।।चंदन श्रीवास्तव।।
(एसोसिएट फेलो सीएसडीएस)
ओड़िशा और आंध्र के तटीय इलाके में गरजनेवाला चक्रवात अभी बिहार और झारखंड में बरस रहा है. इससे नुकसान कितना हुआ, इसका आधिकारिक आकलन अभी बाकी है. लेकिन इस एक तथ्य के आधार पर कि चक्रवात में मरनेवालों का आंकड़ा पचास भी पार न कर पाया, राजधानी दिल्ली के अखबारों में जयगान गाया जा रहा है कि ‘ओड़िशा और आंध्र प्रदेश में एक चमत्कार घटित हुआ है.’ गर्वोक्ति की जा रही है कि ‘पूर्वाग्रहों ने हमें अंधा न कर दिया हो तो इतिहास की भीषण आपदाओं में से एक के सामने इस कदर तन कर खड़े हो जाने की अपनी काबिलियत पर हमें नाज होना चाहिए.’
फैलिन से मुकाबला और श्रेय की होड़
उत्तराखंड की आपदा से घायल मन को आत्मतोष देने के लिए ऐसा सोचना अच्छा लगता है. अगर 200 किलोमीटर प्रतिघंटे की रफ्तार से चलनेवाली हवाओं का रुख भांप कर महज 72 घंटे के भीतर सवा नौ लाख लोगों को सुरक्षित स्थान पर पहुंचाया गया और करीब सवा लाख लोगों के लिए आनन-फानन में राहत शिविर तान दिये गये, तो यह सचमुच बड़ी उपलब्धि है. चौदह साल पहले की स्थिति की तुलना करें, तो इस बार आपदा प्रबंधन की अपनी काबिलियत पर नाज करना और भी सही लगता है. चौदह साल पहले (1999) ओड़िशा के तटीय इलाके में 05बी नाम का चक्रवात आया था. तब वहां मुख्यमंत्री की कुर्सी पर गिरिधर गोमांग आसीन थे. तब 29 अक्तूबर को भुवनेश्वर के आसमान को 250 किमी प्रतिघंटे की रफ्तार से चलनेवाले प्रभंजन ने घेर लिया. खबर छपी कि गिरिधर गोमांग ने ज्योतिषियों से पूछा है कि सिर पर मंडरा रही यह बला कब तक टलेगी, और ज्योतिषियों ने उन्हें बताया कि चिंता की कोई खास बात नहीं है, क्योंकि चक्रवात कुछ ही घंटों में दो टुकड़ों में बंट कर ओड़िशा के आसमान को छोड़ता हुआ गुजर जायेगा. अधिकारीगण जगतसिंहपुर जिले के लोगों को यह तक नहीं समझा पाये थे कि समुद्री लहरें उनका घर-घाट और जीवन लील जायेंगी. उस वक्त समय रहते महज 45 हजार लोगों से घर खाली कराया जा सका था और उन 45 हजार लोगों को सुरक्षित ठहराने के नाम पर महज 23 शिविरों में भेड़-बकरी की तरह ठूंस दिया गया था. ये शिविर भी राज्य सरकार के बूते नहीं, बल्कि रेडक्रॉस संस्था की मेहरबानी से बने थे.
चौदह साल पहले की स्थिति को देखें, तो लगेगा इस बार इंतजाम के मामले में सचमुच कायापलट हो गया. ओड़िशा और आंध्र प्रदेश में कुल 500 से ज्यादा राहत शिविरों में सवा लाख लोगों के रहने-ठहरने का इंतजाम किया गया. चौदह साल पहले आये प्रभंजन में 9803 लोगों की जान गयी थी, जबकि इस बार मरनेवालों की तादाद 27 बतायी जा रही है. पिछली बार ओड़िशा का सचिवालय तक जेनरेटर के अभाव में अंधेरे में डूब गया था, जबकि इस बार कहा जा रहा है कि हफ्ते भर में प्रभावित इलाके में बिजली और संचार की सुविधाएं सामान्य र्ढे पर आ जायेंगी. 1999 में ओड़िशा में गिरिधर गोमांग ज्योतिषियों की शरण में थे, जबकि इस बार मुख्यमंत्री नवीन पटनायक की मुस्तैदी और केंद्र सरकार के सहयोग के कारण हेलीकॉप्टर, बुलडोजर, सेटेलाइट, राडार और फौज की बटालियनों तक ने समय रहते मोरचा संभाल लिया था.
