सांस्कृतिक विविधता से भरे देश में वैदिक सभ्यता और संस्कृति के पर्व त्योहारों की प्रधानता रहने के बावजूद ग्रामीण जनगोष्ठियों मेंअतिप्राचीन प्राक् वैदिक अनार्य धार्मिक-सांस्कृतिक आज भी अजस्र प्रवाहमान है. हालांकि, इन अति प्राचीन सांस्कृतिक संस्कृतियों पर अनेकानेक हमले होते रहे हैं, परंतु इनकी जड़ें ग्रामीण जनजीवन में इतनी गहरी हैं कि इसका समूल विनाश नहीं किया जा सका.
भारत के दक्षिण-पूर्वी क्षेत्र विशेषतः छोटनागपुर (कुड़मि परगना), संताल परगना, मालभूम, कोल्हान, जंगलमहल सहित झारखंड, बंगाल, ओड़िशा के सीमावर्ती क्षेत्रों के लोकजीवन में आखाइन, बाहा, सिझानअ, गांजन, सरहुल, रहइन, जांताड़ (मनसा), करम, छाता, जितिआ, जिल्हुड़, बांदना, और टूसू जैसे पर्व-त्योहारों में जिन सांस्कृतिक धारा के दर्शन होते हैं, वे पूर्णतः अवैदिक, एवं वेद-पूर्व, प्राचीन दहबिड़ (द्रविड़) सभ्यता की सांस्कृतिक धाराएं हैं. इस क्षेत्र के लोकजीवन में होली, दीवाली, रथयात्रा यहां तक कि दुर्गापूजा जैसे बड़े पर्व त्योहारों में भी वो बात नहीं, जो इन उपरोक्त जनजातीय पर्वों में देखने को मिलता है. आज भी उन सामंतवादी पर्वों से ये लोकपर्व अधिक महत्वपूर्ण व जीवंत माने जाते हैं. ‘करम-परब’ इन्हीं लोक पर्वों में सर्वाधिक महत्वपूर्ण माना जानेवाला पर्व है. वर्तमान समय में यहां के जनजातीय जीवन में सांस्कृतिक क्षरण एवं बाह्य अतिक्रमण के फलस्वरुप ‘करम-परब’ की पूजा-पार्वन विधि में ब्राह्मनवादी कथाओं व तौर तरीकों का घुसपैठ हो जाने के बावजूद इनकी मूल प्रकृति अभी भी पूर्णतः अवैदिक एवं जनजातीय हैं. करम परब मूलतः सृजन का प्रतीक है. हालांकि, इसके संबंध में कई काल्पनिक कथाएं भी गढ़ी गयी हैं.
Àमहादेव महतो, तालगड़िया