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आभासी दुनिया में देवता!

नीलोत्पल मृणाल साहित्यकार व सामाजिक कार्यकर्ता आभासी दुनिया का दौर है. आदमी देवता हो जाना चाह रहा है. आदमी चाहता है कि वह बोले और लोग उसे ईश्वर की तरह सुनें. वह शायरी, कविता, कहानी, उपन्यास, संस्मरण और न जाने कहां-कहां से दया, करुणा, निष्पक्षता, समानता आदि सब बटोर कर सोशल मीडिया पर अपना मंदिर […]

नीलोत्पल मृणाल
साहित्यकार व सामाजिक कार्यकर्ता
आभासी दुनिया का दौर है. आदमी देवता हो जाना चाह रहा है. आदमी चाहता है कि वह बोले और लोग उसे ईश्वर की तरह सुनें. वह शायरी, कविता, कहानी, उपन्यास, संस्मरण और न जाने कहां-कहां से दया, करुणा, निष्पक्षता, समानता आदि सब बटोर कर सोशल मीडिया पर अपना मंदिर खोले बैठा है और वह चाहता है कि उसके मंदिर के आगे लंबी कतार लगी रहे. उस कतार में लगे हुए लोग लाइक पर लाइक चढ़ायें, धन्यवाद का प्रसाद ग्रहण करें और पुनि-पुनि आयें.
इन सब के बीच मान लीजिए कि मैंने किसी को अपना ‘भगवान’ मान लिया. आप जानते हैं न भगवान होने का मतलब? सुबह चार बजे उठ कर अपने भगवान को ठंडे पानी से नहवाना. उनके बदन पर जमी धूल-काई को किसी लाल कपड़े से रगड़-रगड़ कर छुड़ाना. गीले वस्त्र पहनाना और फिर उनका पूजन शुरू करना.
भगवान के पूजन की शुरुआत में सबसे पहले मैं नारियल फोड़ना चाहूंगा. फिर डालूंगा उनके सर पर तीन दिन का रखा कच्चा लठलठ करता दूध. उनके कपार पर चंदन रगड़ने के बाद फिर पूरे मुंह पर लाल अबीर का लेप लगाऊंगा. फिर घिसूंगा लाल रोली और उस पर दही शहद का घोल. उसके बाद उनके दोनों कानों पर कनेल के पीले फूल रखूंगा और चढ़ाऊंगा धतूरे का सफेद फूल. गेंदे के दो फूल उनके पैरों के बीच रख कर उनके पेट पर एक बेलपत्र सटाऊंगा.
फिर बिना उनकी पसंद पूछे अपनी औकात के हिसाब से खरीदी गयी लालमोहन साव की दुकान के ठोस लड्डू का एक टुकड़ा तोड़ कर उनके अधखुले मुंह में खिलाऊंगा और चुल्लू भर पानी से उनकी प्यास बुझाने को अर्पण करूंगा. फिर चढ़ाऊंगा उनके कंधे पर दो गलगलाये केले और पिचके संतरे की दो फांक. फिर निकालूंगा अपने झोले से मुट्ठी भर अगरबत्ती और जला के खोंस दूंगा ठीक उनकी कमर के पास, जिससे निकलनेवाला गमकदार धूआं लगातार उनकी आंखों में और नाक-मुंह में घुसता जायेगा और भगवान कुछ भी नहीं बोलेंगे. वे चुपचाप सहते जायेंगे. इसके बाद श्रद्धा से कुछ खनकते सिक्के रखूंगा, और वहां से निकल लूंगा.
मेरे जाने के बाद भी खुली रहेगी भगवान की चौखट. अगर कोई वहां न रहा, तो घुस आयेगी कोई बकरी और खा जायेगी भगवान को चढ़ाये फल-फूल और पेट पर से खींच कर बेलपत्र.
कोई और जानवर घुस आयेगा, जो चाटेगा उनके पैर, जहां कुछ देर पहले गिराये थे मैंने लड्डु के टुकड़े और दही-शहद की कुछ बूंदें. भगवान के बदन पर चढ़ी रहेंगी चींटियां और वे जायेंगी उनके मुंह तक, जहां मेरे द्वारा ठूंसे लड्डु के कुछ कण फंसे हुए होंगे. मेरे भगवान तब भी कुछ ना बोलेंगे. वे अपने हाथ उठाये मुस्कुराते हुए कृपा की मुद्रा में ही रहेंगे. वे सबको कृपा देते हैं.
भगवान की करुणा का आलम यह है कि वे आदमी, बकरी या अन्य किसी भी जानवर में फर्क नहीं करते. वे मंदिर नहीं बदलते हैं. वे हमारे भगवान या देवता इसलिए नहीं हैं कि हमने और आपने उन्हें भगवान या देवता मान लिया है, बल्कि वे इसलिए हैं कि उन्होंने अपने पूजे जाने की कीमत भी अदा की है.
क्या आभासी दुनिया के देवता ऐसी कीमत अदा कर सकते हैं?
किसमें है इतना धीर और करुणा? किसमें है इतना कुछ सहन करने की शक्ति? मैं खोज रहां हूं ऐसा आदमी, जो खुद को देवता भले न कहता हो, लेकिन उसमें कम-से-कम आदमियत तो हो ही. उसे ही मैं अपना देवता बना पाऊंगा. है कोई ऐसा? खोज जारी है… जय हो!

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