देश को आधुनिक, निष्पक्ष और मजबूत समान नागरिक संहिता की जरूरत है. सरकार की जिम्मेवारी है कि वह लोगों को इस बारे में जागरूक करे. इससे महिलाओं का भला होगा.
भारत में धर्म-निरपेक्षता का अर्थ ‘हर धर्म को साथ लेकर चलना’ है. धर्म का काम है इंसान को जीने के कायदे बताना. भारत में मुख्यत: जिन धार्मिक समाजों का अस्तित्व है वे हैं- सनातन धर्म, इसलाम, ईसाइयत, सिख, पारसी, यहूदी, जैन, यहोवा के साक्षी आदि. इन सभी धर्मों के अपने-अपने धार्मिक उसूल हैं. इन धर्मों में कई ऐसी कुरीतियां भी हैं, जिनकी एक सभ्य समाज में जगह नहीं होनी चाहिए.
सही में धर्म-निरपेक्षता का अर्थ है- धर्म को पूरी तरह संविधान और न्याय व्यवस्था से अलग रखना. देश में मौजूद विभिन्न समुदायों को अपने धार्मिक-ग्रंथों के अनुसार अलग कानून की इजाजत धर्म-निरपेक्षता नहीं ‘धर्म-पक्षता’ है. वह भी तब, जब ये कानून सदियों पहले अस्तित्व में आये धार्मिक-ग्रंथों पर आधारित हों और इनका बहुत बड़ा हिस्सा स्त्री-विरोधी हो. देश में इस वक्त बीस से ज्यादा पर्सनल लॉ मौजूद हैं, जिनमें से कई 1947 से भी पहले के हैं. संविधान में वक्त-वक्त पर जरूरी संशोधन होते रहे हैं. लेकिन, पर्सनल लॉ के मामले में सरकार या न्यायपालिका कोई हस्तक्षेप नहीं करती.
हमारी अदालतों ने कुछ स्वागत-योग्य फैसले भी दिये हैं. जैसे हाल ही में सुप्रीम कोर्ट द्वारा हिंदू विधवाओं से जुड़े संपत्ति पर अधिकार को लेकर दिया गया एक अहम फैसला, जिसमें कहा गया कि भले ही वसीयत के अनुसार विधवा को संपत्ति में सीमित अधिकार दिये गये हों, लेकिन अगर भरण-पोषण के लिए जरूरी हो, तो वह सीमित अधिकार पूर्ण अधिकार में बदल जायेगा. पिछले दिनों गुजरात हाइकोर्ट ने भी एक फैसला सुनाते हुए देश में समान नागरिक संहिता की जरूरत पर जोर दिया. मामला एक से अधिक शादियां करने का था, जिसमें पत्नी ने अपने पति पर बिना उसकी इजाजत के दूसरी शादी करने का आरोप लगाया था.
देश में एक से अधिक शादियां गैर-कानूनी है, पर मुसलिम पर्सनल लॉ के तहत कुछ लोग आज भी ऐसा करते हैं. गैर-मुसलिम भी मुसलिम पर्सनल लॉ की आड़ लेकर एक से ज्यादा शादियां रचाने के मकसद से धर्म परिवर्तन करते हैं. ऐसे लूपहोल कानूनी व्यवस्था पर तमाचा हैं.
समान नागरिक संहिता को लेकर देश के अल्पसंख्यकों के मन में कई शंकाएं हैं. अफसोस है कि आजादी के बाद से अब तक किसी भी सरकार ने इन शंकाओं को दूर करने की कोशिश नहीं की. 2014 लोकसभा चुनाव में भाजपा का घोषणापत्र समान नागरिक संहिता लाने की बात तो करता है, पर साथ ही राम-मंदिर निर्माण और जम्मू-कश्मीर की विशेष हैसियत से संबंधित संविधान के अनुच्छेद 370 को निरस्त करने की बात भी कहता है. समान नागरिक संहिता की मांग लंबे समय से हिंदुत्व के सबसे बड़े झंडाबरदार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की भी रही है.
एक तरफ लंबे समय तक शासन में रही कांग्रेस का इस मुद्दे को कभी वाजिब भाव न देना, और दूसरी तरफ आरएसएस द्वारा इसकी मांग करना और संघ-समर्थित भाजपा द्वारा इसे अपने घोषणापत्र में रखना, देश के अल्पसंख्यकों के मन में एक गलत धारणा पैदा करता है कि समान नागरिक संहिता का अर्थ हिंदू संहिता है, जो पूरी तरह से गलत है.
समान नागरिक संहिता लागू होने का अर्थ सिर्फ इतना है कि धर्म के नाम पर सदियों पहले बनाये गये कानून का पालन होना बंद हो. बीते सितंबर में गुजरात हाइकोर्ट ने एक नाबालिग बच्ची के निकाह को खारिज करते हुए कहा था कि इस मामले में मुसलिम पर्सनल लॉ की जगह चाइल्ड मैरेज अधिनियम लागू होगा. बीस से ज्यादा निजी कानूनों की मौजूदगी न्याय-व्यवस्था पर अतिरिक्त भार डालती है. हिंदू माइनॉरिटी एंड गार्जियनशिप अधिनियम तलाक के मामले में सीधे रूप से बच्चों के संरक्षण का अधिकार पिता को देता है. जबकि मुसलिम कानून मां के बच्चों पर हक को खारिज नहीं करता. इन विभिन्न निजी कानूनों में कहीं कुछ अच्छा, तो कहीं कुछ बुरा है. हिंदू पर्सनल कानून में उत्तराधिकार, बच्चों के संरक्षण और विधवाओं के अधिकार जैसे कुछ मुद्दे स्त्री-विरोधी हैं. भारतीय ईसाई विवाह अधिनियम 1872 व भारतीय तलाक अधिनियम 1969 में कई संशोधन हुए हैं, जिसके चलते बाकी निजी कानूनों के मुकाबले उनमें भेदभाव कम है.
मतलब साफ है देश को आधुनिक, निष्पक्ष और मजबूत समान नागरिक संहिता की बहुत जरूरत है. सरकार की जिम्मेवारी है कि वह लोगों को इस बारे में जागरूक करे और उनकी शंकाओं को दूर करे. समान नागरिक संहिता आने से महिलाओं का भला होगा. परंपराओं को कानून में ढालने से किसी भी देश या समुदाय का सिर्फ नुकसान ही हो सकता है. क्योंकि, परंपराएं मिटने के डर से बदलती नहीं और समाज अगर बदलता नहीं, तो वह मिट जाता है.
फौजिया रियाज
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