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नकारात्मक पहलुओं को समझना चाहिए

आकार पटेल कार्यकारी निदेशक, एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया अधिकतर मध्यवर्गीय हिंदुओं, खासकर गुजरातियों, की तरह मैं भी राष्ट्रवाद और धर्म के बारे में विशेष विचारों के साथ बड़ा हुआ. कम उम्र में हिंदुत्व के विचार की ओर आकर्षित होना आसान है, क्योंकि इसके मूल तत्व बिल्कुल बुनियादी और निरपवाद हैं. इसमें जो कुछ नकारात्मकता है, वह […]

आकार पटेल
कार्यकारी निदेशक, एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया
अधिकतर मध्यवर्गीय हिंदुओं, खासकर गुजरातियों, की तरह मैं भी राष्ट्रवाद और धर्म के बारे में विशेष विचारों के साथ बड़ा हुआ. कम उम्र में हिंदुत्व के विचार की ओर आकर्षित होना आसान है, क्योंकि इसके मूल तत्व बिल्कुल बुनियादी और निरपवाद हैं. इसमें जो कुछ नकारात्मकता है, वह बहुत स्पष्ट है.
यह राष्ट्र और संस्कृति के प्रति बढ़ते प्रेम और सनातन भारत माता के विचार पर आधारित प्रतीत होता है, और ये दोनों ही एक तत्व के रूप में प्रस्तुत किये जाते हैं, जो कि हिंदू धर्म है. इस प्रकार हिंदू शब्द न सिर्फ धर्म के चिह्नों को संप्रेषित करता है, बल्कि राष्ट्रीयता, संस्कृति और भूगोल को भी प्रतिबिंबित करता है.
और इन सब बातों को हम सत्य के रूप में स्वीकार करते हैं, क्योंकि कुछ महान लोगों ने ऐसा कहा है. इस पहलू को समझना महत्वपूर्ण है. हमारी प्रवृत्ति बिना सोचे-विचारे लोगों का आदर करने की है. ज्ञान संग्रहित नहीं किया जाता है, इसे समाहित किया जाता है. और, इसलिए, लोगों के महान होने के बारे में सोचना सिर्फ इस कारण स्वाभाविक है कि उनके नाम हमारे सामने बार-बार दोहराये जाते हैं. यह बात केवल हिंदुत्व के नायकों के साथ ही लागू नहीं होती है और मैं इसे स्वीकार करता हूं.
हममें से बहुतों को कम जानकारी है कि नेहरू और गांधी ने वास्तव में क्या लिखा है, पर हम इस बात को लेकर निश्चिंत हैं कि हम उन्हें और उनके विचारों को भली-भांति जानते हैं. मैंने युवावस्था में सावरकर का लिखा ‘हिंदुत्व’ पढ़ा था और इससे मुझे निराशा हुई थी.
मैं समझ नहीं सका कि उन्हें इतना महान क्यों माना जाता है. मेरी समझ में वह बहुत साधारण आलेख था और उसमें कुछ भी मौलिकता नहीं थी. सावरकर खुद भी बहुत पढ़े-लिखे नहीं थे और उनके आलेख में दूसरों के लेखन के बहुत कम संदर्भ हैं. उनका मुख्य विचार राष्ट्र के प्रति संपूर्ण प्रेम था, लेकिन, जैसा कि मैंने पहले कहा, भारत में हममें से अधिकांश में यह भावना बहुत सुगमता से है.
अन्य हिंदुत्व लेखकों- गुरुजी गोलवलकर (मुख्य रूप में भाषण और साक्षात्कार) और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विचारक पंडित दीनदयाल उपाध्याय के थोड़े लेखन- को पढ़ने के बाद मुझे यही अहसास हुआ कि हिंदुत्व के पास जो है, वह बस यही है. यह उनकी विचारधारा थी जिनके दिमाग बंद थे, और यह बुद्धि से अधिक उन्माद से संबद्ध था. इस अहसास से
मुझे बहुत राहत मिली, क्योंकि तब तक मैं इसके मूल तत्वों को नापसंद करने लगा था. मुझे यह दिखने लगा था कि किस तरह हिंदुत्व को नकारात्मकता से गढ़ा गया है. उनकी तीन मांगें रही हैं- राम जन्मभूमि (मुसलिमों को अपनी मसजिद नहीं रखनी चाहिए), समान नागरिक संहिता (मुसलिमों को अपने पारिवारिक कानून नहीं रखने चाहिए), और जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 हटाना (मुसलिमों को अपनी संवैधानिक स्वायत्तता नहीं रखनी चाहिए). इन तीनों मांगों में हिंदुओं के लिए कुछ भी सकारात्मक नहीं है.
