।। पुष्पेश पंत ।।
(वरिष्ठ स्तंभकार)
पांच विधानसभाओं के लिए जो चुनाव अभियान जारी है, उसमें जिस तरह की भाषा-शैली का प्रयोग हो रहा है वह बेहद चिंताजनक है. इससे यह आशंका पैदा होने लगी है कि 2014 तक पहुंचते नौबत गाली-गलौज की हद पार कर मार-पीट तक पहुंच सकती है. आजादी के बाद पहले आम चुनाव से आज तक हालात इतने खराब कभी नजर नहीं आये थे. राजनैतिक मतभेद और जबर्दस्त विरोध के बावजूद शालीनता और शिष्टाचार का निर्वाह सभी उम्मीदवार करते थे. संसदीय जनतंत्र में आस्था रखनेवालों से यह अपेक्षा की जाती रही है कि वह अपने भाषणों में ‘संसदीय भाषा’ का ही इस्तेमाल करेंगे.
वैसे कड़वा सच तो यह है कि सदन के भीतर भी सदस्यगण अब उन शब्दों को वर्जित नहीं समझते जिनका अभद्र तथा अशोभनीय ही कहा जा सकता है. अनेक बार पीठासीन अध्यक्ष/ सभापति को इन्हें सदन की कार्यवाही से निकालने को बाध्य होना पड़ा है. इसके साथ ही यह जोड़ना परमावश्यक है कि हाजिरजवाबी, तर्कसंगत दलील या व्यंग्यात्मक कटाक्ष में असमर्थ हमारे निर्वाचित प्रतिनिधि चीखने-चिल्लाने को तथा सड़कछाप गुस्सैल मुहावरों को ही बहस में हथियार की तरह इस्तेमाल करने को उपयोगी समझते हैं. इससे विषयवस्तु-सार की जगह जुझारू तेवर और दबंग शैली को प्रमुख समझा जाने लगा है. फिर चुनाव अभियान भला इससे कैसे अछूते रह सकते हैं? यह बात भी कही जा चुकी है कि संसदीय भाषा का अनुशासन सदन के अंदर ही बरकरार रह सकता है. संसद से सड़क तक पहुंचते ही बातचीत बोलचाल की भाषा में ही होती है. इस पर रोकटोक को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के बुनियादी अधिकार को बाधित करना ही समझा जा सकता है. यह मुद्दा काफी उलझा हुआ है और इस पर ठंडे दिमाग से विचार किया जाना चाहिए.
हाल के दो उदाहरण इस संदर्भ में उल्लेखनीय हैं. जब मुजफ्फरनगर दंगों के परिप्रेक्ष्य में दिये एक उग्र भाषण के बारे में चुनाव आयोग ने राहुल से जवाब मांगा, तो उन्होंने जवाब दिया कि वह तो अपने दल की धर्मनिरपेक्ष विचारधारा का ही प्रतिपादन कर रहे थे- इसे भड़काऊ नहीं कहा जा सकता. दूसरी तरफ जब मोदी से सफाई मांगी गयी कि क्यों उन्होंने ‘खूनी पंजा’ जैसे अल्फाज उच्चारे, तो उन्होंने यह बात कही कि बोलचाल की भाषा में, रोजमर्रा की जिंदगी में इसका इस्तेमाल किया जाता है और इसे कतई आपत्तिजनक नहीं कहा जा सकता.
पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी को इसलिए कटघरे में खड़ा किया गया था कि उन्होंने अपने विरोधियों को ललकारते हुए ऐलान किया था कि ‘नानी याद दिला देंगे!’ जाहिर है कि राजीव जन साधारण तक अपनी बात पहुंचाने के लिए जनभाषा को अपना रहे थे. इस देश के श्रेष्ठवर्ग के अन्य सदस्यों की तरह हिंदी से उनका खास वास्ता नहीं था. मुहावरों का वजन समझने की विवशता इस वर्ग को नहीं होती. तब यह कहना संभव था कि भोलेपन में यह नादानी हुई थी. वैसे ईमानदारी का तकाजा यह है कि यह कबूल किया जाये कि इस मुहावरे को कोई गाली नहीं समझा जा सकता और न ही किसी भी तरह से अश्लील या अशोभनीय.
