पिछले दिनों इराक में मारे गये लोगों की संख्या को देखें. वहां हर रोज पेरिस होता है. उस सुंदर शहर के नागरिकों का दुर्भाग्य है कि उनके लिए हिंसा अखबारों की आकर्षक तसवीरों की तरह नहीं रही, अब वह उनकी सड़कों तक आ पहुंची है.
अक्तूबर, 2001 में वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हमले के कुछ सप्ताह बाद मैं अफगानिस्तान गया था. अमेरिकियों ने हाल ही में युद्ध शुरू किया था और देश का अधिकतर हिस्सा तालिबान के कब्जे में था. मैं कुंदुज प्रांत में नॉर्दर्न अलायंस के अधिकार-क्षेत्र में था. उनके लड़ाके एक पुराने स्थिर सोवियत टैंक का इस्तेमाल करते थे. टैंक के पहिये का आवरण बरबाद हो चुका था और उसका इंजन भी काम नहीं कर रहा था. उसे स्थिर रखने के लिए कुछ फुट जमीन में धंसा दिया गया था. उसके ऊपर एक 50 कैलिबर का मशीनगन लगाया गया था.
ये युद्ध के शुरुआती दिन थे और पत्रकारों काे लड़ाई के मोर्चे से हटाना शुरू नहीं हुआ था. मैं लड़ाकों के छोटे समूह को अमेरिकियों के साथ मिल कर लड़ते हुए देख रहा था, जो कुछ ही दूर स्थित तालिबान के ठिकानों पर हवाई हमले कर रहे थे. बम गिरने की आवाजें मैं पहली बार सुन रहा था, जिन्हें अभी तक मैंने सिर्फ टीवी के परदे पर देखा था. यह सब बहुत डरावना और अजीब अनुभव था. कुछ ही दूरी पर तोपों के गरजने और मशीनगनों के चलने की आवाजों के लिए मैं कतई तैयार नहीं था और मेरे शरीर को इस भयावह हिंसा की आवाजों को सहन करने के बारे में पता नहीं था. मैं तब तक अवाक खड़ा था, जब तक कि किसी ने मुझे खींच कर मेरे कानों को बंद नहीं कर दिया.
कुछ वर्षों बाद मैंने सीएनएन पर इराक पर बम गिरते हुए देखा. अमेरिकियों की रणनीति यह थी कि बगदाद पर इतनी बमबारी की जाये कि सद्दाम हुसैन की सेना उनकी ताकत से सहम जाये. लेकिन इस अत्यधिक हिंसा को सहने के लिए अनिच्छुक बगदाद के नागरिकों ने इसकी कैसे अनुभूति की होगी? सीएनएन को इसकी कोई परवाह नहीं थी. इसने 9/11 के हमलों की खबर ‘अमेरिका अंडर अटैक’ की सुर्खी के साथ दी थी. इस चैनल ने इराक युद्ध की खबर की सुर्खी ‘स्ट्राइक ऑन इराक’ शीर्षक से बनायी, न कि ‘इराक अंडर अटैक’. शहरी इलाकों पर बम बरसते देख कर मैं भयभीत था और मुझे पता था कि इसके नतीजे ठीक नहीं होंगे. आप लाखों लोगों की आबादी को ऐसी अतिवादी संत्रास का निशाना नहीं बना सकते हैं और ऐसा करने के बाद आप यह उम्मीद भी नहीं रख सकते हैं कि आपके जाने के बाद वहां सब कुछ सामान्य हो जायेगा, जैसा कि अमेरीकियों ने किया.
ब्रिटेन के रुढ़िवादी अखबार द टेलीग्राफ में दो साल पहले युद्ध के शुरुआती दिनों के बारे में एक रिपोर्ट छपी थी. इस रिपोर्ट में कहा गया था कि इराक में मरनेवालों की संख्या का आकलन करनेवाली विश्वसनीय संस्था इराक बॉडी काउंट के अनुसार, आक्रमण के शुरू में 6,716 नागरिकों की मौत हुई यानी 320 लोग रोजाना मारे गये. इस संस्था के अनुसार, इराक में लड़ाकों समेत 2,24,000 लोग ‘शॉक एंड ऑव’ के शुरू होने के बाद मारे गये हैं.
