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भ्रष्टाचार पर दोतरफा कोलाहल का सच
उर्मिलेश वरिष्ठ पत्रकार पूवार्नुमानों को सच साबित करते हुए संसद का मॉनसून सत्र ‘तूफानी’ साबित हो रहा है. सत्ता पक्ष और मुख्य विपक्षी दल अपने पूर्व निर्धारित रुख पर कायम हैं. इस गतिरोध को देखने और व्याख्यायित करने के दो परिप्रेक्ष्य हो सकते हैं- पहला संसदीय नियमावली का और दूसरा राजनीतिक. संसदीय कार्य नियमावली की […]
उर्मिलेश
वरिष्ठ पत्रकार
पूवार्नुमानों को सच साबित करते हुए संसद का मॉनसून सत्र ‘तूफानी’ साबित हो रहा है. सत्ता पक्ष और मुख्य विपक्षी दल अपने पूर्व निर्धारित रुख पर कायम हैं. इस गतिरोध को देखने और व्याख्यायित करने के दो परिप्रेक्ष्य हो सकते हैं- पहला संसदीय नियमावली का और दूसरा राजनीतिक.
संसदीय कार्य नियमावली की दृष्टि से देखें, तो संसद के दोनों सदनों की कार्यवाही सुचारू रूप से चलनी चाहिए और नियमों के तहत प्रश्नकाल के बाद दोनों सदनों में ‘ललितगेट’ या ‘व्यापमं’ पर चर्चा हो सकती है. आरोपों में घिरा सत्ता पक्ष यही चाहता है, वह प्रश्नकाल को दरकिनार कर ‘ललितगेट’ पर बहस के लिए तैयार है. साथ में यह भी कह रहा है कि कांग्रेस शासित राज्यों की सरकारों के भ्रष्टाचार पर भी बात होगी.
स्वतंत्र भारत में सत्ता पक्ष की यह सर्वथा नयी ‘रणनीति’ सामने आयी है. वस्तुत: वह विपक्ष को धमकाता नजर आ रहा है- ‘हमारे नेताओं के मामले में खामोश नहीं हुए तो तुम्हारे नेताओं के मामले भी सामने लायेंगे.’ मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस उसे यूपीए-2 की याद दिला रही है, जब उसने हर छोटे-बड़े मुद्दे पर मनमोहन सरकार को घेरते हुए संसद की कार्यवाही बारंबार ठप्प की थी. संसद में व्याप्त गतिरोध की व्याख्या का यह राजनीतिक परिप्रेक्ष्य है.
आखिर भ्रष्टाचार पर इस दोतरफा कोलाहल का सच क्या है?
संसद सत्र को चलाने के लिए भाजपा ठीक वही दलीलें दे रही है, जो मई, 2014 से पहले कांग्रेस दिया करती थी और संसद में गतिरोध को जायज ठहराने के लिए कांग्रेस की दलील बिल्कुल वही है, जो तब विपक्षी भाजपा की हुआ करती थी. अपने दो केंद्रीय मंत्रियों और तीन मुख्यमंत्रियों पर लगे संगीन आरोपों पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का मौनव्रत अभी टूटा नहीं है.
2013-14 के दौरान मोदी ने तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का नया नामकरण किया था- ‘मौनमोहन’ सिंह! संयोग देखिए, अब मोदी भी मौन हैं. सब आश्चर्यचकित हैं कि अपने जुमलों, भाषणों और वाक-चातुर्य के लिए चर्चित नेता खामोश क्यों हैं?
प्रधानमंत्री मोदी अगर ‘न खाऊंगा, न खाने दूंगा’ वाली अपनी छवि को लेकर सजग होते, तो संसद सत्र से पहले ही कम-से-कम ‘ललितगेट’ के आरोपी अपने दो प्रमुख नेताओं- एक केंद्रीय मंत्री और एक मुख्यमंत्री- के इस्तीफे के बाद सदन में दाखिल होते. इससे उनका सियासी कद और बढ़ता.
विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने भी अपने स्तर से पहल नहीं की, जबकि पार्टी में वह लालकृष्ण आडवाणी के नजदीक मानी जाती हैं. भाजपा में अकेले आडवाणी थे, जिन्होंने जैन हवाला-डायरी में सिर्फ नाम आने पर अपने पद से इस्तीफा दे दिया था.
वसुंधरा राजे से इस तरह की राजनीतिक-नैतिकता की अपेक्षा किसी को नहीं थी, पर सुषमा से थी. उन्होंने अपने असंख्य समर्थकों-शुभचिंतकों को निराश किया है. यही हाल मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान का है. संघ-शिक्षित चौहान से भी न्यूनतम शासकीय नैतिकता दिखाने की अपेक्षा की जा रही थी. भाजपा के वरिष्ठ नेता और हिमाचल प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री शांता कुमार की पीड़ा यूं ही नहीं है.