हिंदुत्व की विचारधारा सिर्फ असंतोष और घृणा का प्रस्ताव करती है. यह दूसरों की ओर अंगुली दिखाने और दूसरों को दोषी बतानेवाली विचारधारा है. देश के कभी महान होने की धारणा के साथ यह विचारधारा मानती है कि हमें नही, बल्कि दूसरों को इस देश को फिर से महान बनाने के लिए काम करना चाहिए.
मेरी राय में राष्ट्र के रूप में हमारी समस्याओं को देखने का यह बचकाना तरीका था और मैं इससे सहमत नहीं हो सका. टेलीविजन कार्यक्रमों में हिंदुत्व के समर्थकों के साथ बहस करना भी मेरे लिए मुश्किल हो जाता है, क्योंकि यह उस बच्चे को डांटने की तरह है, जो खुद को सही मानने की जिद्द पर अड़ा हो.
अगर हिंदुत्व ने भारत और भारतीयों को बहुत अधिक नुकसान नहीं पहुंचाया होता, तो मैं इसे और इसके पुरोधाओं को नजरअंदाज कर देता. लेकिन ऐसा नहीं किया जा सकता है. भारत के संस्कृति मंत्री महेश शर्मा अभी खबरों में हैं, क्योंकि हिंदुत्व का संस्कृति से अधिक लेना-देना है. इसका अर्थशास्त्र में कोई योगदान नहीं है. हिंदुत्व के बहुत समर्थकों को यह जान कर आश्चर्य होगा कि दीन दयाल उपाध्याय भले ही उसके विचारक माने जाते हैं, पर वे एक समाजवादी थे और उनके आर्थिक विचारों को भारतीय जनता पार्टी ने मनमोहन सिंह के उदारीकरण के बाद पूरी तरह से त्याग दिया है.
हिंदुत्व का विज्ञान में भी कोई योगदान नहीं है, और जब बैद्धिक उनके विचारों को चुनौती देते हैं, तो हिंदुत्ववादी परेशान हो जाते हैं और उनकी हत्या तक कर देते हैं. ‘संस्कृति’ के अलावा इसका किसी क्षेत्र में कोई योगदान नहीं है, जहां उसकी जिद्द होती है कि उसकी समझ ही एकमात्र सही विचार है. इसीलिए शर्मा जैसे लोग सुर्खियों में आ जाते हैं, न कि विज्ञान मंत्री (वह जो भी हो), क्योंकि उसमें हिंदुत्व की रुचि नहीं है. अपने नाम के बावजूद उसकी रुचि हिंदुओं में नहीं, बल्कि मुसलिमों में है.
शर्मा ने पहले कहा कि बाइबिल और कुरान भारत की आत्मा के केंद्र में नहीं हैं, जैसे कि गीता और रामायण हैं. फिर उन्होंने पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम के बारे में कहा- ‘औरंगजेब रोड का नाम भी बदल कर एक ऐसे महापुरुष के नाम पर किया है, जो मुसलमान होते हुए भी इतना बड़ा राष्ट्रवादी और मानवतावादी इंसान था- एपीजे अब्दुल कलाम, उनके नाम पर किया गया है.’ मुझे कोई आश्चर्य नहीं है कि एक हिंदुत्ववादी इस तरह की बकवास बातें कर रहा है.
मैं थोड़ा चकित जरूर हूं कि इस मंत्री में अभी भी ये बचकानापन बाकी है. मैं जानता हूं कि वे अपनी युवावस्था में क्यों धर्मांधता की ओर आकर्षित थे, क्योंकि मैं भी ऐसा ही था और इसे मैं स्वीकार करता हूं. किशोरावस्था में पूर्वाग्रहों से ग्रस्त होना और बंद दिमाग का होना आसान है.
लेकिन व्यस्क व्यक्ति को दुनिया को व्यस्क की तरह देखना चाहिए, न कि झगड़ालू और संकीर्ण स्कूली बच्चे की तरह. यह भी हिंदुओं के लिए बहुत अच्छी बात होगी, अगर हिंदुत्व मुसलिमों के बारे में बात करना बंद कर हिंदुओं की ओर रुख करे, तो मैं निश्चित तौर पर ऐसी विचारधारा के साथ जुड़ने के बारे में विचार करूंगा.

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