चक्रवाती तूफान फैलिन से 36 लोगों की मौत
चक्रवात की भयावहता को देखते हुए कहा जा रहा है कि इसमें दस हजार लोगों की जान जा सकती थी, लेकिन प्रशासन की मुस्तैदी और प्रौद्योगिकी की बढ़ी क्षमता के कारण हजारों जानें बचा ली गयीं. लेकिन क्या नाज करने के लिए इतना काफी है? नाज करने का यह उतावलापन क्या हमें यह सीख देने की कोशिश नहीं है कि ‘जान है तो जहान है?’ यह कहावत आपदा के आगे मनुष्य की कमजोरी की ही दलील है. क्या जान बचा कर खुद की पीठ थपथपाने से पहले हमने मनुष्यों की उस बड़ी तादाद की हालत के बारे में सोचा, जिनकी जान तो बच गयी लेकिन जहान लुट गया? शुरुआती आकलन में कहा जा रहा है कि तूफान से 90 लाख से ज्यादा लोग प्रभावित हुए हैं, करीब ढाई लाख लोग बेघर हो गये हैं. ओड़िशा के राजस्व मंत्री बता रहे हैं कि 2400 करोड़ रुपये की फसल बरबाद हो गयी है. अकेले बालासोर जिले में ढाई लाख की आबादी बाढ़ में फंसी है. सोचिए, राहत शिविरों का दौरा कर रहे नवीन बाबू के पास उन लोगों को देने के लिए क्या है, जो जीवित तो हैं लेकिन जिनका जहान लुट गया है? चक्रवात की चपेट में जीविका गंवा चुके ऐसे प्रत्येक व्यक्ति को देने के लिए नवीन बाबू के पास हैं महज पांच सौ रुपये और आगे के दो महीने के लिए मुफ्त का राशन. इससे आगे कोई राहत दे पाना उनके बूते की बात नहीं, क्योंकि देश में आपदा प्रबंधन की व्यवस्था कुछ ऐसी है कि राज्यों को हर बार केंद्र का ही मुंह ताकना है.
हमारे देश का संविधान स्पष्ट शब्दों में नहीं बताता कि आपदा प्रबंधन की जिम्मेवारी केंद्र सरकार उठायेगी या राज्य सरकार. संघ सूची, राज्य सूची और समवर्ती सूची में आपदा-प्रबंधन का जिक्र नहीं आता. आपदा प्रबंधन का जिम्मा अगर केंद्र सरकार उठाती है तो इसलिए कि संघ सूची में कहा गया है कि जिस विषय का जिक्र किसी सूची में नहीं है, उसका जिम्मा केंद्र का है. सच्चाई यही है कि आपदाओं को ङोलना पड़ता है राज्य सरकारों को और केंद्र की भूमिका आपदा प्रबंधन में मददगार की ही रहती है. राज्य सरकार द्वारा गुहार लगाने पर वह वित्तीय, तकनीकी और अन्य मदद देती है. केंद्र से कितनी वित्तीय मदद मिलेगी, यह भी बहुत दिनों तक स्पष्ट नहीं था. वित्तीय मदद देने की दिशा में ठोस कदम दूसरे वित्त आयोग (1955-60) के दौरान उठाये गये. तब विधान हुआ कि प्राकृतिक आपदा से निपटने में होनेवाले खर्च के लिए अलग से एक कोष होगा. नौवें वित्त आयोग (1990-95) के समय आपदा राहत कोष बना, जिसके हर सौ रुपये में केंद्र का योगदान 75 और राज्य का 25 रुपये का होता है. यह रकम राज्यों को इस आधार पर दी जाती है कि बीते दस साल में राहत कार्य पर उनका खर्च कितना रहा है. 2005-10 की अवधि में राज्यों को इस कोष से महज 22 हजार करोड़ रुपये मिले हैं और इसमें सर्वाधिक (11 फीसदी) राजस्थान, जबकि इसका आधा (6 फीसदी) ओड़िशा के हिस्से आया है. एक तो रकम कम, तिस पर ओड़िशा की हिस्सेदारी कम. क्या यह उम्मीद करें कि इस रकम के सहारे ओडिशा 90 लाख लोगों के पुनर्वास का काम उचित ढंग से कर पायेगा?