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दिलवाले का निराधार विरोध

असहिष्णुता की बात कई राजनीतिक पार्टियां कर रही हैं, कई बुद्धिजीवी इस मुद्दे पर सक्रिय हैं, जब उन्हें हम देशद्रोही मान कर उनका बहिष्कार नहीं कर रहे हैं, तो शाहरुख की फिल्म का क्यों? ऐसा पहली बार नहीं हुआ कि हिंदी में दो बड़ी फिल्में एक साथ रिलीज हुई हों, यह जरूर पहली बार है […]

असहिष्णुता की बात कई राजनीतिक पार्टियां कर रही हैं, कई बुद्धिजीवी इस मुद्दे पर सक्रिय हैं, जब उन्हें हम देशद्रोही मान कर उनका बहिष्कार नहीं कर रहे हैं, तो शाहरुख की फिल्म का क्यों?

ऐसा पहली बार नहीं हुआ कि हिंदी में दो बड़ी फिल्में एक साथ रिलीज हुई हों, यह जरूर पहली बार है कि विरोध दोनों ही फिल्मों का हो रहा है. संजय लीला भंसाली की फिल्म बाजीराव मस्तानी का विरोध हो रहा है, तो यह एक हद तक समझ में आता है कि फिल्म में बाजीराव और उनसे जुड़े ऐतिहासिक तथ्यों की अनदेखी हुई है, जिससे बाजीराव से भावनात्मक रूप से जुड़े लोग आहत महसूस कर विरोध कर रहे हैं. लेकिन, दिलवाले का विरोध समझ से परे है. सोशल मीडिया और कुछ कथित नेताओं के बयानों से यही लगता है कि शाहरुख देशद्रोही हैं, इसीलिए उनकी फिल्म का विरोध होना चाहिए. कमाल यह कि शाहरुख के देशद्रोही होने का उनके पास एक आधार उनका वह बयान है, जिसमें उन्होंने देश में असहिष्णुता बढ़ने की बात कही थी. विरोध का एक और आधार एमएनएस के एक धड़े ने यह तर्क खोज निकाला कि विदर्भ के किसानों की नाना पाटेकर और अक्षय कुमार ने मदद की, लेकिन शाहरुख ने कुछ नहीं किया.

सवाल है, क्या ये तर्क विरोध के बहाने मात्र नहीं लगते? दरअसल, हमने राजनीति को अपने जीवन में इतना प्रभावी मान लिया है कि उससे इतर कुछ सोच ही नहीं सकते. यह हम ही हैं कि भीमसेन जोशी के गायन में भी राजनीति ढूंढ सकते हैं और बिरजू महाराज के नृत्य में भी. पेंटिंग भी हमारे राजनीति के दायरे से उबर नहीं पाती और न ही साहित्य. वास्तव में समाज में राजनीति के साथ कला और साहित्य की अपनी-अपनी भूमिका होती है. सभी पर समाज को बेहतर बनाने की जवाबदेही मानी जाती है. अभिनेताओं पर समाज को मनोरंजित करने की जवाबदेही है, केएल सहगल से लेकर राजेश खन्ना, सन्नी देओल तक सब हमारे लिए इसीलिए महत्वपूर्ण हैं कि अपने अभिनय से उन्होंने हमें मनोरंजित किया, हमारी संवेदना समृद्ध की. उन्हें याद करते हुए कभी हम उनकी सामाजिक भूमिका याद नहीं करते कि उन्होंने कितना दान दिया, कितनी समाज सेवा की, या किस राजनीतिक पार्टी के पक्ष या विपक्ष में बोले.

फिर शाहरुख खान पर विचार करते हुए हमारी मान्यताएं कैसे बदल सकती हैं? शाहरुख पर जब भी बात होगी, उनके अभिनय पर होगी, उनके निभाए चरित्रों पर होगी, उनकी फिल्मों पर होगी. उनके दान और उनके बयान पर हम किस तरह शाहरुख की सामाजिक भूमिका तय कर सकते हैं? नाना और अक्षय प्रशंसा के पात्र हैं कि उन्होंने किसानों के मुद्दे को गंभीरता से लिया और उनकी मदद के लिए आगे आये. लेकिन, इस आधार पर शाहरुख की भूमिका पर सवाल उठाने का हमें हक नहीं मिल जाता. रही बात बयान की, तो यह हमारे लिए विचारणीय है कि शाहरुख के राजनीतिक बयानों को हम महत्व क्यों देते हैं. उनका बयान किसी व्यक्ति का निजी नजरिया मात्र था. एक जनतंत्र में हम क्यों उम्मीद रखें कि हर कोई वही सोचे, वही बोले जो हम सोचते हैं? असहिष्णुता की बात कई राजनीतिक पार्टियां कर रही हैं, कई बुद्धिजीवी इस मुद्दे पर सक्रिय हैं, जब उन्हें हम देशद्रोही मान कर उनका बहिष्कार नहीं कर रहे हैं, तो शाहरुख की फिल्म का क्यों? ऐसे विरोध से कहीं न कहीं हम असहिष्णुता के प्रति शाहरुख की समझ को ही पुख्ता कर रहे होते हैं.

सिनेमा के मामले में यह देश कितना सहिष्णु है, यह इसी से समझा जा सकता है कि 2001 में निर्माता नाजिम हसन रिजवी ने भरत शाह के साथ मिल कर फिल्म चोरी चोरी चुपके चुपके बनायी. जब यह फिल्म रिलीज के लिए तैयार हुई, तो पता चला कि इस फिल्म में छोटा शकील का पैसा लगा है. फिल्म रिलीज होने के पहले ही रिजवी और भरत शाह दोनों ही जेल चले गये, लेकिन कमाल यह कि फिल्म चोरी चोरी चुपके चुपके सुपर हिट हुई. वास्तव में दर्शक को फर्क नहीं पड़ता कि परदे के पीछे क्या है, वह सिर्फ सिनेमा देखता है. संजय दत्त हथियारों की सौदागिरी के आरोप में कई बार जेल गये, जेल से आये, और हर बार दर्शकों ने उसे हाथों-हाथ लिया, यहां तक कि लगे रहो मुन्नाभाई जैसी फिल्म में भी दर्शकों को उन्हें स्वीकार करने में असुविधा नहीं हुई.

सिनेमा की लोकप्रियता से जीनेवाले पैरासाइट्स हिंदी सिनेमा के दर्शकों के लिए हमेशा निष्प्रभावी रहे हैं. वे जब फिल्म देखते हैं, तो सिर्फ फिल्म देखते हैं. आश्चर्य नहीं कि यहां शाहरुख की फिल्म भी फ्लॉप हो जाती है और शरमन जोशी की सुपरहिट. उन्हें फर्क नहीं पड़ता फिल्म किसने बनायी, किसने काम किया, उसकी पृष्ठभूमि क्या है आदि. उसे मतलब होता है बस सिनेमा से, परदे पर जो दिख रहा होता है, वह उसके काम का है तो ठीक, नहीं तो फिर अपने घर. यह दर्शकों की परिपक्वता का ही प्रतीक है कि पसंद के मामले में वह किसी की नहीं सुनते. सिनेमा के प्रति दर्शकों की यही ईमानदारी ही हिंदी सिनेमा की ताकत है.

विनोद अनुपम

फिल्म समीक्षक

vinodanupam@yahoo.co.in

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