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बस्तर से लेकर दिल्ली तक का संदेश

।। प्रमोद जोशी ।। वरिष्ठ पत्रकार एक जमाने में माना जाता था कि हमारा मध्य वर्ग राजनीति के प्रति उदासीन है. पर आज ऐसी बात नहीं है. भारतीय लोकतंत्र ने बस्तर के जंगलों से लेकर ईस्ट ऑफ कैलाश तक सिर्फ एक संदेश दिया है कि कुछ बदलना है, तो चुनाव की मार्फत बदलो. पांच राज्यों […]

।। प्रमोद जोशी ।।

वरिष्ठ पत्रकार

एक जमाने में माना जाता था कि हमारा मध्य वर्ग राजनीति के प्रति उदासीन है. पर आज ऐसी बात नहीं है. भारतीय लोकतंत्र ने बस्तर के जंगलों से लेकर ईस्ट ऑफ कैलाश तक सिर्फ एक संदेश दिया है कि कुछ बदलना है, तो चुनाव की मार्फत बदलो.

पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव का दौर तकरीबन पूरा हो गया है. अब सिर्फ दिल्ली का चुनाव बचा है. चुनाव अगर खेल का मैदान हो, तो इसे फाइनल और सेमी फाइनल की शब्दावली में बांधने की कोशिश भी होती है. इस बार के चुनाव को इस रूपक से भी जोड़ा गया है.

हरेक चुनाव कुछ कुछ नया देकर जाता है. मिजोरम हो या राजस्थान, चुनाव प्रक्रिया हमारे समाज पर गहरा असर छोड़ कर जाती है. चुनाव अब हमारी संस्कृति का हिस्सा है. इस बार छत्तीसगढ़ में भारी मतदान ने साबित किया कि मुख्यधारा की राजनीति यदि नागरिकों के सबसे नीचे के तबकों से खुद को जोड़ेगी, तो बदले में उसे जबरदस्त समर्थन मिलेगा.

इन नागरिकों को कुछ बंदूकधारियों ने अपनी धारणाओं से प्रभावित किया था. यह प्रभाव अनायास नहीं था. इसके कारण भी थे. चुनाव के कारण यह बात भी सामने आयी कि किस तरह हमारी विकासनीति ने जनजातियों की अनदेखी की है. एक गलतफहमी यह है कि चुनाव पांच साल बाद लगनेवाला मेला है. वस्तुत: यह हमारे दैनिक जीवन को प्रभावित करनेवाली प्रक्रिया है.

इसलिए चुनाव हो जाने के बाद भी नागरिक या उसके प्रतिनिधियों का रिश्ता टूटना नहीं चाहिए. यह रिश्ता किस तरह बना रहेगा, इस पर विचार जारी है. इस चुनाव में नोटा बटन की शुरुआत हुई है. यह शुरुआत मात्र है. इसका व्यावहारिक मतलब अभी कुछ नहीं है, पर कुछ साल बाद यह बटन किसी और बटन का मार्गदर्शक बन सकता है.

कल दिल्ली में मतदान है. दिल्ली और छत्तीसगढ़ के नागरिकों में बुनियादी अंतर है. पुराने यूनानी नगर राज्यों की तुलना में दिल्ली कई गुना बड़ा शहर है. पर यह शहरनगर लोकतंत्र की शक्ल भी दे रहा है. पिछले साल दिसंबर में हुए गैंगरेप के बाद जिस तरीके से शहर के नौजवानों ने इंडिया गेट पर डेरा डाला था, वह ऐतिहासिक घटना थी. पिछले एक दशक से दिल्ली में भागीदारी नाम से कार्यक्रम चल रहा है.

इसमें नागरिकों की भूमिका ज्यादा बड़ी है. दिल्ली में रेजीडेंट वेलफेयर एसोसिएशनों की मार्फत लोकतंत्र तनिक और करीब आया है. संभव है कल हम आसपास की सफाई, रोशनी, सड़कों की मरम्मत और पर्यावरण संरक्षण के काम खुद देखें. जनता को धीरेधीरे काम अपने हाथ में लेने होंगे.

दिल्ली विधानसभा कुल जमा 70 विधायकों का सदन है. दिल्ली पूर्ण राज्य भी नहीं है. इस लिहाज से इसका राजनीतिक महत्व कुछ भी नहीं है. फिर भी दिल्ली से उठनेवाली हवा के झोंके पूरे देश को प्रभावित करते हैं. वह हमारी राष्ट्रीय राजधानी जो है.

इस अर्थ में अगले साल होनेवाले लोकसभा चुनाव के लिए दिल्ली विधानसभा का चुनाव ओपिनियन पोल का काम करेगा. कांग्रेस और भाजपा दोनों के लिए. दिल्ली एक बेहतरीन बैरोमीटर के रूप में उभर रहा है. पिछले कुछ साल में देश के शहरी नौजवानों के आंदोलनों को सबसे अच्छा हवापानी दिल्ली में ही मिला.

