-हरिवंश-
पहली नजर में लंबा लेख लगा. अंत में जाना भाषण था. इंडियन एक्सप्रेस के ‘ओपेंड पेज’ (खुला पेज) पर. 15 अगस्त 2004 को निगाह अटक गयी. कहना चाहिए एक सांस में पढ़ने का आवेग उभरा. आद्योपांत पढ़ा. फिर इस लेख संसार में डूबा. ऐसी कम सामग्री होती है, जिसमें मन डूबे-उतराये. यह कुछ वैसा ही थी. फिर प्रियजनों को भेजा. आइआइएम बेंगलुरू के छात्रों के बीच दिया गया सुब्रतो बागची का दीक्षांत संबोधन. बागची मशहूर ‘मांइड ट्री’ (आइटी कंपनी) के सह-संस्थापक हैं. चीफ आपरेटिंग आफिसर रहे. सरकारी क्लर्क के रूप में नौकरी शुरू की. फिर माइंड ट्री जैसी दुनिया की प्रतिष्ठित कंसलटिंग कंपनी की नींव डाली. 2008 से कंपनी में भूमिका बदल ली है. अब माइंड ट्री के गार्डनर (माली) हैं.
इस लेख के बाद इनका पाठक बना. ‘बिजनेस वर्ल्ड ’ हो या ‘टाइम्स् ऑफ इंडिया ’, इनके स्तंभ पहले पढ़ता. फिर पेंग्विन पोर्टफोलियो से इनकी दो किताबें आयीं. पहली 2006 में. ‘द हाइ परफारमेंस इंटरप्रेनयोर’. इस पुस्तक के बारे में सी.के. प्रह्लाद (जाने-माने प्रबंधन विशेषज्ञ) ने लिखा. इन सबके लिए, यह अनिवार्य है, जो शून्य से शिखर पर जाकर, एक महान संस्था गढ़ने का सपना पालते हैं. यह किताब, अंदर की उद्यमी ऊर्जा को फूंकती है. इस बदलती दुनिया में उद्यमी (इंटरप्रेनयोर) रोजगार गढ़ते हैं. रोजगार देते हैं. समाज को समृद्धि के भंडार तक ले जाते हैं. सरकारें या राजनीति नहीं.
यह विश्वग्राम का नया अर्थशास्त्र है. उद्यमिता सृजन प्रक्रिया है. उद्यमी इनोवेट करते हैं. समाज और देश की सूरत बदलते हैं. इन्हीं उद्यमियों ने पश्चिम को बदला. नया चीन गढ़ा. भारत में यह उद्यमी वर्ग कैसे, नये भारत की रचना करे, इसके सूत्र इस पुस्तक में हैं. फिर पेंग्विन पोर्टफोलियो से 2008 में बागची की नयी पुस्तक आयी, ‘गो किस द वर्ल्ड ’. यह सपना देखनेवालों के लिए अनिवार्य है. हर परिवार की जरूरत. बेहतर होता, कक्षा ग्यारह के बाद यह अनिवार्य पाठ्यक्रम में रखा जाता. नारायणमूर्ति और मार्क टुली की संक्षिप्त टिप्पणियां भी हैं. नारायणमूर्ति कहते हैं, इसे पढ़ने के बाद, अद्भुत अनुभव होता है. मार्क टुली कहते हैं, साहस, उद्यमिता और निष्ठा की अद्भुत कहानी है यह पुस्तक.
हमें 2004 में दिये गये दीक्षांत भाषण का विस्तार लगी, यह पुस्तक. भारतीय परिवार के परंपरागत मूल्यों (कोर वैल्यूज) से संस्कार बनते हैं? मूल्यों के बीज पड़ते हैं? एक बेहतर इंसान का जन्म होता है? इन पक्षों को जानना है, तो यह पुस्तक जरूर पढ़नी चाहिए. भारत की प्राचीन स्वस्थ परंपरा, ऋषि दृष्टि और आधुनिक सोच के संयोग से ही नया भारत बनेगा. वह भारत, जिसका सपना गांधी ने देखा. जो रवींद्र बाबू के विचारों में है. जिसे पाने का रास्ता विवेकानंद ने बताया. आजादी के समय, इतिहासकार आर्नाल्ड टायनबी ने ‘पूरब से सूर्योदय’ की कल्पना की. पश्चिम की बीमार सभ्यता और संस्कृति के विकल्प में भारत से एक नयी सभ्यता और संस्कृति की कामना. दार्शनिक विल डूरंट ने ‘द केस फॉर इंडिया’ में जिसे भारत की अनमोल थाती कहा. परिवार टूटने की आंच से आज दुनिया दहक रही है. खासतौर से पश्चिम. परिवार पाठशाला है, जहां से स्वस्थ पुराने भारतीय मूल्य और संस्कार मिले और साथ ही पश्चिम की वैज्ञानिक दृष्टि, तो भारत पर दुनिया फक्र कर सकती है. यह निचोड़ है, पुस्तक का.