यह बात मैं सोमवार की सुबह लिख रहा हूं. इस संस्था के वेबसाइट ने पिछले दो दिनों में हुई मौतों की निम्नलिखित सूचना दी हैः
रविवार, 15 नवंबर : 181 मृत (सामूहिक कब्रों में पायी गयीं लाशें भी इस संख्या में शामिल)- मोसुल: 73 लोगों की हत्या, सिंजर: 50 लाशें कब्रों में, ताल अफार: 20 लोगों की हत्या, तुज खुरमातो: 16 लोग झड़पों में मारे गये, बगदाद: सात लोग बारूदी सुरंग से और एक व्यक्ति गोली से मारा गया, अमीरियात अल-फालुज्जा: तीन लोग मोर्टार हमले में मारे गये, तुज: दो लोग बंदूक से मारे गये, ताजी: एक लाश मिली, महमुदिया: एक आदमी बंदूक से और दो लोग बम से मारे गये, मदाइन: तीन लोग गोलीबारी में हताहत, बैजी: एक लाश बरामद, किरकुक: एक व्यक्ति गोलीबारी में मृत.
शनिवार, 14 नवंबर : 119 लोग मारे गये (सामूहिक कब्रों में मिली लाशें भी इस संख्या में शामिल)- सिंजर: इसलामिक स्टेट से आजाद कराये गये इलाकों में दो सामूहिक कब्रों से 100 लाशें मिलीं, बगदाद: छह लोग बारूदी सुरंग और गोलीबारी में हताहत, वजिहिया: पांच लोग बारूदी सुरंग से मारे गये, तरमिया: एक आदमी गोलीबारी में मारा गया, मुक्दादिया: एक लाश मिली, अल-जूर: एक आदमी गोलीबारी में मरा, मदाइन: एक आदमी बम के हमले में मृत, महमुदिया: एक आदमी बारूदी सुरंग से हताहत, मंसूरिया: एक लाश बरामद, नजफ: एक लाश बरामद, लतीफिया: गोलीबारी में एक की मौत.
अमेरिका और ब्रिटेन ने शासन द्वारा संचालित देश को तबाह कर दिया. सीरिया और लीबिया में हस्तक्षेप इराक प्रकरण से अलग नहीं है. जब पश्चिमी ताकतों से यह सवाल पूछा जाता है, तो उनका जवाब यही होता है कि तानाशाही से मुक्ति पाने के लिए इतनी कीमत चुकाना सही है. लेकिन वे इस बात को कतई स्वीकार नहीं करेंगे कि उनकी हिंसा का एक नतीजा आतंकवाद की पैदाइश भी हो सकता है.
पेरिस में चरमपंथियों के गिरोह इसलामिक स्टेट ने हमला किया है, जिसने अरब के उन इलाकों पर अपना कब्जा कर लिया है, जहां अब संगठित और सक्रिय सरकारों का अस्तित्व नहीं रहा है. आखिर उनका अस्तित्व क्यों नहीं बचा? क्योंकि अमेरिका और यूरोप ने या तो उन सरकारों को हमला कर बेदखल कर दिया या फिर उन सरकारों के विरुद्ध विद्रोहों को हथियार और समर्थन मुहैया कराया.
आम तौर पर पश्चिमी देशों के नागरिकों ने युद्ध से उनके देशों को हुए नुकसान को नहीं समझा है. मुझे भी कुंदुज की उस शाम से पहले इस बारे में कुछ भी पता नहीं था. पश्चिम में अखबार और टीवी चैनल लाशों या हिंसा की तसवीरें नहीं दिखाते हैं. युद्ध को एक अच्छा आवरण दे दिया गया है. पिछले सप्ताह अमेरिकी लेखक डेविड शील्ड्स की किताब आयी है, जिसका शीर्षक ‘वार इज ब्यूटीफुल: द न्यूयॉर्क टाइम्स पिक्टोरियल गाइड टू द ग्लैमर ऑफ आर्म्ड कनफ्लिक्ट’ है. उन्होंने इस अमेरिकी अखबार पर युद्ध को आकर्षक दिखाने के लिए कलात्मक तसवीरों के इस्तेमाल का आरोप लगाया है.
पिछले दिनों इराक में मारे गये लोगों की संख्या को देखें. वहां हर रोज पेरिस होता है. उस सुंदर शहर के नागरिकों का दुर्भाग्य है कि उनके लिए हिंसा अखबारों की आकर्षक तसवीरों की तरह नहीं रही, अब वह उनकी सड़कों तक आ पहुंची है.
आकार पटेल
कार्यकारी निदेशक, एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया
aakar.patel@me.com