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पंडितों की परीक्षा में धोती का प्रमाणपत्र!

।। डॉ बुद्धिनाथ मिश्र।। (वरिष्ठ साहित्यकार) संस्कृत शिक्षा की प्राचीन परिपाटी में लिखित परीक्षा का कोई स्थान नहीं था. बालक को अक्षरारंभ जरूर कराया जाता था, वह भी पांचवें वर्ष में. उससे पहले उसे तमाम संस्कृत के श्लोक याद करा दिये जाते थे. लीलावती (गणित), अमरकोश (शब्दकोश) आदि ग्रंथों के श्लोक तथा ‘पुरुषसूक्त’ वेदमंत्र तीन […]

।। डॉ बुद्धिनाथ मिश्र।।

(वरिष्ठ साहित्यकार)

संस्कृत शिक्षा की प्राचीन परिपाटी में लिखित परीक्षा का कोई स्थान नहीं था. बालक को अक्षरारंभ जरूर कराया जाता था, वह भी पांचवें वर्ष में. उससे पहले उसे तमाम संस्कृत के श्लोक याद करा दिये जाते थे. लीलावती (गणित), अमरकोश (शब्दकोश) आदि ग्रंथों के श्लोक तथा ‘पुरुषसूक्त’ वेदमंत्र तीन से पांच वर्ष की अवस्था में ही रटा दिये जाते थे. पांचवें वर्ष में अक्षरारंभ का कार्य किसी प्रतिष्ठित विद्वान के हाथों कराया जाता था. दालान या आंगन में गोबर से लिपी भूमि पर उत्तम कोटि की मिट्टी से बनी ‘खरी’ या ‘भाठा’ से बालक को ‘ओनामासीधं’ (ओम् नम: सिद्धम्) लिखाया जाता था. यह एक संस्कार था. लेखन समाप्त होने पर बालक से उन अक्षरों को अपने हाथों मिटाने और हाथ में लगी धूल को छाती और ललाट में लगा लेने को कहा जाता था. इससे अक्षरगत विद्या शरीर में प्रवेश कर जायेगी, ऐसी मान्यता थी. संस्कृत छात्रों को लिखने का काम बहुत कम करना पड़ता था. सारी विद्या कंठस्थ होनी चाहिए.

कहा गया कि ‘विदेशेषु धनं विद्या’ यानी परदेश में विद्या ही धन का काम करती है. वह विद्या जो कंठस्थ है. बाल्यावस्था में सुबह-सुबह श्लोकों की आवृत्ति से उच्चारण हरसिंगार के फूलों की तरह निखर उठता है. इस उच्चारण को भारतीय समाज में बहुत महत्व दिया जाता था. चार वेदों के बाद जो वेदांग पढ़ाया जाता था, उसमें एक ‘शिक्षा’ भी थी, जो पूरी तरह शब्दों के उच्चारण पर केंद्रित थी. महर्षि पाणिनी रचित ‘शिक्षा’ को ‘पाणिनी शिक्षा’ कहा गया है, जो उच्चारण संबंधी दिशा-निर्देश करती है. पुरखे वाणी की शुद्धता चाहते हैं ,जबकि देवता भाव की शुद्धता चाहते हैं:-पितरो वाक्यमिच्छंति, भावमिच्छंति देवता:

संस्कृत विश्वविद्यालयों में आज जो परीक्षा-केंद्रित शिक्षा दी जाती है, उसमें गहन पांडित्य की कोई गुंजाइश नहीं रह गयी है. इन विश्वविद्यालयों में न्याय, सांख्य, मीमांसा आदि विषयों की कौन कहे, व्याकरण-ज्योतिष जैसे उपयोगी विषयों के भी पारंगत विद्वान नहीं के बराबर हैं. प्राचीन काल से संस्कृत शिक्षा के तीन प्रमुख केंद्र उत्तर भारत में रहे हैं- काशी, मिथिला और नदिया (बंगाल). आज ये तीनो केंद्र गहन अध्येता विद्वानों से रहित हो चुके हैं. किसी एक प्रामाणिक ग्रंथ को वर्षो अध्ययन-मनन करने से तथा योग्य गुरु के साथ एक-एक वाक्य पर विमर्श व मंथन कर जो पांडित्य अर्जित होता था, वह इन संस्कृत विश्वविद्यालयों में भी दुर्लभ है, महाविद्यालयों की तो बात करना ही व्यर्थ है. ऐसी बात नहीं है कि जो छात्र एक ग्रंथ में चार वर्ष लगाता था, वह अन्य विषयों का ज्ञान नहीं रखता था. वह अपने विषय से संबंधित अन्यान्य विषयों की अभिज्ञता भी अर्जित कर लेता था. आधुनिक परीक्षा प्रणाली से पांडित्य की वह गंभीरता नष्ट हो गयी है और पल्लवग्राही पांडित्य का चतुर्दिक विस्तार हुआ है. पिछले दिनों साहित्य के आचार्य के अंतिम वर्ष की मौखिकी परीक्षा में उपस्थित रहने का मुङो मौका मिला. मुङो यह देख कर हैरानी हुई कि जो छात्र-छात्राएं आचार्य (एमए) परीक्षा उत्तीर्ण कर शिक्षक बनने जा रहे हैं, वे कायदे से एक संस्कृत श्लोक तक शुद्ध रूप से नहीं बोल पाये! संस्कृत में वार्तालाप करना तो दूर की बात है. इन आचार्यो की कागजी डिग्री समाज के लिए कितनी उपयोगी है और हमारी संस्कृति के संरक्षण में कितनी सहायक है, विचारणीय है!

