल तक भारत-पाक वार्ताओं में भारी कमी आयी और तकरीबन न के बराबर हो गयी.
साल 2010 के जून में एक 17 साल के तुफैल मट्टो नामक कश्मीरी युवा की हत्या के बाद कश्मीर का माहौल थोड़ा और खराब हो गया और लोग सेना के खिलाफ सड़कों पर आकर पत्थरबाजियां करने लगे. तुफैल मट्टो की हत्या की जांच के लिए एक कमेटी बनायी गयी, जिसने सुझाव दिया कि कश्मीर में आफ्स्पा जैसे कानून की सख्ती को कुछ कम कर देनी चाहिए, लेकिन हमारी सरकारों ने उस सुझाव को अब तक नहीं माना है. उसके बाद से वहां खूब सारे प्रोटेस्ट होने लगे और कश्मीर घाटी तकरीबन दहक-सी उठी. साल 2010 का वह आक्रोश कश्मीरी युवाओं में कुछ ज्यादा ही देखने को मिला, जिसमें काफी पढ़े-लिखे युवा भी शामिल थे.
कश्मीर का मौजूदा सूरते हाल राजनीति से प्रेरित है और यह पूरी तरह से राजनीतिक मामला है. अक्सर लोग कहते हैं कि कश्मीर में बेरोजगारी है इसलिए वहां ऐसी स्थिति बन जाती है. हालांकि, बेरोजगारी एक आर्थिक मामला माना जाता है. लेकिन, वहां की बेरोजगारी को आर्थिक मामला मान कर लोगों को नौकरियां देकर आफ्स्पा जैसे कानून की सख्ती को कम नहीं किया जा सकता और न ही इससे वहां हिंसक घटनाओं में ही कोई कमी आयेगी. कश्मीर मामले का हल राजनीतिक तरीके से ही संभव है. नयी दिल्ली को इस मसले को राजनीतिक तौर पर बहुत गंभीरता से लेना चाहिए और कश्मीरी अवाम से संवाद कायम करने की पहल की जानी चाहिए.
दरअसल, कश्मीर को लेकर या उसके अंदरूनी मसलों को लेकर हमारी सरकारों के पास अब तक विजनरी पॉलिटिक्स (राजनीतिक दूरदर्शिता) का अभाव रहा है. इस अभाव का नतीजा रहा है कि कश्मीर घाटी रह-रह कर दहक जाया करती है. एक और महत्वपूर्ण बात यह है कि भारत के अन्य राज्यों के मुकाबले कश्मीर को विशेषाधिकार देनेवाली धारा 370 के कई महत्वपूर्ण प्रावधानों को संशोधित कर बदल दिया गया है, जिसे फिर से स्थापित किये जाने की जरूरत है. सिर्फ यह कह देने से काम नहीं चलेगा कि कश्मीर भारत का अभिन्न हिस्सा है, बल्कि कश्मीर के वजूद और उसकी शांति के लिए धारा 370 का अपने बुनियादी स्वरूप में होना बहुत जरूरी है, जिस मकसद को लेकर इसे संविधान में दर्ज किया गया था.
दूसरी बात यह है कि कश्मीर घाटी में अक्सर मानवाधिकारों का उल्लंघन होता आया है, इसकी जांच होनी चाहिए और कश्मीरियों को न्याय दिलाने की कोशिश होनी चाहिए. तीसरी बात यह कि आफ्स्पा जैसे कानून की सख्ती को कम करने की पहल होनी चाहिए और कश्मीरियों से संवाद होना चाहिए. उनके साथ कश्मीरी कह कर अलग बरताव करने की नहीं, बल्कि भारतीय समझ कर अपनापन वाला बरताव करने की जरूरत है.
ये सभी चीजें राजनीतिक स्तर पर ही संभव हैं. इसलिए मेरा तो यही मानना है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कश्मीर मामले को लेकर किसी वरिष्ठ राजनेता को नियुक्त करें या फिर कोई कमेटी गठित करें, ताकि कश्मीरी अवाम से एक स्वस्थ संवाद स्थापित किया जा सके और उन्हें समझा जा सके कि आखिर उनकी जरूरतें क्या हैं, कश्मीरी युवाओं में आक्रोश क्यों है. मेरा यकीन है कि कश्मीर के लोग इस संवाद का स्वागत करेंगे.
(वसीम अकरम से बातचीत पर आधारित)

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