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एक जरूरी कानून

निश्चित ही कानून की नजर में सभी व्यक्ति समान हैं, लेकिन कानून तक सब लोगों की पहुंच एक-सी नहीं होती. अगर कोई व्यक्ति या समूह सामाजिक रूप से कमजोर है, तो उसके इंसाफ पाने की संभावना क्षीण हो जाती है. करीब 25 साल पहले इसी सोच से अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम […]

निश्चित ही कानून की नजर में सभी व्यक्ति समान हैं, लेकिन कानून तक सब लोगों की पहुंच एक-सी नहीं होती. अगर कोई व्यक्ति या समूह सामाजिक रूप से कमजोर है, तो उसके इंसाफ पाने की संभावना क्षीण हो जाती है. करीब 25 साल पहले इसी सोच से अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम नामक कानून बना था.
जातिगत उत्पीड़न का संज्ञान लेने और पीड़ित के प्रति पर्याप्त संवेदनशीलता बरतने वाले इस कानून की कोशिश वंचित वर्गों को न्याय-प्रणाली के भीतर सशक्त बनाने की थी. बहरहाल, कानून का बनना एक बात है और उस पर कारगर अमल एकदम ही दूसरी बात. आंकड़े बताते हैं कि अनुसूचित जाति और जनजाति के सदस्यों के विरुद्ध अपराधों की संख्या बढ़ी है. राष्ट्रीय अपराध रिकाॅर्ड ब्यूरो की रिपोर्ट के मुताबिक, 2013 में अनुसूचित जाति के सदस्यों के विरुद्ध करीब 39 हजार मामले प्रकाश में आये, तो 2014 में 47 हजार.
अनुसूचित जनजाति के सदस्यों के विरुद्ध साल 2013 में 6793 मामले प्रकाश में आये, तो 2014 में 11 हजार से ज्यादा मामले. सामाजिक उत्पीड़न रोकने के लिए बने कानून के बावजूद इन वर्गों के विरुद्ध अपराध का बढ़ते जाना अन्य कई बातों के साथ इस बात की अपेक्षा रखता है कि कानून को संशोधित कर उसे सख्त बनाया जाये. इसीलिए राज्यसभा ने अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) संशोधन विधेयक को पारित करके सराहनीय काम किया है.
दलित या आदिवासी समुदाय के व्यक्ति को मंदिर जाने से रोकना, इन समुदाय की किसी महिला को उसकी मर्जी के बिना जान-बूझ कर छूना, असम्मानजनक शब्दों का इस्तेमाल करना, यौन प्रकृति के हाव-भाव प्रदर्शित करना आदि कई बातें अब विशेष अपराध की श्रेणी में शामिल की गयी हैं.
यह प्रावधान भी है कि अन्य सामाजिक वर्ग का कोई अधिकारी अनुसूचित जाति या जनजाति पर हुए अपराध के मामले में अपने दायित्व निर्वहन में लापरवाही बरतता है, तो वह दंड का भागी होगा. पर, बड़ी चिंता की बात यह है कि संवदेनशीलता का परिचय देनेवाला संशोधन विधेयक बगैर किसी चर्चा के पारित हुआ और कुछ जरूरी बातें चर्चा में नहीं आ सकीं.
यह प्रश्न सदन में उठ सकता था कि दलित और आदिवासियों पर होनेवाले अपराधों के मामले में दोषसिद्धि की दर कम क्यों है या सामाजिक न्याय की दुहाई देनेवाले कुछ राज्यों में अन्य राज्यों की अपेक्षा दलित और आदिवासी समुदाय के विरुद्ध अपराध ज्यादा क्यों बढ़े हैं. उम्मीद की जानी चाहिए कि सदन के बाहर ऐसे सवालों पर पार्टियां रुख स्पष्ट करेंगी.

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