आखिर भाजपा में ऐसा क्या हो गया है कि उसका कोई बड़ा नेता या ओहदेदार संगीन आरोपों में जांच के नतीजे आने तक भी अपना सरकारी पद छोड़ने को तैयार नहीं! यूपीए-2 के दौरान संसद और उसके बाहर भारी दबाव बना कर विपक्षी भाजपा ने तत्कालीन आरोपी कांग्रेसी मंत्रियों को इस्तीफे के लिए बाध्य किया. तत्कालीन रेल मंत्री पवन बंसल के भांजे पर अफसरों की ट्रांसफर-पोस्टिंग कराने और धन-उगाही के आरोप लगे थे. इसी तरह, तत्कालीन कानून मंत्री अश्विनी कुमार के एक विवादास्पद कदम पर ‘औचित्य’ का सवाल उठा.
भारी विवाद और विरोध के बाद दोनों को इस्तीफा देना पड़ा. लोकतांत्रिक जवाबदेही और शासकीय पारदर्शिता के उसूलों की रोशनी में उस वक्त इस्तीफा जरूरी समझा गया. अपने विवादास्पद कदम के पक्ष में तब भाजपा के शीर्ष नेताओं ने साफ-साफ कहा कि संसद की कार्यवाही को न चलने देना भी लोकतंत्र में एक संसदीय-रणनीति है और वह पूरी तरह जायज है. फिर जुलाई, 2015 में भाजपा के लिए मानदंड बदल कैसे गये?
बीते लगभग 26 साल से विधानमंडल और संसद की कार्यवाही ‘कवर’ करने के अपने पेशेवर-अनुभव के आधार पर मैं कह सकता हूं कि विपक्षी भाजपा जब संसद की कार्यवाही को लगातार बाधित कर रही थी, तब भी वह ठीक नहीं था और कांग्रेस आज जब वही काम कर रही है, तब यह भी ठीक नहीं है. लेकिन, यह सब हमारे संसदीय तंत्र में व्याप्त ‘व्याधियों’ के लक्षण हैं.
कई राज्यों में इसका ‘खतरनाक हल’ खोज लिया गया है. वहां सदनों की कार्यवाही के दिन लगातार घटते गये हैं. स्वयं मोदी जी जब गुजरात के मुख्यमंत्री थे, तब भारी बहुमत के बावजूद वहां सदन के कार्यदिवस लगातार घटाये जाते रहे. हरियाणा में कांग्रेसी हुकूमतों के दौरान भी ऐसा ही हुआ. मध्य प्रदेश विधानसभा का इस बार का मॉनसून सत्र तो महज तीन दिन चला. कई राज्यों में यह सिलसिला जारी है. हमारे लोकतंत्र की इन विकृतियों या व्याधियों की वजह क्या है?
सत्ता और चुनाव की राजनीति में नैतिक मूल्यों का पतन इसका मुख्य कारण है. निरंतर प्रश्न और विमर्श न होने से सत्ता और ओहदेदारों के क्रमश: निरंकुश होते जाने की जमीन तैयार हो रही है. यह हाल सिर्फ सदनों का ही नहीं है, ज्यादातर पार्टियों के अंदर का भी है.
महंगे चुनाव तंत्र, लोकतंत्र के संकुचन, शक्ति के बढ़ते संकेंद्रण और सामाजिक-राजनीतिक जीवन में व्याप्त भ्रष्टाचार के कारण यह हुआ है. हाल तक भाजपा चाल-चरित्र-चेहरे के स्तर पर अन्य दलों से अपने को अलग बताती रही है.
पर भाजपा नेता आज संसद और बाहर खुलेआम कह रहे हैं कि व्यापमं और ललितगेट पर चर्चा होगी, तो गोवा की पूर्व कांग्रेसी सरकार, हिमाचल की वीरभद्र और उत्तराखंड की रावत सरकार के ‘भ्रष्टाचार’ पर भी बहस होगी. समाज में अपने पर्दाफाश को लेकर भाजपा तनिक भी चिंतित नहीं है. उसे मालूम है, आज की सारी सियासत कुछ ऐसी ही तो है! और पब्लिक, वह भी सब जानती है.
क्या अपने जनप्रतिनिधियों (चंद अपवादों को छोड़ कर) को चुनते समय वह उनके लाखों-करोड़ों के चुनाव खर्च से वाकिफ नहीं होती! यह बड़ा कारण है कि भ्रष्टाचार के बड़े मामले भी आज किसी नेता या पार्टी को शर्मिदा नहीं करते. ले-देकर बस कुछ समय के लिए कोलाहल मचता है.
संसद के मॉनसून सत्र के कोलाहल से कुछ सार्थक निकले या न निकले, भ्रष्टाचार का सिलसिला यथावत रहेगा, क्योंकि इससे निपटने के लिए कोलाहल नहीं, ठोस कोशिश की दरकार है, जो फिलहाल दिख नहीं रही.
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