प्राचीन संस्कृत शिक्षा प्रणाली में छात्र की योग्यता की परीक्षा शास्त्रर्थ में ली जाती थी. परीक्षार्थी से उसके द्वारा अधीत विषय में कोई विद्वान प्रश्न पूछ सकता था. प्रश्नकर्ता उत्तरदाता से अधिक योग्य होता था और वह अपने प्रश्न में ‘ननु नच’ की झड़ी लगा कर उन सारे तर्को को प्रस्तुत कर देता, जिनसे उत्तर देने के लिए विषय का गहन और सूक्ष्म ज्ञान अनिवार्य हो जाता था. काशी में आधी सदी पहले तक स्थान-स्थान पर विद्वत् सभा होती थी, जिसमें शास्त्रर्थ द्वारा निष्कर्ष निकाला जाता था. जो छात्र अपनी प्रतिभा से सभा को चमत्कृत कर देता था, उसे काशी-नरेश की ओर से स्वर्ण-पदक मिलता था. मेरे पितामह वैयाकरण पंडित लक्ष्मीकांत मिश्र को भी काशी में यह स्वर्ण पदक मिला था. काशी में मैथिल विद्वानों की बहुत पहले से अलग पहचान रही है. इसी प्रकार का सर्वोच्च सम्मान दरभंगा महाराज के हाथों भी दिया जाता था. दरभंगा राज के संस्थापक महेश ठाकुर स्वयं नैयायिक थे. उन्होंने पंडितों की भावी पीढ़ी तैयार करने के लिए शास्त्रर्थ की एक नियमित परीक्षा शुरू की, जिसका नाम ‘धौत परीक्षा’ था. इस परीक्षा में उत्तीर्ण विद्वान को महाराजा अपने हाथों एक जोड़ा धोती देते थे. मिथिला में इस परीक्षा की मान्यता ऐसी थी कि जब तक यह धोती नहीं मिलती थी, तब तक कोई श्रेष्ठ विद्वान नहीं माना जाता था. जो पूरे शास्त्रर्थ में सर्वश्रेष्ठ घोषित होता था, उसे दरभंगा महाराज की ओर से एक शाल भेंट दी जाती थी. प्राय: यह शास्त्रर्थ राज दरबार में आयोजित होता था और वह भी राज-परिवार में उपनयन आदि मांगलिक अवसरों पर. सर गंगानाथ झा तीन बार इलाहाबाद विश्वविद्यालय के उपकुलपति बने, उन्हें सर और नाइट की उपाधि भी मिली, मगर जितना गौरव उन्हें दरभंगा महाराज के हाथों से यह धोती का जोड़ा लेते समय हुआ, उतना किसी उपलब्धि से नहीं, क्योंकि यह मैथिल विद्वत् समाज की ओर से सबसे बड़ा सम्मान था.

राज्याश्रित बौद्ध विद्वानों के कुतर्को से सनातन धर्म को बचाने में मिथिला के विद्वानों को बहुत मशक्कत करनी पड़ी थी. उन्हें हर प्रकार के कुतर्क और हर प्रकार के प्रश्न का उत्तर देने के लिए तैयार रहना पड़ता था. इसी से मिथिला में शास्त्रर्थ की एक और पद्धति विकसित हुई, जिसे ‘शरयंत्र’ कहा जाता था. इस परीक्षा में कोई भी व्यक्ति किसी भी विषय पर प्रश्न पूछ सकता था और उसका उत्तर देना उत्तरदाता के लिए अनिवार्य था. ऐसी ही परीक्षा में न्याय के प्रकांड विद्वान गोकुलनाथ उपाध्याय से पूछा गया था कि विष्ठा का स्वाद कैसा होता है? उन्होंने कुछ विचार कर कहा-’मिर्च की तरह कटु.’ उन्हें इसे सिद्ध करने के लिए कहा गया. उपाध्याय ने उत्तर दिया-’जब शूकर विष्ठा खाता है, तब उसकी आंखों से आंसू बहते रहते हैं.’ प्रश्नकर्ता को समाधान मिल गया और उपाध्याय उस परीक्षा में उत्तीर्ण घोषित किये गये. मिथिला के नैयायिकों ने अपनी तर्क शक्ति से सनातन धर्म को बचाया. वैसे, शब्द वाक्य और अर्थ के बीच संबंधों को लेकर वैयाकरण और नैयायिक विद्वानों के बीच लंबा शास्त्रर्थ चलता रहा है और इस पर दोनों ओर से अनेक ग्रंथ लिखे जा चुके हैं. खेद है कि देखते ही देखते गहन पांडित्य की वह परंपरा समाप्त हो गयी, जिसमें एक जोड़ा धोती ही सबसे बड़ा प्रमाणपत्र माना जाता था.

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