कास फूल चुके हैं. हल्की गुलाबी ठंड दस्तक दे रही है. मौसम में खुनकी छायी है. ऐसे में प्रेम की याद भला किस ‘कठोर-हृदय’ को न आये. यह तो शय ही ऐसी है. धुरंधर कवियों से लेकर लिक्खाड़ कहानीकारों तक इसी की तो व्याख्या करने में लगे रह गये. इस ढाई अक्षर को पढ़ कर ही ‘मसि-कागद छुयो नहीं, कलम गयो नहीं हाथ…’ वाले बाबा कबीरदास महाज्ञानी हो गये. दिल पर हाथ रखिए और पूछिए कि इस जालिम ने कहीं खुद को कभी खर्चा था कि नहीं?
गो कि, वक्त के साथ इश्क भी बदला है. जब तक हम स्कूली जीवन के अंतिम चरण में थे, तो चारदीवारी से ही इश्क की पेंगें लड़ती थीं. लड़का अपनी छत पर खड़े होकर ही दूसरी छतों पर कभी दृश्य-कभी अदृश्य अपनी प्रेमिकाओं से संवाद स्थापित कर लेता था. क्या टेलीपैथी थी, क्या तकनीक थी और क्या संचार-क्रांति थी? कुछ फिल्मी गानों, रहीम-कबीर के कुछ दोहों और एकाध बाजारू शेरों का सहारा लेकर जो काव्यमय ‘प्रेम की पांती’ लिखी जाती थी, उसे धड़कते दिल से हमारा धीरोदात्त नायक अपनी साइकिल पर सवार, सीटी बजाता हुआ विरह-विदग्धा नायिका के घर की चारदीवारी से दूसरी ओर फेंक आता था. प्रेम-पत्र के जवाब का आना नायक के भाग्य पर निर्भर होता था. हालांकि, उस इंतजार की बेचैनी और जवाब न आने तक हमारे नायक की उद्विग्नता देखने लायक ही होती थी.
थोड़े बड़े हुए, तो कॉलेज के जमाने में लड़कियों को पता भी नहीं होता था और उनके नाम पर दो बाहुबली मार-पीट भी कर डालते थे. नायिका को पता हो या न हो, उसे पूरे कॉलेज में नायक ‘भाभी’ के नाम से मशहूर कर देता था. बाकी के लड़के भी पूरी गंभीरता से इस रिश्ते को निभाते भी थे और ‘भाभी’ की सहेलियों का आपस में पूरे मनोयोग से बंटवारा कर लेते थे. हां, समय की मार होती थी, तो तीन साल में नायिका अपनी पढ़ाई पूरी कर मेहंदी से अपने हाथ-पांव लाल कर ‘पिया के घर’ भी चली जाती थी और फिर नायक का सहारा जगजीत सिंह की गायी गजलें और नुक्कड़ पर पी गयी सिगरेट ही होती थी.
मोबाइल के दौर ने हमसे वह सब कुछ छीन लिया. ग्रीटिंग कार्ड की वह ताब ह्वाट्सएप्प और फेसबुक के संदेशों में कहां? ग्रीटिंग कार्ड पर संदेश लिखवाने के लिए एक एक्सपर्ट अंगरेजीदां भी होता था, जिसकी सबसे अधिक पूछ रहती थी, लेकिन अब तो आप कुछ भी अंड-बंड लिख कर भेज दो, किसे परवाह है? हमारे एक मित्र पूरे आठ दिनों तक अपनी होनेवाली प्रेमिका को देने के लिए ग्रीटिंग कार्ड अपनी शर्ट में छिपा कर लेते जाते रहे, लेकिन हिम्मत नहीं हुई कि उसे दे भी दें. आखिरकार, जब नायिका उनके जीवन में आयी, तो पसीने से भीगी, मुड़ी-तुड़ी और अक्षरों से हीन वह ग्रीटिंग कार्ड मेरे दोस्त ने अपने प्यार के प्रमाण के तौर पर पेश किया.
सोचता हूं कि इस अत्याधुनिक, यांत्रिक युग में उस दोस्त जैसा धैर्य और बेकली आज का युवा कहां से ला पायेगा? स्मार्टफोन के इस युग में तो यही सही लगता है कि प्रेम भी हाट में ही बिकनेवाली चीज हो गयी है, जिसे कभी भी बदला जा सकता है, फेंका जा सकता है…
व्यालोक
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