इसका यह अर्थ नहीं निकाला जाना चाहिए कि हम यह मानते हैं कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के बुनियादी अधिकार को कवच की तरह इस्तेमाल किया जा सकता है. दूसरे बुनियादी अधिकारों की तरह इसे भी राष्ट्रहित तथा जनहित में न्यायोचित विधि से संकुचित, सीमित तथा स्थगित किया जा सकता है. संविधान में वह स्थितियां स्पष्ट की गयी हैं, जब ऐसा किया जा सकता है. सांप्रदायिक विद्वेष भड़कानेवाले, किसी की मानहानि करनेवाले, विदेशी राज्यों से हमारे संबंध बिगाड़नेवाले, राजद्रोह का स्वर मुखर करनेवाले, देश की एकता अखंडता को जोखिम में डालनेवाले तथा किसी आपराधिक घटना को अंजाम देने के लिए उकसानेवाले वक्तव्यों को प्रतिबंधित तथा दंडनीय करार दिया गया है. जाहिर है कि चुनाव अभियान के दौरान भी न तो कोई प्रत्याशी, नेता या मीडियाकर्मी इस ‘लक्ष्मणरेखा’ का उलंघन कर सकता है.
विडंबना यह है कि जब कोई व्यक्ति ऐसा करता है, तो सभी राजनीतिक तत्व, जो खुद इस कवच का इस्तेमाल करना चाहते हैं, इस अभियान में जुट जाते हैं कि कड़ी सजा न दी जाये और माफी के बाद चेतावनी को ही यथेष्ठ समझ लिया जाये. मात्र दो उदाहरण काफी रहेंगे. उत्तर प्रदेश विधानसभा के पिछले चुनावों में केंद्रीय मंत्री सलमान खुर्शीद के मुसलमान अल्पसंख्यक वोटबैंक में सेंधमारी की नीयत से दिये गये आरक्षण की मांगवाले बयान हों अथवा भाजपा के युवा हृदय सम्राट वरुण गांधी के इन्हीं अल्पसंख्यको के दिल दहला देने वाले शब्द- चुनाव आयोग इनको दंडित करने में असमर्थ साबित हुआ. मात्र भर्त्सना या ङिाड़की काफी नहीं. यदि ऐसी ही नरमी बरती जाती रही, तो फिर आदर्श चुनाव संहिता का निरादर, तिरस्कार उल्लंघन सीनाजोरी के साथ होता रहेगा. कभी चेन्ना रेड्डी जैसे दिग्ग्ज नेता चुनाव प्रचार में भ्रष्ट आचरण के कारण छह वर्ष तक चुनाव लड़ने से रोके जाते थे; इस घड़ी मानसिकता यह है कि प्रेम, युद्ध और चुनाव में सब कुछ जायज है. याद रखें जनतांत्रिक चुनाव न तो प्रेम है और न ही कोई युद्ध!
राजनीति और सार्वजनिक जीवन में नया साफ-सुथरा नमूना पेश करने का दावा करनेवाले भी गाली-गुफ्तार से परहेज नहीं कर पाते. अन्ना आंदोलन के उफान पर ओम पुरी इसीलिए विवादास्पद बने. और दिल्ली में अपनी पार्टी का प्रचार करते एक टीवी एंकर ने देश के गृह मंत्री के लिए जिन शब्दों का प्रयोग किया, वह निश्चय ही शालीनता की परिधि से बाहर है. ‘इसकी जिम्मेदारी हमारी नहीं’ कह कर कोई भी दल आज बच नहीं सकता. मोदी द्वारा राहुल को बारंबार ‘शहजादा’ कह संबोधित करना गाली नहीं पर जब चुलबुली फिकरेबाजी के लालच में इसकी तुकबंदी कोई ‘इश्कजादा’ से करता है, तो पलभर के लिए हम यह सोचने को मजबूर होते हैं कि इस अंताक्षरी का अंत कहां होगा? नेताओं की बकैती कार्यकतरओ की खून खराबे वाली लठैती में बदल सकती है.
कहीं न कहीं इस गिरावट के लिए यह बात भी जिम्मेदार है कि हम अपने निर्वाचित प्रतिनिधियों के शैक्षिक स्तर के बारे में उदासीन रहते हैं, इसे महत्वपूर्ण नहीं समझते. ‘आम आदमी’ के बारे में यह गलतफहमी फैलायी जाती है कि वह वंचित, अभावग्रस्त और उत्पीड़ित-शोषित होने के साथ-साथ ‘असभ्य’ (कम से कम सुसंस्कृत नहीं) है और उस तक अपनी बात पहुंचाने या उसकी बात शासकों तक पहुंचाने के लिए उसी भाषा शैली का प्रयोग परमावश्यक है. हमारी समझ में यह अपनी निरंकुश उद्दंडता को जायज ठहराने की कुचेष्टा के सिवाय कुछ नहीं है.