देश का एक बड़ा शहर होने के नाते दिल्ली इस आयु और मध्य आय वर्ग का बेहतरीन नमूना है. खास बात यह है कि दिल्ली की इस युवा आबादी में मणिपुर, मिजोरम, नगालैंड, झारखंड, छत्तीसगढ़ से लेकर कन्याकुमारी और कश्मीर तक से आये लोग हैं. दिल्ली का चुनाव अब केवल स्थानीय समस्याओं तक केंद्रित नहीं रहता. पिछले दिनों हुए दिल्ली के पालिका चुनावों से भी यह बात जाहिर हुई. माना जा रहा है कि 2014 के चुनाव में भारत के शहरी युवाओं की भावनाओं का पता लगेगा कि वे किस प्रकार की राजनीति चाहते हैं.

साथ ही सोशल मीडिया की भूमिका भी जाहिर होगी. दिल्ली के इस चुनाव में उसकी झलक नजर रही है. दिल्ली शहर की सामाजिक संरचना में पिछले दो दशक में काफी बदलाव हुआ है. यहां काफी बड़ी आबादी बिहार, उत्तर प्रदेश और दक्षिण के राज्यों से आयी है. शीला दीक्षित के टिके रहने का बड़ा कारण दिल्ली की बदलती डेमोग्राफिक संरचना भी है.

इस बात का पता इस तथ्य से भी लगता है कि तमिलनाडु की डीएमडीके ने भी इस बार के चुनाव में अपनी एक प्रत्याशी को उतारा है. यहां इतने नये लोग आते हैं कि उन्हें एंटी इनकम्बैंसी का बोध नहीं होता. पुरानी दिल्ली का व्यापारी समुदाय अब उतना प्रभावशाली नहीं रहा, जितना दो दशक पहले था.

दिल्ली में इस बार एक और परीक्षण चल रहा है. आम आदमी पार्टी यानी आप का परीक्षण. 2010 का अन्ना आंदोलन दिल्ली के इर्दगिर्द ही सीमित था. इसने दिल्ली ही नहीं दुनिया भर के भारतीय नौजवानों के दिलोदिमाग को मथ डाला था.

एक साल से भी कम समय में एक पार्टी बन कर खड़ी हो गयी. और इस समय वह कांग्रेस और भाजपा के सामने सबसे बड़ी चुनौती के रूप में खड़ी है. यह चुनाव आप जैसी राजनीति के लिए कसौटी है. कोई नहीं जानता था कि राजनीति में ऐसे लोग आयेंगे. एक जमाने में माना जाता था कि हमारा मध्य वर्ग राजनीति के प्रति उदासीन है. पर आज ऐसी बात नहीं है.

भारतीय लोकतंत्र ने बस्तर के जंगलों से लेकर ईस्ट ऑफ कैलाश तक सिर्फ एक संदेश दिया है कि कुछ बदलना है, तो चुनाव की मार्फत बदलो. पिछले चार साल से हम घोटालों और भ्रष्टाचार के एक के बाद एक सामने आते मामलों को देख रहे हैं, तो उनके पीछे इनका पर्दाफाश करनेवाली कामनाएं भी हैं. इन कामनाओं को जनता का समर्थन भी प्राप्त है. किन्हीं वजहों से अब दिल्ली हमारे राष्ट्रीय विमर्श का केंद्र है. बेशक यह विमर्श अधूरा है, पर वह शुरू हो चुका है. सोशल मीडिया उसका मुख्य उपकरण है. इसका संदेश है कि जो कोई कुछ छिपा रहा है, तो उसे सामने लाओ.

हाल में प्रताप भानु मेहता ने लालू यादव के दो दशक पहले के एक टीवी इंटरव्यू का हवाला दिया है. लालू से पूछा गया, अच्छे लोग राजनीति में क्यों नहीं आते? लालू ने कहा, कौन कहता है कि अच्छे लोग नहीं आते? हम लोग जेपी आंदोलन से आये अच्छे लोग नहीं थे? क्या जॉर्ज फर्नाडिस जब राजनीति में आये, तब वे अच्छे आदमी नहीं थे? क्या राजीव गांधी अपने साथ अच्छे लोगों को नहीं लाये? सवाल है कि राजनीति में आने के बाद अच्छे लोगों को क्या हो जाता है? नब्बे के दशक में अरुण शौरी अच्छे लोगों को राजनीति में लाने का आह्वान कर रहे थे.

जब वे खुद राजनीति में आये, तो उन पर भी कीचड़ पड़ा. आप की राजनीति अभी शुरू हो रही है. सवाल है कि क्या जनता उन्हें स्वीकार करेगी? उन्हें अपने पहले स्टिंग ऑपरेशन से पता तो लगा ही होगा कि यह डगर बहुत कठिन है. बहरहाल इस बार के परिणाम आने दीजिए. उसके बाद ही यह बात आगे बढ़ेगी.

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