सुब्रतो बागची जन्मे उड़ीसा के कोरापुट में. पिता जिला नियोजन अफसर थे. पांच भाइयों में सबसे छोटे. बिजली नहीं थी. प्राइमरी पाठशाला भी नहीं. पिता का ट्रांसफर हर वर्ष होता था. कार्यालय जाने के लिए पिता जीप का इस्तेमाल नहीं करते थे. पैदल जाते थे. जीप खड़ी रहती थी, ताकि सरकारी पैसा बचे. क्योंकि सरकार हमारी है? परिवार को जीप पर चढ़ने की इजाजत नहीं थी. यह घटना याद करते हुए बागची कहते हैं, बचपन में ही इससे हमें शासन के पाठ मिले. आज कारपोरेट वर्ल्ड में इन मूल्यों का पाठ पढ़ाया जाता है. घर से ही दूसरा पाठ मिला. मामूली आदमी के साथ अदब से पेश आना. मां-पिता का आदेश था, ड्राइवर को दादा कह कर पुकारें. बागची कहते हैं, प्रबंधन का दूसरा बड़ा गुण सीखा. अपने मातहत के मामूली लोगों के साथ भी सम्मानपूर्ण और आत्मीय व्यवहार.
लकड़ी के चूल्हे के इर्द-गिर्द दिन की शुरूआत होती. तब पिता कहते, ‘स्टेटट्समैन’ का संपादकीय पढ़ो. दो दिन विलंब से अखबार आता था. तब बागची संपादकीय नहीं समझते थे. वह उड़िया स्कूल में थे. पर अखबार पढ़ने से लगा, हम दुनिया से जुड़े हैं. हमारा जीवन अकेला द्वीप नहीं है. यह बहता पानी है. यह संसार संबंधों का खेल है. निर्जन वनों में सिमटने का नहीं. आत्मरत होना नहीं. अखबार पढ़ने के बाद, ताकीद करते, अखबार को बेहतर ढंग से रखो. बागची कहते हैं, बचपन में सीखा, अखबार और ट्वायलेट जिस रूप में आप पाना चाहते हैं, अपने इस्तेमाल के बाद इसको इसी रूप में छोड़ें.
इन दिनों रेडियो का जमाना था. हम घरों में रेडियो मांगते, पिता कहते, मेरे पास पांच रेडियो (बच्चे) हैं. जब अपने घर की बात करते, वे दोहराते, हमारे पास पांच घर (बच्चे) हैं. वहीं से सबक मिला, भौतिक संपदा से व्यक्तिगत सफलता न आंकें.वर्ष 1969 में बागची की मां अंधी हो गयीं. 2002 तक जीवित रहीं. 32 वर्ष तक अंधेपन के साथ. पर कभी भाग्य को नहीं कोसा. बागची ने एक बार पूछा, मां, अंधकार देखती हो? मामूली पढ़ी मां का जवाब था, नहीं बेटा, मैं अंधकार नहीं देखती. मेरी आंखों में अंधापन है, पर मैं सिर्फ प्रकाश देखती हूं. वह खुद अपने कपड़ों की सफाई करतीं. अपना कमरा साफ करतीं. 80 वर्ष की उम्र में भी.
बागची कहते हैं, वहीं से मुझे ज्ञान मिला. आत्मनिर्भर होना सफल होना है. फिर वह अमेरिका नौकरी में गये. इनकी मां बीमार पड़ीं. देखने आये. कटक सरकारी अस्पताल में थीं. दो सप्ताह बाद बागची का लौटना जरूरी हुआ. मृत्युशैय्या पर पड़ी मां के पास गये. यूएस लौटने के पहले माथा चूमा. लगभग बेहोश पड़ी मां के मुंह से अचानक आवाज आयी, चुम्मा क्यों कछो (चूम क्यों रहे हो)? कहा, जाओ, जगत के चूमो खाओ (जाओ दुनिया को चूमो). पुस्तक का शीर्षक यही है. और मां का यह आशीर्वाद सुब्रतो बागची को फला.ऐसे अन्य प्रसंग भी हैं, पुस्तक में !