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यह अपराजेय पर जीत की गूंज है

उत्तर प्रदेश के बाराबंकी के एक गांव में रविवार को बिहार चुनाव का रिजल्ट जानने के लिए लोग टीवी से ऐसे चिपके थे, मानो भारत-पाकिस्तान का क्रिकेट मैच हो रहा हो. दिल्ली, कोलकाता, मुंबई हो या लखनऊ, राजनीति में दिलचस्पी रखनेवाले ज्यादातर लोगों का हर जगह यही हाल था. जिन्हें यह रिजल्ट भाया, वे अपने […]

उत्तर प्रदेश के बाराबंकी के एक गांव में रविवार को बिहार चुनाव का रिजल्ट जानने के लिए लोग टीवी से ऐसे चिपके थे, मानो भारत-पाकिस्तान का क्रिकेट मैच हो रहा हो. दिल्ली, कोलकाता, मुंबई हो या लखनऊ, राजनीति में दिलचस्पी रखनेवाले ज्यादातर लोगों का हर जगह यही हाल था. जिन्हें यह रिजल्ट भाया, वे अपने बिहारी दोस्तों को बधाई दे रहे थे. उनसे ऐसी जबरदस्त जीत की वजह समझने की कोशिश कर रहे थे. जिन्हें नहीं भाया, वे आनेवाले दिनों की कल्पना में कुलांचे भर रहे थे. सोशल मीडिया पर भी दो दिनों से दोनों तरह की टिप्पणियों की बाढ़ है. बिहार चुनाव के रिजल्ट की गूंज कल्पना से परे है.

आखिर बिहार जैसे छोटे राज्य के विधानसभा चुनाव में ऐसा क्या था, जिसके नतीजे पूरे देश में चर्चा का विषय बन गये हैं? यह चर्चा अभी थमी नहीं है. शायद कुछ दिनों तक थमे भी नहीं. यह अपराजेय पर जीत की गूंज है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी लीडरशिप में भाजपा को पिछले डेढ़ दशक में अपराजेय मान लिया गया था. मुख्यमंत्री रहते वे गुजरात का कोई विधानसभा चुनाव नहीं हारे. गुजरात दंगों के बाद भारी आलोचनाओं के बीच भी जीते. उनके नेतृत्व में भाजपा को पिछले लोकसभा चुनाव में भी जबरदस्त सीटें मिलीं. उन्हें जीत का पर्याय मान लिया गया. वैसे, जीतना कोई बुरी बात नहीं है. लेकिन, जब किसी की जीत समाज के बड़े हिस्से को डराने लगे तो फिक्र की बात है.

मोदी के नेतृत्व में विकास का ऐसा मॉडल सामने आया, जो सबके लिए नहीं था. गुजरात में दंगों के बाद समाज में जबरदस्त बंटवारा देखने को मिला और मोदी ने इसे खत्म करने की कोई कोशिश नहीं की. मोदी की छवि एक कट्टर हिंदुत्ववादी नेता की बनी और प्रधानमंत्री बनने के बाद भी वे उस छवि से उबर नहीं पाये. उनके चाहनेवालों के उग्र और असहिष्णु तेवर बताते हैं कि उन्हें भी उनकी यही छवि पसंद है.

इसी बीच, बिहार चुनाव आया. प्रधानमंत्री और भाजपा अध्यक्ष ने इसे अपने प्रचार अभियान से राष्ट्रीय चुनाव बना दिया. इसे व्यक्तिगत जीत-हार का सवाल बना दिया. चुनाव प्रचार मैं, मैं और चारों ओर मैं मय हो गया. मंत्री, सांसद और भाजपा अध्यक्ष के मुंह से ऐसी बातें निकलने लगीं, जो देश और समाज की सेहत के लिए कहीं से फायदेमंद नहीं थीं. इससे न सिर्फ अल्पसंख्यकों के बीच, बल्कि समाज के बड़े धर्मनिरपेक्ष तबके में डर-असुरक्षा का माहौल घर करने लगा.

यह भी लगा कि बिहार चुनाव की जीत, प्रधानमंत्री और उनकी पार्टी को वह ताकत दे देगी, जो ताकत किसी तरह की असहमति को बर्दाश्त नहीं करेगी. इस डर में यह बात बार-बार इजाफा कर रही थी कि मोदी अपराजेय हैं, सो अगर वे बिहार चुनाव जीत जाते हैं, तो बिहार सामाजिक रूप से बंटेगा ही, देश में खौफ की छाया भी और गहरी होगी. हारे वे दिल्ली में भी थे, लेकिन बिहार की जीत का संदेश बहुत गहरा है. खौफ का साया कितना कम हुआ है या होगा- यह तो भविष्य बतायेगा, लेकिन बिहार ने यह तो बता ही दिया कि अपराजेय कोई नहीं है. प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में भाजपा भी नहीं. चाहे उसके पीछे कितनी भी ताकत क्यों न हो, नफरत की राजनीति को हराया जा सकता है.

नासिरुद्दीन
स्वतंत्र पत्रकार
nasiruddinhk@gmail.com

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